ॐ नमः हरिहराय
ॐ नमः हरिहराय

नितिन के. मिश्रा
31st December. Western Ghats. Goa, India.
“मुझे समझ नहीं आ रहा मैं क्या करूँ…,”
“पैलेस की सिक्योरिटी डबल कर दी है सर, हम सीसीटीवी रिकॉर्डिंग चेक कर रहे हैं जिसने भी ये किया है वो बच नहीं…”
“सर…” मॉनिटर पर नज़रें गड़ाए बैठा कमांडो चिल्लाया।
उस बंद कमरे में मौजूद हर निगाह पहले कमांडो के सफ़ेद पड़े चेहरे पर और फिर उसकी विस्मय से पथराई आँखों से होती हुई मॉनिटर स्क्रीन पर गयी जहाँ रिकॉर्डिंग का एक सेगमेंट लूप रिप्ले हो रहा था।
रिकॉर्डिंग में एक तेरह साल की बच्ची नज़र आ रही थी जो की मार्बल स्टैच्यू जैसी जड़वत खड़ी थी और पथराई आँखों से अपने सामने ख़ाली वुडेन टेबल की तरफ़ देख रही थी। अगले ही पल कमरे की बड़ी फ़्रेंच विंडो का पर्दा हवा में लहराया और टेबल पर एक 6x8 इंच का आयताकार बक्सा जैसे पलक झपकते हवा में प्रकट हो गया। स्तब्ध खड़ी लड़की आगे बढ़ी, सीसीटीवी ग्रेनी वीडियो आउटपुट में भी उसके चेहरे और आंखों में झांकता डर साफ़ झलक रहा था। लड़की के काँपते हाथों ने बॉक्स लिड खोली और लीड खोलते ही उसके अंदर जो था उसे देख कर लड़की पागलों के समान बुरी तरह चीखी।
चीख सुन कर रूम का दरवाज़ा तेज़ी से खुला और घबरायी हुई सुभद्रा भीतर दाखिल हुई। वीडियो लूप बार-बार यहीं ख़त्म हो रहा था।
“आउट…नाउ,” कदम के आदेश पर सीसीटीवी ऑपरेट करता कमांडो फ़ौरन उठ कर वहाँ से बाहर निकल गया।
“किसे पकड़ोगे कदम? कैसे पकड़ोगे?” आवाज़ की थरथराहट गिरीश बाबू की मनःस्थिति स्पष्ट बयान कर रही थी। दरवाज़े की चौखट पर खड़े लगभग साठ साल के गिरीश बाबू के एक हाथ में वही वुडन बॉक्स था जो वीडियो फ़ुटेज में लड़की ने खोला था।
“सर!” कदम की चौकन्ना आवाज़ गूंजी जो गिरीश बाबू को किसी लंबी सुरंग के दूसरे छोर से आती मालूम दी।
गिरीश बाबू का शरीर सुन्न पड़ रहा था। उस घड़ी जैसे उनके दिमाग़ को नीचे मार्बल फ्लोर की तरफ़ तेज़ी से गिरते उनके जिस्म की तनिक भी परवाह नहीं थी। अगर चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम ने सही वक्त पर गिरीश बाबू को थाम ना लिया होता तो यकीनन उन्हें मुँह के बल गिरने से गंभीर चोटें आती, पिछली बार से भी कहीं गंभीर।
“डैड!” उस सुरंग के पार से मल्हार की आवाज़ भी सुनाई दी।
और साथ ही डॉक्टर थापा की, “पल्स डिप हो रही है। कदम, इन्हें फ़ौरन बेडरूम में लिटाओ मैं एम्बुलेंस बुलाता हूँ,”
गिरीश की शर्ट के बटन खुले और सीने पर स्थेटोस्कोप का मैटेलिक ठंडा स्पर्श महसूस हुआ।
“न…नहीं। मैं कहीं नहीं जाऊँगा, इरा को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा,” गिरीश की आवाज़ भले ही धीमी थी लेकिन इस कदर सर्द और आदेशात्मक थी। वहाँ मौजूद हर शख़्स जानता था कि उनकी बात काटी नहीं जा सकती।
“मुझे मेरे रूम में ले चलो,”
डॉक्टर थापा, कदम और मल्हार ने सहारा देकर उन्हें उठाया। परेशान हाल सुभद्रा उनके पीछे-पीछे चल रही थी।
दो मिनट बाद गिरीश बाबू अपने रूम में थे। बॉक्स अब भी उनके साथ था।
“तुम चारों के अलावा मुझे किसी पर भरोसा नहीं है…सच कहूँ तो शायद ख़ुद पर भी नहीं। सिचुएशन तुम चारों अच्छी तरह जानते हो…मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्या करना…”
“अभी आपको रेस्ट करना चाहिए, हम बाद में बात…”
“मेरी बात बीच में मत काटो थापा,”
रूम में सन्नाटा छा गया।
“इरा से ज़्यादा ज़रूरी अभी कुछ भी नहीं,” गिरीश बाबू कलप कर बोले।
पूर्ववत सन्नाटा व्याप्त रहा।
“तुम सब ने अपनी आँखों से देखा ना वो वीडियो फ़ुटेज भी और उस बॉक्स में जो है वो भी। अब शक की कोई गुंजाइश नहीं कि जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे पारलौकिक शक्तियां और इस परिवार को तेरह साल पहले लगा शाप है जिसकी क़ीमत मेरी इरा चुका रही है,” गिरीश बाबू ने यह वाक्य वहाँ उपस्थित लोगों से ज़्यादा जैसे ख़ुद से कहे।
“मैं पारलौकिक शक्तियों में नहीं मानता गिरीश बाबू, और मान लीजिए ऐसा कुछ हो भी तो अदृश्य शक्तियां वो सब कुछ कैसे रखेंगी जो उस बॉक्स में है,” डॉक्टर थापा ने तर्क देते हुए कहा, हालांकि उसकी आवाज़ में संशय स्पष्ट झलक रहा था।
“मैं डॉक्टर थापा से सहमत हूँ, सर। मुझे भी लगता है कि इस सब के पीछे कोई इंसान है। बेहद शैतानी और विकृत मानसिकता वाला इंसान।” कदम डॉक्टर थापा के कथ्य का समर्थन करता हुआ बोला।
ठीक उसी समय कॉरिडोर में एक तेज़-तीखी चीख गूंजी।
“डैडीsss….”
चीख की तीव्रता इतनी अधिक थी कि रूम के शीशम के मोटे दरवाज़े को भेदते हुए भीतर तक गूंजी।
“इरा…मेरी बच्चीsss” गिरीश बाबू का कलेजा चीख पर लरजा।
उस पल में गिरीश बाबू जैसे इरा के अतिरिक्त बाक़ी सब भुला बैठे। अपनी शारीरिक अवस्था भी। उनकी काँपती टाँगें भारी-भरकम बदन का जितना बोझ ले पायीं उसकी लिमिट पुश करते हुए वो बगुले की भाँति बेड से उछले और अगले ही पल रूम का दरवाज़ा खोल कर कॉरिडोर में दौड़ लगा दी।
बाकियों में से किसी ने भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की, बल्कि बाक़ी लोग भी फुर्ती से गिरीश बाबू के पीछे लपके।
गिरीश बाबू के बगल वाले रूम के पीछे से कुछ अजीब आवाज़ें आ रही थीं। जैसे किसी जानवर का गला तीखे धारदार हथियार से रेता जा रहा हो। गिरीश बाबू ने दरवाज़ा खोलने की कोशिश की लेकिन सफल ना हुए।
“डोर अंदर से लॉक्ड है,”
“आप साइड हट जाइए सर, मैं देखता हूँ,” कदम अपनी शर्ट स्लीव्स रोल करते हुए बोला।
वहाँ मचा कोलाहल सुन कर कुछ सिक्योरिटी कमांडो कॉरिडोर की तरफ़ बढ़े।
“उन्हें रोको कदम। पता नहीं अंदर क्या देखने को मिलेगा,” गिरीश बाबू डूबती आवाज़ में बोले।
कदम की आँखों का इशारा ही कमांडोज़ के लिए काफ़ी था। कमांडोज़ पहले अपनी जगह ठिठके और फिर वहीं से वापस घूम गए।
अंदर से आती आवाज़ें हर पल बदल रही थीं। कुछ देर पहले बलि दिए जाते जानवरों के रंभाने की आवाज़ अब हल्की फुसफुसाहट में तब्दील हो गई थी, जैसे कोई प्राचीन, लुप्त हो चुकी अनजानी भाषा में मंत्र बुदबुदा रहा हो।
“जल्दी करो कदम!!” गिरीश बाबू असहाय भाव से चिल्लाए।
कदम और डॉक्टर थापा ने दरवाज़ा तोड़ना शुरू किया। शीशम का मज़बूत दरवाज़ा इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था। कदम ने एक नज़र मल्हार पर डाली। मल्हार इत्मीनान से पैंट पॉकेट में हाथ डाले खड़ा था, उसने आगे बढ़ने या कदम और डॉक्टर थापा का साथ देने की कोई चेष्टा नहीं की।
ये उस दबे गुस्से का असर था जो उस पल कदम को मल्हार पर आया था या फिर गिरीश बाबू की अवस्था और इरा की सलामती की फ़िक्र, उसके अगले दो धक्कों के आगे दरवाज़े की चिटकनी जवाब दे गई। सभी धड़धड़ाते हुए अंदर दाखिल हुए।
रूम के बीचों-बीच लगे लार्ज साइज़ राउंड बेड के ऊपर वही लड़की खड़ी हुई थी जो सीसीटीवी वीडियो में थी। उसके चेहरे के एक्सप्रेशन डिस्टॉर्टेड थे, आँखें कटोरियों में लगभग पीछे को पलटी हुई और जिस्म अकड़ा हुआ।
“आ गया गिरीश बाबू। कैसा लगा अपनी बेटी का लहू सूंघ के?” लड़की के गले से घरघराहट के साथ जो आवाज़ निकली वो किसी बच्ची की नहीं थी। भारी, अस्पष्ट और घरघराहट के साथ उसके गले से आती आवाज़ की पिच कभी ऊँची तो कभी हल्की फुसफुसाहट सी होती जिसमें शब्द समझने मुश्किल हो जाते।
“इरा! मेरी बच्ची! क्या हो रहा है तुझे…” गिरीश बाबू ने चीख कर अपने कदम आगे बढ़ाए जो अगले ही पल थमे और पीछे खींच लिए गए।
“इसके पास आने की कोशिश की तो इसके जिस्म की हड्डियां मांस फाड़ कर बाहर निकलेंगी,” चेतावनी के साथ इरा के अंग अप्राकृतिक कोणों पर मुड़ने लगे।
“तेरी बेटी रजस्वला हो गई है गिरीश बाबू। तेरह साल इंतज़ार किया है मैंने इस पल का। तेरे वंश का विनाश अब शुरू होता है।”
“कौन हो तुम? मेरी इरा के साथ क्या किया है तुमने?”
“अब तक कुछ नहीं किया, पर अब इसके साथ ऐसे कृत्य किए जाएँगे कि इसका हाल देख कर तेरी अंतरात्मा कलप उठेगी,”
लड़की के अकड़े हुए हाथ उसकी स्कर्ट के निचले सिरे पर कसे और उसे ऊपर उठाने लगे।
“देख इसे देख कर तेरी बूढ़ी रगों में उबाल आता है क्या,”
इरा की स्कर्ट उसकी जांघों तक उठी। गिरीश बाबू, कदम, डॉक्टर थापा और मल्हार ने नज़रें फेर लीं।
“इधर देखो सब,” इरा के रूँधे गले से आदेश गड़गड़ाते हुए निकला। उसके अकड़े हुए हाथ यूँ ठिठक रहे थे जैसे रुक जाने की तीव्र चेष्टा कर रहे हों लेकिन कोई अदृश्य शक्ति उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे रुकने नहीं दे रही। इस स्ट्रगल में इरा का जिस्म मिर्गी के मरीज़ सा थर्राने लगा।
“नहींsss…” इससे अधिक सहन करने की क्षमता सुभद्रा में ना थी। वो चीखते हुए आगे बढ़ी और बेड पर रखे ब्लैंकेट से इरा को लपेट दिया। एकाएक इरा का जिस्म ढीला हुआ और वो अपने होश खो कर सुभद्रा के कंधे पर झूल गई। गिरीश बाबू, कदम और डॉक्टर थापा फुर्ती से आगे बढ़े। बेहोश इरा को सावधानीपूर्वक लिटा दिया गया।
“एक्सट्रीम शॉक से कोलैप्स कर गई है। इसे ऑब्जर्वेशन में रखना होगा,” डॉक्टर थापा ने बेहोश इरा की पल्स चेक करते हुए कहा।
“ये कहीं नहीं जाएगी, बेस्ट डॉक्टर्स की टीम बुलाओ थापा, जो भी फ़ैसिलिटी और इक्विपमेंट चाहिए सब यहीं इनस्टॉल करो,” गिरीश बाबू ने आदेशात्मक अंदाज़ में फ़रमान जारी किया।
डॉक्टर थापा ने अनिच्छित रूप से स्वीकृति में सिर हिलाया।
“इसके अलावा….” गिरीश बाबू कहते हुए बीच में ठिठके, फिर थोड़ा रुक कर बोले, “किसी साइकिक को भी बुलाओ,”
“आपका मतलब है किसी साइकिएट्रिस्ट को?”
“क्या ये तुम्हें किसी साइकिएट्रिस्ट के वश का रोग लगता है थापा? हमें कोई सिद्ध तंत्रिका चाहिए। एक पहुँचा हुआ शामन जो पारलौकिक शक्तियों का सामना कर सके,”
“ये आप क्या कह रहे हैं सर,” भौंचक होते हुए कदम बोला।
“तो और क्या कहूँ?” इस बार गिरीश बाबू की आवाज़ में एक असहाय और बेबस पिता का दर्द साफ़ झलक रहा था, “तुम लोगों ने देखी ना मेरी इरा की हालत! बताओ, क्या वो आवाज़, लहजा और हरकत मेरी मासूम बच्ची की थी?”
कोई जवाब ना आया।
“या तो इरा पोजेस्ड है या फिर किसी ने उसपर वशीकरण किया है। सच का पता लगाने के लिए ऐसा व्यक्ति चाहिए जो काले जादू और ऐसी शक्तियों का एक्सपर्ट हो,”
“ये बहुत बड़ा रिस्क होगा सर, ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। मुझे तो ऐसे सभी लोग फ्रॉड लगते हैं, लेकिन अगर मान लें कि कोई सही जानकार मिल भी गया तो इसकी क्या गारंटी है कि वो इरा की सिचुएशन और आपकी पोजीशन का ग़लत फ़ायदा नहीं उठाएगा?”
“कदम ठीक कह रहा है गिरीश बाबू, बात अगर एक बार बाहर निकली तो जंगल की आग के जैसे फैलेगी। आपका नाम, रेप्यूटेशन, पॉलिटिकल करियर, सब बर्बाद हो जाएगा,”
“अपनी इरा के लिए मैं सब गँवाने को तैयार हूँ थापा, मेरी इरा बचनी चाहिये,”
“इस लड़की का दिमाग़ ख़राब है। पागल है ये, बिल्कुल अपनी माँ की तरह,…” अब तक चुप खड़ा मल्हार चिढ़ कर बोला।
“मल्हार!” गिरीश बाबू की क्रोध से काँपती आवाज़ गरजी।
मल्हार ने यूँ दाँत पीसे जैसे अपने मन से उमड़ते शब्दों को बड़ी मुश्किल से बाहर निकालने से रोक रहा हो, फिर वो एकाएक पलटा और अपने पीछे दरवाज़ा तेज़ आवाज़ में पीटते हुए वहाँ से निकल गया। उसकी इस हरकत पर किसी ने भी तवज्जो ना दी जैसे उससे ऐसा ही कुछ अपेक्षित था।
“मैं किसी को जानती हूँ जो हमारी हेल्प कर सकता सकता है,” सुभद्रा गंभीर स्वर में बोली।
“कौन?” गिरीश बाबू की आँखों में आई आस उनकी आवाज़ से झलकी।
सुभद्रा कुछ पल ठिठकी, जैसे उस नाम को ज़ुबान पर लाने के लिए काफ़ी हिम्मत जुटाने की ज़रूरत हो उसे।
“निमित्त…निमित्त कालांत्री,”
“व्हॉट! नो! आई स्ट्रॉंगली डिसएग्री। वो आदमी ख़ुद आधा पागल है। जिसे ख़ुद मेंटल एसाइलम में होना चाहिए वो इरा की ट्रीटमेंट क्या करेगा?” डॉक्टर थापा ने सुभद्रा के प्रस्तावित नाम का पुरज़ोर खंडन करते हुए कहा।
“डॉक्टर थापा सही कह रहे हैं सर। मुझे इस तरह का काम करने वाले सभी ढोंगी और पाखंडी ही लगते हैं उसमें ये आदमी सबसे बड़ा पाखंडी है,” कदम भी अपना मत रखते हुए बोला।
गिरीश बाबू कुछ पल खामोश रहे, जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हों।
“निमित्त कालांत्री…ये नाम सुना-सुना लग रहा है, पर ठीक से याद नहीं आ रहा,”
“आचार्य संजीव गौतम का चेला था। दो साल पहले इसके ऊपर धोखाधड़ी, चार सौ बीसी और ग़ैर इरादतन हत्या का केस हुआ था। मीडिया ने इस मामले को काफ़ी तूल दी थी लेकिन साक्ष्यों के अभाव में कुछ साबित नहीं हो सका और ये कालांत्री बच निकला। उसके बाद से ये कहाँ है, क्या कर रहा है, इसका पता-ठिकाना कहाँ है कोई नहीं जानता,” कदम नपे-तुले शब्दों में बात रखते हुए बोला।
“आचार्य संजीव गौतम…वो “आर्ट ऑफ़ लव, पर्सनल हीलिंग एंड अवेकनिंग” वाले?” गिरीश बाबू दिमाग़ पर ज़ोर डालते हुए बोले।
“ऐन वही। कालांत्री एक समय में इनका स्टार डिसिपल था, फिर लालच और अपने गुरु से बड़ा बनने की ज़िद ने इसका दिमाग़ ख़राब कर दिया,”
गिरीश बाबू ख़ामोश हो गए। उनकी आँखों में जो आस सुभद्रा ने जगायी थी वो उनके चेहरे के साथ बुझ गई। सुभद्रा ने अपनी बात पर कोई तर्क ना करते हुए जैसे पराजय स्वीकार ली और बेड पर बेहोश लेटी इरा का सिर स्नेहपूर्वक सहलाने लगी। सुभद्रा की आँखें भर आईं।
“तुम इस…निमित्त कालांत्री को कैसे जानती हो?” गिरीश बाबू ने सवाल किया।
“कॉलेज में मेरा सीनियर था…मैंने देखा है सर ये आदमी क्या कर सकता है,”
गिरीश बाबू की नज़रें बेहोश इरा से होते हुए सुभद्रा की छलछलाई आँखों तक गईं। वो आँखें ममता और करुणा से छलछलाई थीं पर उनमें कोई छल नहीं था।
“याद है सुभद्रा जब तुम पहली बार यहाँ आई थी, इरा मुश्किल से दो महीने की थी। बिन माँ की बच्ची, जिसका शायद जीवित बचना भी मुश्किल था। तुम यहाँ सिर्फ छे महीने के कांट्रैक्ट पर नैनी और केयरटेकर के रूप में आई और आज तेरह साल बीत चुके हैं,”
सुभद्रा खामोश रही, बस उसकी आँखों से दो आँसू ढलके।
“तुम जीवन में बहुत कुछ कर सकती थी, यंग और टैलेंटेड थी, पूरी लाइफ तुम्हारे सामने थी। मुझे याद है तुम आर्टिस्ट बनना चाहते थी, दुनिया घूमना चाहती थी…लेकिन इसकी जगह तुमने इरा की माँ बनना चुना। तेरह साल तुम्हारे जीवन का हर क्षण इरा को समर्पित रहा है। अगर दुनिया में सबसे ज़्यादा….मुझसे भी ज़्यादा किसी ने इरा को प्रेम दिया है तो वो तुम हो सुभद्रा,”
गिरीश बाबू की बात का झुकाव किस ओर रुख़ कर रहा था ये भाँप कर कदम कुछ बोलने को हुआ, गिरीश बाबू का हाथ किसी शासक के समान उठा। उस मूक आदेश के वज़न से कदम गर्दन झुकाए खड़ा हो गया।
“तुम्हें वाक़ई लगता है कि ये आदमी हमारी मदद कर सकता है? इरा को ठीक कर सकता है?” गिरीश बाबू सुभद्रा की आँखों में झांकते हुए बोले जैसे उसकी आत्मा से सच टटोलने की कोशिश कर रहे हों।
“मुझे पूरा विश्वास है सर, अगर दुनिया में कोई इंसान इरा की मदद कर सकता है तो वो सिर्फ़ यही है,” इस बार सुभद्रा के स्वर में गूंजती दृढ़ता में संशय का लेशमात्र भी पुट ना था।
“लेकिन कदम कह रहा है कि वो कहाँ गया, उसका ठिकाना कहाँ है कोई नहीं जानता। उसे ढूँढोगी कैसे?”
“परसों 2 जनवरी है सर,”
“हाँ, तो?”
“अगर निमित्त कालांत्री ज़िंदा है, तो वो पूरी दुनिया में कहीं भी क्यों ना हो, 2 जनवरी को ठीक शाम के 5:55 मिनट पर वो सिर्फ़ एक ही जगह मिलेगा और वो जगह मैं जानती हूँ,” सुभद्रा हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई, उसने स्नेह से इरा का माथा चूमा।
“मुझे फ़ौरन निकलना होगा सर,”
“कहाँ?”
“उसके शहर,”
2 January. Varanasi. India
Time: 5:54 pm
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम्
निराकारमोङ्करमूलं तुरीयं
गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकालकालं कृपालं
गुणागारसंसारपारं नतोहम्
शाम के छे बजने में छे मिनट बाक़ी थे। दूर अस्सी घाट से रुद्राष्टकम की ध्वनि आ रही थी। सुभद्रा रविदास घाट की कच्ची सीढ़ियों के पास, सुनसान अँधेरे कोने में खड़ी थी और शांत गंगा की लहरों को देख रही थी। वहाँ काफ़ी ठंड थी। स्वेटर, मफलर, पैडेड ओवरकोट के बावजूद शीत-लहरी उसके जिस्म में झुरझुरी पैदा कर रही थी।
वहाँ का वातावरण सुभद्रा जो जैसे खींच के तेरह साल पहले की यादों की उन गलियों में ले जा रहा था जिन तक जाने के रास्ते वो कब का बंद कर चुकी थी।
दीपक।
उसके जीवन में आया पहला और आखरी लड़का। दीपक और सुभद्रा का प्यार किसी कहानी या फ़िल्म के टिपिकल कॉलेज रोमांस सा नहीं था। पहली बार मिल कर ही दोनों ने एक-दूसरे से जो आत्मिक जुड़ाव महसूस किया था वो जल्द ही एक अटूट प्रेम में बदल गया। लेकिन अटूट प्रेम सम्बन्ध भी अमर नहीं होते…और ना ही अटूट प्रेम करने वाले इंसान।
कॉलेज मैनज्मेंट के रूल्ज़ अमेण्डमेंट और आउटडेटेड कोर्स इन्फ़्रस्ट्रक्चर में चेंजेज़ के लिए दीपक व अन्य स्टूडेंट्स पीसफ़ुल प्रोटेस्ट कर रहे थे जब यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के कुछ लड़कों और यूनिवर्सिटी प्रॉक्टर गार्ड्ज़ के बीच झड़प शुरू हो गयी। देखते ही देखते झड़प ने पथराव और जवाबी लाठीचार्ज का रूप ले लिया जिसमें दीपक के सिर पर गम्भीर चोटें आईं। कॉलेज से सर सुंदर लाल हॉस्पिटल ले जाने के बीच ही दीपक ने दम तोड़ दिया। स्टूडेंट्स के आक्रोश को देखते हुए यूनिवर्सिटी ने सिर्फ़ कार्यवाही की ख़ानापूर्ति करते हुए दोषी गार्ड्ज़ को निष्कासित कर दिया।
शाम में कॉलेज के सभी स्टूडेंट्स दीपक की आत्मा शांति के लिए गंगा में दीप प्रज्ज्वलित करने इकट्ठा हुए थे। एक-एक कर के सभी चले गए, पीछे रह गए तो गंगा पर तैरते दिये, जो लहरों के साथ बहते हुए दूर चले जा रहे थे और उन दियों से भी दूर जा चुके दीपक की यादों के साथ सुभद्रा, जिसकी आँखों से बहते आंसुओं की गहराई गंगा से कम ना थी।
सुभद्रा ज़ोर से चीखी। अपने अंदर की घुटन और अकेलापन शायद उस चीख के साथ बाहर निकालना चाहती थी लेकिन चीख में दर्द निकला तो उसकी जगह जैसे वेदना ने ले ली। सुभद्रा से घुटन अब बर्दाश्त नहीं हो रही थी। वो घाट की सीढ़ियों से उठी और लड़खड़ाते कदमों से नीचे नदी की ओर बढ़ी। आँखें आँसुओं से धुँधलाई हुई थीं, जो घिरती शाम के धुँधलके में, गंगा में डूबते सूरज के साथ ही अपने जीवन और दर्द दोनों को डुबो देना चाहती थी। सुभद्रा के पाँव पानी से स्पर्श हुए। बनारस में जनवरी की सर्दी में ख़ून जमा देने लायक़ बर्फीले पानी से अधिक सिहरन उसकी रीढ़ में उस आवाज़ से दौड़ गई।
“रुक जाओ,”
सुभद्रा चौंक कर पलटी। ऊपर सीढ़ियों पर अंधेरे में एक साया बैठा था जो अब नीचे उसकी ओर उतर रहा था। उस साये के पास आते ही सुभद्रा ने उसे पहचाना। वो उनका सीनियर था। निमित्त कालांत्री।
सुभद्रा ने निमित्त को सुबह उन सिक्योरिटी गार्ड्ज़ को पीटते देखा था जिन्होंने दीपक पर लाठी चलाई थी। निमित्त ही सबसे पहले घायल दीपक को गोद में उठा कर हॉस्पिटल की ओर भागा था। उसकी वाइट शर्ट पर ख़ून के धब्बे अब सूख कर गहरा चुके थे। कॉलेज में निमित्त ने शायद ही कभी दीपक या सुभद्रा से बात की होगी। इन-फ़ैक्ट सुभद्रा ने निमित्त को कॉलेज में शायद ही किसी से कभी बात करते देखा था। वो अजीब सा था। वीयर्डो, क्रीपी जीन्यस, पैरानॉर्मल फ़्रीक, वग़ैरह-वग़ैरह निमित्त के टाइटल थे जो कॉलेज में उसे दिए जाते थे।
“क्या करने जा रही थी?” निमित्त लगभग उसे डाँटते हुए बोला।
“क…कुछ नहीं,” सुभद्रा के रुँधे गले से हल्की आवाज़ निकली।
“झूठ। तुम कूदने जा रही थी। जान लेना महापाप है, भले ही जान अपनी क्यों ना हो। जब हम जीवन दे नहीं सकते तो उसे लेने का अधिकार भी हमारा नहीं,”
“क्यों नहीं है मेरा अधिकार? जीवन मेरा है, मैं नहीं तो कौन तय करेगा?” सुभद्रा दर्द में चीखी।
“महादेव। संसार उनका, तो अधिकार भी उनका। जीवन हो या मृत्यु, किसे क्या देना है तय महादेव ही करते हैं,” निमित्त उँगली ऊपर आसमान की ओर उठा कर मुस्कुराते हुए बोला।
“दीपक की जान लेने में ना हिचकिचाए महादेव, मुझसे मेरा प्यार छीनने में ना हिचकिचाए, फिर मेरी जान लेने में क्या तकलीफ़ है उन्हें?”
“तुम्हारा समय नहीं आया है अभी। रहा सवाल प्यार का, तो वो अगले छे महीने में तुम्हारे जीवन में वापस आ जाएगा,”
“तुम क्या हो? अंतर्यामी? भगवान? मेरी ज़िंदगी में दीपक की जगह कोई नहीं लेगा…कभी नहीं!” सुभद्रा ग़ुस्से और दर्द से बिफर कर बोली।
“प्रेम के हर रूप में सबसे ऊपर, सबसे श्रेष्ठ क्या है, पता है? मातृत्व। प्रेम तुम्हारे जीवन में वापस आएगा, लेकिन मातृत्व के रूप में। महादेव ने जो लिया है, उससे ज़्यादा वो तुम्हें दे देंगे,”
निमित्त की कोई भी बात सुभद्रा की समझ में नहीं आ रही थी। शायद सब सही थे निमित्त के बारे में, उसका दिमाग़ सही जगह पर नहीं था।
“मातृत्व? अगले छे महीने में? तुम पागल-वागल हो क्या?”
“अपनी जान लेने की कोशिश मत करना, मर नहीं पाओगी। निमोनिया होगा सो अलग,” निमित्त ने चेतावनी देते हुए कहा और वापस जाने को पलटा।
“यू नो…आज यहाँ जितने भी लोग आए दीपक को श्रद्धांजलि देने, प्रेस वाले, मीडिया वाले, हफ़्ते-दस दिन में तुम लोग दीपक का नाम भी भूल जाओगे। फिर इतना दिखावा, ये सब ड्रामा किस लिए? वो सिर्फ़ मेरी यादों में रह जाएगा हमेशा के लिए। मैं उसकी जगह किसी को नहीं लेने दूँगी, कभी नहीं।” सुभद्रा कलप कर बोली।
ऊपर चढ़ता निमित्त सीढ़ियों पर ही ठिठक कर रुक गया।
“अगर ऐसा है तो मैं तुमसे वादा करता हूँ, अब से लेकर जब तक मैं ज़िंदा हूँ और अपनी पैरों पर खड़ा हूँ, मैं हर साल आज के दिन, ठीक इसी समय यहाँ दीपक को श्रद्धांजलि देने आऊँगा,” निमित्त वापस उसके पास आते हुए बोला।
“तुम आओगे श्रद्धांजलि देने? हर साल? अरे तुम दीपक को सही से जानते तक नहीं थे,”
“किसी से जुड़ाव होने के लिए उसे जानना ज़रूरी नहीं होता,”
“तुम डिल्यूज़नल हो क्या?” सुभद्रा खिज कर बोली।
“कभी घमंड नहीं किया,” निमित्त ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तुम अगर ये सब ‘सिंपिंग’ के लिए कर रहे हो, ये सोच के कि इसका बॉयफ़्रेंड अभी-अभी मरा है, बंदी फ़्री हुई है तो सिम्पथी दिखा के, रोने के लिए कंधा देने के बहाने चान्स मार लेता हूँ तो फ़क-ऑफ़! इससे ज़्यादा डिस्गस्टेड हरकत दूसरी नहीं हो सकती,” सुभद्रा अंधेरे में उसे घूरते हुए बोली।
निमित्त ने मुस्कुराते हुए अपना हाथ सुभद्रा की ओर सीधा किया। सुभद्रा घबरा कर झटके से दो कदम पीछे हुई।
“ॐ ह्रीं यं हं अनाहताय नमः” निमित्त आँखें बंद कर के मंत्रोच्चारण कर रहा था।
सुभद्रा को यूँ लगा जैसे उसके दिल में दर्द का जो बोझ था वो हल्का हो रहा है।
“ॐ शोक विनाशिन्यै नमः,” तुम्हारा अनाहत चक्र…हार्ट चक्र शांत हो जाएगा।
सुभद्रा को अपने अंदर उमड़ता दर्द और भावनाओं का आवेग शांत पड़ता मालूम हुआ।
“मे लव फ़ाइंड यू इन वेज़ दैट मेंड योर हार्ट,…ॐ नमः हरिहराय” इतना कह कर तेज़ कदमों से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए निमित्त वहाँ से ओझल हो गया।
ये निमित्त के उच्चारित उन मंत्रों का असर था या भावनाओं का आवेग थमने का, सुभद्रा ने अपनी जान लेने की कोशिश नहीं की। उस दिन के बाद उसकी निमित्त से कोई बात ना हुई।
कॉलेज में वो एक-दो बार नज़र आया फिर भी उसने सुभद्रा से बात करने की कोशिश ना की। एक महीने बाद सुभद्रा ने कॉलेज ड्रॉप कर दिया। कॉलेज की हर चीज़ उसे दीपक की याद दिलाती थी। ऐसे में वहाँ रहना और पढ़ना उसके लिए दूभर था।
सुभद्रा ट्रेडिशनल एंड फोक आर्ट स्टडी के लिए देश के विभिन्न प्रांतों में घूमते हुए वहाँ की लोक कलाओं को सीखने लगी। उसका इरादा दुनिया के अलग-अलग देशों में जा कर वहाँ की रीजनल आर्ट स्टडी करने का था। ये सपना उसने और दीपक ने साथ देखा था जो अब उसे अकेले ही पूरा करना था लेकिन इस सपने की क़ीमत और लागत सुभद्रा की माली हैसियत से बड़े थे।
लगभग पाँच महीने बाद सुभद्रा अपनी मासी के बुलाने पर गोवा पहुँची। उसकी मासी गिरीश बाबू की सेक्रेटेरी थीं और रिटार्यमेंट की कगार पर थीं। मासी सुभद्रा को अपने साथ लेकर इस आस में गिरीश बाबू के घर पहुँचीं कि उनकी जगह गिरीश बाबू सुभद्रा को रख लें लेकिन सुभद्रा को इस काम में लेशमात्र भी दिलचस्पी ना थी।
सुभद्रा गिरीश बाबू के ऑफ़िस से निकली ही थी जब किसी नवजात बच्ची के रोने की आवाज़ ने उसे बुरी तरह विचलित कर दिया।
पैलेस कॉरिडोर में तीन-चार आया उस दो महीने की बच्ची को चुप कराने और फ़ॉर्म्युला मिल्क पिलाने की भरसक कोशिश कर रही थीं और बच्ची ज़ार-ज़ार हो कर बिलख रही थी। सुभद्रा से यह देखा ना गया। उसने आगे बढ़ कर आया से बच्ची ले ली। बच्ची ने सुभद्रा की गोद में जाते ही रोना बंद कर दिया।
जब कानों को रुदन की आदत पड़ जाए तो अचानक मिली खामोशी अधिक भयभीत करती है। बच्ची का रोना बंद होने से घबराए गिरीश बाबू जब भागते हुए ऑफ़िस से बाहर निकले तब सुभद्रा अपनी गोद में बच्ची को दूध पिला रही थी।
गिरीश बाबू ने उसी वक्त सुभद्रा को इरा के लिए नैनी और केयरटेकर की पोस्ट पर मुँह माँगी सैलरी पर हायर कर लिया। उस काम के लिए सुभद्रा को जितने पैसे मिल रहे थे कि अगले छे-आठ महीने में वो इतने पैसे इकट्ठा कर लेती जिससे पूरी दुनिया घूम सके। सुभद्रा ने फ़ैसला कर लिया कि वो पैसे जमा होने तक वहाँ काम करेगी, उसके बाद हमेशा के लिए देश छोड़ देगी।
देखते ही देखते छे महीने बीत गए।
इरा अब आठ महीने की हो चुकी थी। इन छे महीनों में कोई दिन ऐसा ना गुजरा जब दीपक की यादों ने उसे ना घेरा हो लेकिन इन यादों में अब दर्द नहीं था, ये सिर्फ़ खूबसूरत यादें थीं उन लम्हों की जो सुभद्रा और दीपक ने साथ गुज़ारे थे, इनमें प्रेम था, समर्पण और सुकून था।
2 जनवरी फिर से आ चुकी थी।
दीपक की यादें उस तारीख़ को सबसे अधिक थीं।
सुभद्रा अपने फ़ोन पर दीपक और अपनी फ़ोटोग्राफ़्स स्क्रोल कर रही थी जब उसे व्हाट्सऐप पर अननोन नम्बर से एक वीडियो आया। रविदास घाट पर गंगा में एक दिया टिमटिमाते हुए लहरों पर बह रहा था। सुभद्रा ने टाइम देखा, शाम के 5:55 हो रहे थे।
उसे एकाएक निमित्त याद आ गया।
वो अब तक निमित्त और एक साल पहले घाट पर हुई घटनाओं को भूल चुकी थी। उसकी नज़रें वीडियो पर टिकी हुई थीं जब आठ महीने की इरा ने सुभद्रा को देख कर अपने पहले लफ़्ज़ कहे,
“म..म्म…मा”
“महादेव ने तुमसे जो लिया है वो उससे अधिक तुम्हें लौटा देंगे…प्रेम तुम्हारे जीवन में अगले छे महीने में मातृत्व के रूप में वापस आएगा…मे लव फ़ाइंड यू इन वेज़ दैट मेंड योर हार्ट”, निमित्त की आवाज़ जैसे उसके कानों में गूंजी।
तब से हर साल 2 जनवरी को शाम 5:55 पर उसके पास गंगा की लहरों पर एक दिया छोड़े जाने का वीडियो आ जाता।
इरा बड़ी होती चली गई, उसके बड़े होने के साथ ही सुभद्रा का इरा से प्रेम इतना बढ़ता चला गया कि उसे छोड़ कर चले जाने की इच्छा ही चली गई। सुभद्रा इरा और गोवा की हो कर रह गई।
इस दौरान वो अक्सर निमित्त को खबरों में देखती, यूँ ही लोगों की अंधेरे में भटकती ज़िंदगी को रास्ता दिखाते, नाउम्मीदी से भरे लोगों में आस जगाते और ऐसा करते हुए दोस्त से अधिक अपने लिए दुनिया में दुश्मन बनाते।
सुभद्रा ने कभी निमित्त से कॉंटैक्ट करने की कोशिश ना की, ना ही प्रत्येक 2 जनवरी को भेजे जाने वाले वीडियो के अलावा निमित्त ने अपनी ओर से सुभद्रा से कॉंटैक्ट करने की कोशिश की। कुछ साल बाद इरा के साथ कलंगूटे बीच पर खेलते हुए सुभद्रा का फ़ोन सागर की लहरों में बह गया। उस फ़ोन के साथ ही निमित्त से उसका जो 2 जनवरी का तार जुड़ा था वो भी टूट गया। फिर दो साल पहले निमित्त पर हुए पुलिस केस की खबरें मीडिया में आई और उसके बाद निमित्त जैसे सोशल मीडिया से कहीं ग़ायब हो गया।
पर अब तक सुभद्रा को यक़ीन हो चुका था कि चाहे कुछ भी हो जाए, निमित्त अपना 2 जनवरी का वादा ज़रूर निभाता होगा।
हर-हर महादेव शम्भु, काशी विश्वनाथ गंगे,
हर-हर महादेव शम्भु, काशी विश्वनाथ गंगे…
अंधेरा घिर चुका था, अस्सी घाट से आती शाम की आरती की आवाज़ से अतीत में डूबा सुभद्रा का दिमाग़ यथार्थ में आया।
निमित्त वहाँ नहीं था।
इतने साल बीत चुके थे, आख़िर कोई कब तक निभा सकता है किसी अंजान अजनबी से किए वादे को? गलती सुभद्रा की ही थी, उसने ज़रूरत से ज़्यादा ही आस लगा ली थी शायद…लेकिन अब वो क्या करेगी? निमित्त तो मिला नहीं, वापस जा कर गिरीश बाबू को कैसे फ़ेस करेगी? उसकी इरा का क्या होगा?
सुभद्रा का दिल डूब गया।
ठीक तेरह साल पहले की तरह आज भी वो इस घाट से ख़ाली हाथ लौटने को पलट रही थी जब दूर गंगा की लहरों के साथ बहा जाता एक टिमटिमाता दीपक उसे दिखाई पड़ा जिसपर उठती-गिरती लहरों के कारण पहले उसका ध्यान नहीं गया था…और आरती के घंटों, ढोल, शंखनाद और नगाड़ों के बीच सुनाई दी गंगा से निकलती वो आवाज़ जिसे उसने सुना बहुत कम था लेकिन पहचानती बहुत ज़्यादा थी।
“शिव शिव शिव शम्भु, महादेव शम्भु,
महादेव शम्भु, महादेव शम्भु…शम्भु..
शम्भु..सदा-शिवम…शम्भु…सदा-शिवम्,”
नदी से प्रेत की तरह बाहर निकला वो शख़्स।
कंधों तक लम्बे लहरदार बाल, लिनेन वाइट शर्ट, टर्क्वॉज़ डेनिम, लेदर होल्स्टर और बूट्स के अलावा रुद्राक्ष व अन्य मालाओं से लदा हुआ वो वैसे ही पानी में उतर गया था। अंधेरे में, इतने सालों बाद भी सुभद्रा ने उस अजीब से शख़्स को साफ़ पहचाना। वो निमित्त के अलावा दूसरा कोई और हो ही नहीं सकता था। नदी किनारे एक ऊँचे क़द का काला जर्मन शेफ़र्ड बैठा था जो अंधेरे में नज़र नहीं आ रहा था, वो निमित्त के नदी से बाहर आते ही दुम हिलाते हुए उठ खड़ा हुआ।
“वुफ़्फ़-वुफ़्फ़”
“आजा बेटा अल्फ़ा, तू भी डुबकी लगा ले, मम्मी बुला रही हैं,” निमित्त ने पास आते जर्मन शेफ़र्ड पर अपने बालों का पानी झाड़ा। अल्फ़ा ठंडे पानी की बौछार से बचने के लिए कुलाँचे भरने लगा। दोनों उसी तरह खेलते हुए सीढ़ियाँ चढ़ कर सुभद्रा के पास पहुँचे।
“न…निमित्त…कहाँ थे आप?”
“मैं तो यहीं था, जब तुम फ़्लैशबैक में खोई हुई थी। सोचा तुम्हें कुछ देर यादों के साथ पर्सनल स्पेस दे कर मम्मी से मिल लूँ,”
“मम्मी?” सुभद्रा ने उलझन में सवाल किया।
निमित्त ने गंगा की तरफ़ इशारा करते हुए यूँ कहा जैसे बहुत ऑब्वीयस सी बात कह रहा हो, “मम्मी…मॉम, माँ, माते, बेबे, अम्मा, अम्मी, माई, आई…किसी भी नाम से पुकार लो,”
सुभद्रा ने उसे सिर से पैर तक यूँ देखा जैसे कोई अजूबा देख रही हो।
“आपको ठंड नहीं लगती? निमोनिया ना होगा?”
“माँ के आग़ोश में कभी ठंड लग सकती है भला? ऐसे भी जवानी जाने का नाम नहीं ले रही मेरी,” निमित्त अपने माथे पर बिखरे बालों को उँगलियों से पीछे संवारते हुए बोला।
सुभद्रा देख रही थी उस अजीब से इंसान को, समझने की कोशिश कर रही थी कि अपनी बात किस तरह रखे उसके सामने। निमित्त ने मुस्कुराते हुए उसकी आँखों में देखा।
“कह दो। मैं जानता हूँ कि तुम सिर्फ़ ये जानने यहाँ नहीं आई कि मैं हर 2 जनवरी को यहाँ आता हूँ या नहीं,”
“आप तो सब जानते हैं, मुझे जाने बिना भी तेरह साल पहले मुझे देख के बता दिया था कि मेरे जीवन में मातृत्व के रूप में प्रेम लौटेगा…तो क्या अब यह नहीं जान पा रहे कि उसी मातृत्व की रक्षा के लिए मैं यहाँ आपको ढूँढते हुए आई हूँ?”
“मैं कैसे जान सकता हूँ? मैं पूरा भगवान नहीं,” निमित्त शांत भाव से बोला।
“पूरे भगवान नहीं? मतलब थोड़े से हैं?” सुभद्रा ने व्यंगात्मक लहजे में सवाल किया।
“हर कोई होता है…’थोड़ा सा भगवान’, बस लोग भूल जाते हैं कि ईश्वर ने इंसान को अपनी प्रतिकृति में बनाया है और पूरे ब्रह्मांड को सूक्ष्म रूप में मानव शरीर में समाहित किया है। भगवान और शैतान, सही और ग़लत, उजाला और अंधेरा, दोनों इंसान के अंदर हैं। अब इंसान ऊर्जा के इन विपरीत स्वरूपों में संतुलन बनाता है या किसी एक स्वरूप की ओर पलड़ा झुकने देता है, यही निर्धारित करता है इंसान की शख़्सियत,” निमित्त के भाव पूर्ववत शांत थे, उनमें कोई परिवर्तन ना आया।
“आपने बनाया है…?…संतुलन…?”
“शायद नहीं, इसीलिए कहता हूँ कि थोड़ा सा भगवान हूँ, बाक़ी का….” निमित्त ने जान के अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
“मुझे आपकी हेल्प चाहिए, निमित्त,” सुभद्रा सीधे मुद्दे पर आते हुए बोली।
अगले दो मिनट में सुभद्रा सारी सिचूएशन निमित्त को समझाती चली गई। निमित्त भावहीन बुत सा खड़ा सुनता रहा। अल्फ़ा उसके पैरों के पास इत्मिनान से बैठा हुआ था।
“गिरीश बाबू? वो पॉलिटीशियन?” सुभद्रा की बात ख़त्म होने पर निमित्त ने सवाल किया।
सुभद्रा का सिर सहमति में हिला।
“बड़ा और पावरफ़ुल आदमी है, उसे मेरी मदद क्यों चाहिए? बोलो कोई हाई-प्रोफ़ाइल सिलेब्रिटी साइकिक या शामन हायर कर ले,” निमित्त भावहीन स्वर में बोला।
“ये कोई मार्केटिंग गिमिक या पब्लिसिटी स्टंट नहीं जिसके लिए फ़ेक सिलेब्रिटी साइकिक हायर किए जाएँ, ये इरा की लाइफ़ का सवाल है निमित्त…यू हैव टू हेल्प मी,”
“पॉलिटीशियन, पुलिस वाले, और वकील, इन्हें मैं सबसे निम्न कोटि पर रखता हूँ। आत्मा विहीन, ख़ाक ज़मीर और इंसानियत से कोरे। ना ऐसे लोगों से वास्ता रखना मुझे पसंद है और ना ही ऐसे लोगों का मेरे रास्ते में आना,” कहते हुए निमित्त आगे बढ़ने को हुआ।
“गिरीश बाबू ऐसे नहीं हैं। बाक़ियों से अलग हैं। मोल्लेम के लोग उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं,”
“गुड फ़ॉर हिम, गुड फ़ॉर ‘मोल्लेम के लोग’, नॉट माई सूप”
“इट्स नॉट अबाउट गिरीश बाबू! इट्स अबाउट इरा….तेरह साल की बच्ची है वो। इरा डिज़र्व नहीं करती…जो कुछ भी उसके साथ हो रहा है,”
“वेल्कम टू रीऐलिटी, सुभद्रा। अक्सर इनॉसेंट लोगों के साथ वही होता है जो वो डिज़र्व नहीं करते…डील विद इट। मैं तुम्हारी इसमें कोई हेल्प नहीं कर सकता। चल अल्फ़ा,” निमित्त जैसे अपना फ़ाइनल डिसिज़न सुनाते हुए बोला।
उसके कमांड पर पैरों के पास सोया अल्फ़ा फ़ौरन उठ खड़ा हुआ। सुभद्रा को निराशा की मँझधार में उतराता छोड़ कर निमित्त आगे बढ़ गया।
“मैंने गलती की यहाँ आ के। शायद दुनिया ठीक ही कहती है तुम्हारे बारे में। तुम एक सिरफिरे और ख़ुदगर्ज़ इंसान हो जो अपने अलावा किसी का भला नहीं सोच सकता,” वितृष्णा से भरी सुभद्रा ने पीछे से उलाहना देते हुए कहा।
निमित्त के कदम ठिठके, जब उसने चेहरा पीछे सुभद्रा की ओर घुमाया तो उसकी आँखों में चमक और होंठों पर विषादपूर्ण मुस्कान थी।
“कभी घमंड नहीं किया,” निमित्त की आवाज़ पहले की भाँति ही शांत और गहरी थी।
“कभी लोगों की भलाई के लिए जीने वाला क्या इतना गिर गया है कि अब खुद की ईगो से आगे कुछ देख नहीं सकता? ईश्वर बनने की लालसा और अपने गुरु से बड़ा बनने की लालच ने तुम्हारी आत्मा भ्रष्ट कर दी है,”
“हाँ, ये सही है। अपनी लाइफ़ का येइच तो ड्रीम है कि उस भूली-बिसरी ढाई ईंट की उजड़ी रियासत के पोपले राजा जी की लेनी है…जगह, है ना ‘हौले’?” निमित्त के दिमाग़ में स्कैली की सार्कैस्टिक आवाज़ गूंजी जो सिर्फ़ उसे और अल्फ़ा को सुनाई दी।
स्कैली की बात पर कंट्रोल करने की लाख कोशिश करते भी निमित्त की हंसी छूट गई।
“मुँह बंद कर स्कैली, सीरीयस सिचूएशन में कॉमेडी मत किया कर,” निमित्त अपने बग़ल में चेहरा घुमा कर यूँ बोला जैसे किसी से दबी आवाज़ में बात कर रहा हो।
निमित्त को यूँ हवा में खुद से बड़बड़ाता देख सुभद्रा संशय में थी, “किस से बात कर रहे हो?”
“स्कैली से,”
“स्कैली?”
“नेवर माइंड। सुनो…तुम ये जो कुछ भी कह रही हो बिल्कुल सच है। मैं ऐन ऐसा ही हूँ। हैपी? नाउ वॉट? निमित्त कालांत्री हेट ग्रूप जॉइन कर लो, वहाँ जितनी रुदालियाँ हैं उनके साथ सुर मिला के मेरे नाम पर अपने कपड़े फाड़ो, अपनी छाती पीटो मेरी बला से। अब तो मैंने पुष्टि कर दी कि मैं कितना वाहियात इंसान हूँ, तो फिर इतने वाहियात इंसान की मदद क्यों चाहिए? ऐसे इंसान से उतनी दूरी बनाओ जितनी शैतान से,” निमित्त शांत भाव से मुस्कुराते हुए बोला।
सुभद्रा के चेहरे के भाव बदले। उसके कातर नेत्र निमित्त की आँखों में झांक रहे थे। निमित्त जानता था कि सुभद्रा की बेबसी और लाचारी फ़्रस्ट्रेशन बन कर निकल रहे थे। निमित्त ने कोई प्रतिक्रिया ना दी।
“आ…आई एम सॉरी निमित्त। मैं अपने आपे में नहीं हूँ, इसीलिए अनर्गल बक रही हूँ,”
“नो नीड फ़ॉर अपॉलॉजीज़, मैं तो स्वीकार कर रहा हूँ कि तुमने जो कुछ भी कहा वो बिल्कुल सही है,” निमित्त कंधे उचकाते हुए बोला।
“अगर ये सच होता तो तुम यहाँ दीपक के नाम का दिया नहीं जला रहे होते निमित्त। मैं जानती हूँ तुम वो नहीं जो दुनिया समझती है, क्योंकि दुनिया वही समझती है जो तुम चाहते हो कि वो तुम्हारे बारे में समझे,” सुभद्रा उसके पास आते हुए बोली।
“इन्स्टिगेशन और रिवर्स सायकॉलजी, दोनों ही मुझ पर वर्क नहीं करते सुभद्रा। मेरे फ़ैसले और फ़ितरत, कोई बदल नहीं सकता,” निमित्त अपना चेहरा सुभद्रा के क़रीब लाते हुए आहिस्ता से बोला।
सुभद्रा ने कोई जवाब ना दिया। निमित्त तीसरी बार वहाँ से जाने के लिए पलटा।
“आ गया गिरीश बाबू। कैसा लगा अपनी बेटी का लहू सूंघ के?…इसके पास आने की कोशिश की तो इसके जिस्म की हड्डियां मांस फाड़ कर बाहर निकलेंगी,…तेरी बेटी रजस्वला हो गई है गिरीश बाबू। तेरह साल इंतज़ार किया है मैंने इस पल का। तेरे वंश का विनाश अब हो कर रहेगा।”
पीछे से आती आवाज़ ने निमित्त के बढ़े कदमों को बांध लिया।
सुभद्रा अपने मोबाइल फ़ोन पर दो दिन पहले इरा के साथ हुए इन्सिडेंट की सीसीटीवी फ़ुटेज प्ले कर रहे थी।
निमित्त ने मोबाइल उसके हाथ से ले लिया। उसकी नज़रें इरा से हट नहीं पा रही थीं।
“इरा को अब तक होश नहीं आया है निमित्त। गिरीश बाबू सिर्फ़ मेरे कहे पर भरोसा कर के अपनी बेटी को बचाने के लिए तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। हम नहीं जानते कि इरा होश में आएगी भी या नहीं और अगर आएगी तो वो शैतान उसका क्या हाल करेगा…अब तुम जा सकते हो, इस बार मैं तुम्हें नहीं रोकूँगी,” सुभद्रा निमित्त के हाथ से मोबाइल लेते हुए शुष्क भाव से बोली।
निमित्त की उँगलियाँ अपने गले में बंधे माँ दुर्गा के लॉकेट पर फिरने लगीं।
“ये कैसी दुविधा में डाल दिया, मम्मी? दिल कहता है इसकी मदद करने को, दिमाग़ मना कर रहा है,” निमित्त लॉकेट पकड़ के बुदबुदाया।
“दुविधा में मम्मी नहीं, ये निकम्मी डाल रही है। सुन ‘हौले’, तूने जब-जब दिल की सुनी है, उड़ता हुआ सतरंगी तीर तेरे दिल के साथ-साथ कहीं और भी पैवस्त हुआ है। दिमाग की सुन और दफ़ा कर इसकी दुःख भरी दास्तान,” स्कैली की आवाज़ फिर निमित्त के दिमाग़ में गूंजी।
“एक मिनट,” निमित्त शांत भाव से सोचते हुए बोला, “अगर मम्मी चाहती हैं कि मैं तुम्हारी हेल्प करूँ तो अगले एक मिनट में कोई ना कोई इशारा देंगी,”
“इशारा?…कैसा इशारा?”सुभद्रा ने सवाल किया।
“मुझे क्या पता,” निमित्त कंधे उचकाते हुए बोला, “कोई भी इशारा…कुछ भी, मैं समझ जाऊँगा,”
“अ…और अगर कोई इशारा नहीं मिला तो?” सुभद्रा ने सशंकित भाव से पूछा।
“तो मुझे तुम्हारे साथ ना जाने का अफ़सोस नहीं होगा,” निमित्त ने शांत, भावहीन स्वर जवाब दिया।
सुभद्रा की नज़रें अपनी स्मार्ट वॉच पर जा टिकीं। निमित्त भी अपने दाहिने हाथ पर बंधी ‘ज़ोडीऐक कम्पस वॉच’ की सेकंड की सुई घूर रहा था।
“शाबाश मेरे ‘हौले’, क्या मस्ट आइडिया भिड़ाया है तूने। अब मम्मी खुद तो महाभारत सीरीयल के माफ़िक़ नदी से ह्यूमन फ़ॉर्म में निकल कर तुझे साइन देने से रहीं,” स्कैली की आवाज़ फिर से निमित्त और अल्फ़ा को सुनाई दी।
अल्फ़ा ने शिकायती भाव आँखों में लिए हुए निमित्त को घूरा, उसके गले से हल्की गुर्राहट निकली। निमित्त ने लापरवाही से कंधे उचकाए।
सुभद्रा के लिए वो एक मिनट उसकी लाइफ़ का सबसे लम्बा मिनट था। हर बदलता सेकंड जैसे उसके दिल पर चोट कर रहा था। घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़ रही थीं लेकिन उनके चारों ओर जैसे सब कुछ थम गया था। हवा चलनी बंद हो गई थी, गंगा की लहरें भी शांत थीं। एक लहर भी ऊपर-नीचे नहीं हो रही थी जिसे ‘इशारा’ मान लिया जाए। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने पूरी कायनात को किसी रिमोट कंट्रोल से ‘पॉज़’ बटन दबा कर फ़्रीज़ कर दिया हो। जैसे जनवरी की उस सर्द रात पूरी कायनात जम गई हो।
“कोई इशारा नहीं, कुछ भी नहीं…जवाब साफ़ है सुभद्रा। मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता,” निमित्त सर्द भाव से बोला। एक मिनट लगभग ख़त्म होने पर ही थे।
“बहुत बढ़िया, बला टली! चल अल्फ़ा, आज पहलवान की दुकान पर ‘मल्लइयो’ की ट्रीट मेरी तरफ़ से…पैसा ये ‘हौला’ देगा,” स्कैली की आवाज़ अल्फ़ा और निमित्त को सुनाई दी।
“भौं-भौंsss” अल्फ़ा यूँ भौंका जैसे अपना विरोध जता रहा हो। या फिर कारण कुछ और था?
निमित्त ठिठका और पीछे नदी की तरफ़ पलटा, जिस ओर देख कर अल्फ़ा भौंक रहा था।
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते
“वुफ़्फ़-वुफ़्फ़” अल्फ़ा के भौंकने में इस बार उसकी ख़ुशी और उत्साह साफ़ झलक रहे थे, वो अपने अगले पंजे ज़मीन पर पटकते हुए, अपनी दुम हिला रहा था।
निमित्त की नज़रें गंगा के किनारे पर आकर रुकते उस स्टीमर पर टिकी थीं। महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र की आवाज़ स्टीमर डेक पर लगे स्पीकर्स से आ रही थी। निमित्त मुस्कुराया।
“गई मल्लइयो” इस बार स्कैली की आवाज़ जैसे कलपते हुए बोली।
निमित्त के भावहीन चहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान आई, “अल्फ़ा कैबिन में ट्रैवल करेगा, कार्गो में नहीं,”
“डन!” सुभद्रा अल्फ़ा के फ़र में उँगलियाँ फिराते हुए बोली।
“चलो, मल्लइयो की ट्रीट मेरी तरफ़ से,” निमित्त सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बोला। अल्फ़ा और सुभद्रा उसके पीछे हो लिए।
ऊपर गली में सायकल पर एक बनारसी अपनी धुन और गाँजे की पिनक में गुनगुनाते हुए गुजरा, “…पहले अपने मन साफ़ करो, फिर औरों का इंसाफ़ करो। यार हमारी बात सुनो, ऐसा एक नादान चुनो…”
“…जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो,” निमित्त भी उसी तरन्नुम में गाना मुकम्मल करते हुए गुजरा।
13 साल पूर्व.
मोल्लेम गाँव, गोवा
“जूली चल ना…शाम होने वाली है, आई डाँटेगी,”
“तुम लोग जाओ, मैं थोड़ी देर में आ जाऊँगी,”
एक पत्थर पर चुपचाप बैठी तेरह वर्षीय जूली ने बिना उन बाक़ी बच्चों की तरफ़ देखे कहा जो उसे साथ घर चलने के लिए बुला रहे थे। जूली का मूड काफ़ी ख़राब था और फ़िलहाल वो किसी से भी बात नहीं करना चाहती थी।
“तू नहीं चलेगी तो आई मुझे डाँटेगी कि मैं तुझे अकेला छोड़ के क्यों आया,” जूली का छोटे भाई मैक्स ज़िद करते हुए बोला।
“मैंने बोला ना मैं थोड़ी देर में आ जाऊँगी…चल भाग यहाँ से वरना पत्थर से सिर फोड़ दूँगी तेरा,” जूली बुरी तरह झल्ला कर चीखी। उसने पास ही पड़ा पत्थर फेंकने के लिए उठा लिया।
“नहीं आना मत आ…गो टू हेल,” मैक्स ने जूली को मुँह चिढ़ाते हुए कहा और बाक़ी बच्चों के साथ वहाँ से चला गया।
जूली जानती थी कि उसकी आई सही थी। मोल्लेम गाँव से लगे वेस्टर्न घाट्स के जंगल और आस-पास का जंगली इलाक़ा दिन ढलने के बाद सुरक्षित नहीं था…इंसानों की वजह से नहीं! मोल्लेम छोटा सा गाँव है जहां आपराधिक घटना के नाम पर किसी की सायकल भी चोरी नहीं होती। हर कोई एक-दूसरे को जानता था, और बाहर से घूमने आने वाले लोग भी शाम ढलने के बाद उधर नहीं आते थे। ख़तरा साँप और बिच्छुओं से था जो दिन ढलते ही बाहर निकलते हैं। हालाँकि उनमें सभी ज़हरीले नहीं थे लेकिन वहाँ करैत या कोबरा का निकलना आम बात थी।
वैसे तो जूली भी समय से वापस घर चली जाती थी लेकिन उस दिन मैक्स और बाक़ियों के साथ वापस ना जाने की वजह थी। जब वो निश्चिंत हो गई कि सब जा चुके हैं तो उसने पीछे मुड़ कर एक-बार फिर अपनी फ़्रॉक देखी। सफ़ेद फ़्रॉक पर नीचे की तरफ़ ख़ून के गहरे धब्बे लगे थे जो छुपाए ना छुपते। जूली अंधेरा होने का इंतज़ार कर रही थी ताकि सीधा भाग के आई के पास जाए और उसे कोई ना देखे। उसे पेट के निचले हिस्से में दर्द और चुभन महसूस हो रही थी, और अपनी इस अवस्था की वजह से उसे बुरी तरह झुँझलाहट और ग़ुस्सा आ रहा था।
जूली का घर गाँव के बाहरी हिस्से में था। वो अंधेरे और झाड़ियों की ओट में छुपते हुए जाती तो उसे कोई ना देखता। अब अंधेरा इतना घिर चुका था कि वो आगे बढ़ सकती थी।
“अरे जूली! अंधेरा घिर गया है, यहाँ जंगल में क्या कर रही है?”
जूली मुश्किल से कुछ कदम ही बढ़ पाई थी कि किसी ने पीछे से आवाज़ दी। जूली उस आवाज़ को पहचानती थी। वो ठिठक के रुक गई।
“क…कुछ नहीं…घर जा रही थी,” जूली ने सकपका कर कहा।
एक साया झाड़ियों की ओर से उसकी तरफ़ बढ़ा। साये के हाथ में बड़ी बैटरी वाली टॉर्च थी जिसकी लाइट जूली पर पड़ रही थी।
“अंधेरे में साँप-बिच्छू डस लेंगे, वैसे भी बरसात का समय है। मेरे साथ चल। टॉर्च की रौशनी से साँप और जंगली जानवर पास नहीं आएँगे,”
जूली ने कोई जवाब ना दिया, वो सिर झुकाए, दोनों हाथ कमर के पीछे बांधे खड़ी रही।
“चल ना, ऐसे क्यों खड़ी है?”
फिर कोई जवाब नहीं।
“ये पीछे क्या छुपा रही हो?” साया दो कदम आगे बढ़ा।
साया उसके पीछे देखने की कोशिश कर रहा था, जब कि जूली अपनी पीठ उसकी तरफ़ नहीं कर रही थी। साया ठिठका, जैसे उसे जूली के ऐसा करने का कारण समझ आ गया हो।
“अच्छा! तो ये बात है,”
जूली ने नज़रें झुका लीं।
“अरे इट्स ओके। ये बिल्कुल नॉर्मल है। दिस शोज़ हमारी जूली अब बड़ी हो गई है। कम ऑन, लेट्स गो। जल्दी से तुम्हें आई के पास ले कर चलते हैं,” साये की आवाज़ में आत्मीयता और अपनत्व थे।
जूली उसे अच्छी तरह जानती थी। भरोसा करती थी।
जूली ने स्वीकृति में सिर हिलाया और चुपचाप उस साये के आगे-आगे चलने लगी। टॉर्च लाइट उसके आगे पगडंडी रास्ते पर पड़ रही थी।
कुछ कदम आगे बढ़ने पर जूली की झिझक कम हो गई। अब वो इत्मिनान से तेज़ कदम बढ़ा रही थी। वो जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहती थी। आई के पास।
अचानक। जूली के पीछे से आती टॉर्च लाइट यूँ नाची जैसे भूकम्प आया हो।
“तड़ाक”
जूली के सिर पर पीछे से टॉर्च की हार्ड मेटल बॉडी टकराई। करेंट सी तेज़ लहर जैसे उसके शरीर में उठी। सारे शरीर का खून जैसे उसके सिर में इकट्ठा हो रहा था जो कि चोट वाली जगह से सोते के समान फूट निकला। जूली ने चीखते हुए दोनो हाथों से अपना सिर पकड़ लिया। उसका शरीर कमान की तरह पीछे की तरफ़ मुड़ा। दो मज़बूत हाथों ने शिकंजे की तरह उसकी पतली और मुलायम गर्दन जकड़ ली।
जूली का शरीर बुरी तरह छटपटा रहा था।
उसका गला घोंटते हाथ काँपने लगे। जैसे अपनी पूरी ताक़त ना लगा पा रहे हों। जूली ने एकाएक अपना शरीर ढीला छोड़ दिया जिससे उसका पूरा भार उन काँपते हाथों पर आ गया। वो हाथ उस भार को सम्भाल ना पाए। जूली की गर्दन उन हाथों की गिरफ़्त से छूट गई।
वो जितनी तेज़ भाग सकती थी भागी।
“आईsss”
जूली ने चीखने की कोशिश की। चोट के दर्द और गला रुँधने के कारण उसकी चीख धीमी और फँसी हुई निकली।
“र..रुक जाओ। चिल्लाओ मत। कोई सुन लेगा…”
उसका पीछा कर रहे साये की आवाज़ में घबराहट झलक रही थी।
सहमी हुई जूली चाह कर भी बहुत तेज़ नहीं भाग पा रही थी। उसके पीछे आते साये के हाथ-पैर भी जैसे घबराहट से फूले हुए थे। जूली का पीछा करते हुए उसे यूँ लग रहा था कि उसके पैरों में भागने की शक्ति नहीं है।
जूली भागते हुए उस मोड़ के क़रीब आ पहुँची थी जो जंगल के बाहर, उसके घर को जाता था। दूर से किसी गाड़ी की हेडलाइट की हल्की रौशनी आती मालूम दी। जूली और सड़क के बीच मुश्किल से दो सौ मीटर का फ़ासला था। वो जान फेंक कर भागी।
“बचाओsss”
अब बस एक झाड़ियों का झुंड पार करना था और वो अपने हमलावर के चंगुल से निकल जाती। हेडलाइट किसी बड़ी कार की थी। उस इलाक़े में ऐसी कार वो ऐसे समय दिखना आम बात नहीं थी।
जूली अब कँटीली झाड़ियों को पार कर रही थी जिनमें उलझ कर उसकी फ़्रॉक जगह-जगह से फटने लगी। काँटों से खुद लहूलुहान होती जूली को इसकी कोई परवाह नहीं थी। उसे बस आई के पास पहुँचना था। वो जानती थी कि अगर वो भाग के खुद को आई के आँचल में छुपा लेगी तो बच जाएगी।
बड़ी गाड़ी अब बिल्कुल पास आ गई थी।
जूली ने पूरा ज़ोर लगा कर खुद को आगे धकेला।
उसी समय एक उड़ता हुआ पत्थर जूली के सिर के पिछले हिस्से से टकराया। जूली मुँह के बल झाड़ियों में जा गिरी। उसका नन्हा हाथ झाड़ियों के बाहर सड़क पर था। शायद गाड़ी वाले को हेडलाइट की रौशनी में वो नज़र भी आ जाता लेकिन उससे पहले ही हमलावर ने बेरहमी से उसे झाड़ियों के अंदर खींच लिया।
कँटीली झाड़ियों में उलझ कर जूली के बालों का बड़ा गुच्छा स्कैल्प से उखड़ गया। काई और मिट्टी पर बेरहमी से घसीटे जाने से खून की लकीर बन रही थी।
“जाने दोss…आई के पास जाना है…”
जूली के गले से फँसे हुए वो आख़री अल्फ़ाज़ निकले। उसके बाद उसके चारों ओर अंधेरा छा गया।
हमेशा के लिए।
वर्तमान समय.
मोल्लेम गाँव, गोवा
गिरीश बाबू अपने सामने बैठे शख़्स को अपलक घूर रहे थे। वो यूँ लगता था जैसे कोई राजा सन्यासी का वेश धर के बैठा हो। उसके बैठने के अन्दाज़, चेहरे के हाव-भाव, बॉडी-लैंग्वेज से शान झलकती थी…अकड़ नहीं। गिरीश बाबू ने ध्यान दिया उस शख़्स की पलकें नहीं झपकती थीं।
अपने साठ साल के जीवन में गिरीश बाबू की नज़रों के सामने ऐसे लोग इक्का-दुक्का ही आए थे जिनकी आँखों में गिरीश बाबू का रौब, उनका आदर या फिर भय ना हो। इस शख़्स की आँखें ऐन ऐसी ही थीं। वो ना गिरीश बाबू के रुतबे-रुआब से चकाचौंध थी और ना ही उनके राजनीतिक रसूख़ के भय से झुकी हुई।
“हमने तुम्हारी केस-फ़ाइल गौर से पढ़ी है कालांत्री। तुम पर लगे आरोप अगर सच हैं तो तुम्हारे जैसे इंसान को या तो जेल में होना चाहिए या फिर मेंटल असायलम में,”
निमित्त के भाव विहीन चेहरे में कोई परिवर्तन नहीं आया, उसकी आँखें अब भी जैसे गिरीश बाबू की आत्मा में झांक रही थीं और उन्हें बेहद असहज कर रही थीं।
“पहली बात, मुझे ऐसे लोग नहीं पसंद जो दूसरों को उनके उपनाम से पुकारते हैं। रूढ़िवादी, असभ्य और दक़ियानूसी होने की पहचान है ये। दूसरी और अहम बात, आपने यहाँ मुझे मेरे मुक़दमे पर सुनवाई के लिए नहीं बुलाया है। मैं यहाँ आपकी बेटी इरा के लिए आया हूँ, आपके लिए नहीं,”
निमित्त सर्द भाव से बोला। उसकी नज़रें अब भी अपलक गिरीश बाबू को घूर रही थीं।
गिरीश बाबू का चेहरा क्रोध से तमतमा कर लाल और विकृत हो गया। कमरे में उन दोनों के अलावा मौजूद चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम और डॉक्टर थापा अपनी साँस रोके बैठे थे जैसे किसी भी पल तीसरा विश्व युद्ध शुरू होने का अंदेशा हो।
“इरा की सुरक्षा के लिए ही तुमसे ये सवाल करना ज़रूरी है कालांत्री,” वस्तुतः गिरीश बाबू ने निमित्त की ‘पहली बात’ को बिना कोई तवज्जो दिए, अपने पूर्ववत अन्दाज़ में कहा।
“मैं ऐसे आदमी को अपनी इरा के आस-पास भी फटकने नहीं दूँगा जो उसके लिए ग़लत इरादा रखता हो। तुम इरा को ट्रीट करो उससे पहले मुझे सबूत चाहिए कि तुम ढोंगी-पाखंडी नहीं जैसा दुनिया कहती है। मुझे जानना है कि तुम में वाक़ई साइकिक पावर्स हैं भी या नहीं,”
“और मान लीजिए कि मैं ऐन वैसा ही ढोंगी और पाखंडी हूँ जैसा दुनिया कहती है, तो?” निमित्त के होंठों पर एक सर्द मुस्कान उभरी।
“तो दुनिया की नज़रों से तो निमित्त कालांत्री ग़ायब ही है, मैं तुम्हें हमेशा के लिए ग़ायब करवा दूँगा,” गिरीश बाबू की आवाज़ भी निमित्त की मुस्कान जितनी सर्द हुई।
“अपने रुतबे के झूठे ग़ुरूर में चूर नेता की आड़ में एक भयभीत और लाचार पिता का अंतर्नाद है ये,” निमित्त पर गिरीश बाबू की धमकी का कोई प्रभाव ना पड़ा।
“निहायत ही बदतमीज़ और बेहूदा इंसान हो,” गिरीश बाबू दांत भींचते हुए बोले।
“कभी घमंड नहीं किया,” निमित्त के चेहरे पर इस बार बच्चों सी निश्चल और बेपरवाह मुस्कान थी।
गिरीश बाबू ने डॉक्टर थापा और कदम की तरफ़ देखा, जैसे तय नहीं कर पा रहे हों कि निमित्त के विषय में उन्हें क्या निर्णय लेना चाहिए। थापा और कदम भी कभी एक-दूसरे का तो कभी गिरीश बाबू का मुँह ताक रहे थे।
निमित्त का हाथ अपने बेल्ट में लगे होल्स्टर पर गया, कदम एकाएक चौकन्ना हुआ।
“तलाशी तो पहले ही ले चुके हो, अब सतर्क होने में ‘अल्फ़ा’ को क्यों कॉम्प्लेक्स दे रहे हो?” निमित्त होल्स्टर से टैरो कार्ड डेक निकालते हुए इत्मिनान से बोला। कदम जो कि निमित्त के पीछे था, इस बात पर भौंचक्का था कि बिना पीछे पलटे निमित्त को कदम के मूवमेंट्स और एक्स्प्रेशन का पता कैसे लगा। निमित्त की कुर्सी के बग़ल में बैठे अल्फ़ा की दुम अपना नाम सुन कर ख़ुशी से यूँ हल्के-हल्के हिली जैसे फ़र्श पर झाड़ू लगा रही हो।
निमित्त टैरो कार्ड्ज़ शफ़ल कर रहा था। उसके दोनों हाथों के बीच सभी 78 पत्ते यूँ नाच रहे थे जैसे हर एक पत्ता जीवित हो। उसके हाथों में थिरकते पत्तों का नृत्य देख कर मँझे से मंझा पत्तेबाज़ भी दांतों तले उँगलियाँ दबा लेता।
निमित्त का दाहिना हाथ तेज़ आवाज़ के साथ टेबल पर आया और आर्क बनाते हुए घूमा। गिरीश बाबू के सामने टेबल पर अर्ध-चंद्राकार में 78 पत्ते ‘फ़ेस-डाउन’ पोज़िशन में बिछ गए।
निमित्त अपनी दोनों कुहनियाँ कुर्सी के हत्थों पर टिकाए हुए बैठा था, उसकी उँगलियों के टिप एक दूसरे से लगे हुए, उसके चहरे के सामने ‘हाकिनी मुद्रा’ बना रहे थे।
“इनमें से कोई भी एक कार्ड चुनिए। सिर्फ़ एक। कार्ड्ज़ फ़ेस-डाउन पोज़िशन में रखे हैं। अपना कार्ड इस तरह चुनिएगा कि मुझे इल्म ना हो कि आपने कौन सा कार्ड चुना है,” निमित्त गिरीश बाबू से बोला।
गिरीश बाबू ने अपनी सिंहासन जैसी बड़ी एग्ज़ेक्यूटिव चेयर में बेचैनी से पहलू बदला। कुछ पल सोचने के बाद उन्होंने अपनी उँगलियों की ओट से छुपाते हुए एक कार्ड उठा लिया।
“आपका व्यक्तित्व एक शासक का है। ‘मोहब्बतें’ के अमिताभ बच्चन की तरह आपके लिए भी परम्परा, प्रतिष्ठा और अनुशासन सर्वोपरि हैं इसीलिए आपके आस-पास के लोग, अपने भी और पराए भी, आपको सूर्यवंशम की ‘ज़हर वाली खीर’ खिलाने की हसरत रखते हैं। आप रूढ़िवादी हैं, सख़्त हैं और लोगों को अपनी मर्ज़ी से चलाने के आदि हैं। आपने अपने लिए जो कार्ड चुना है वो इन सभी ‘गुणों’ को दर्शाता है। आपने अपने लिए ‘द एम्परर’ कार्ड चुना है,”
हाकिनी मुद्रा में बैठा निमित्त इस अन्दाज़ में बोला जैसे किसी टेप रिकॉर्डर पर प्री-रिकॉर्डेड टेप बज रहा हो।
गिरीश बाबू ने अपने हाथ में थामे कार्ड पर निगाह डाली, उनका मुँह खुला रह गया। उन्होंने कार्ड निमित्त, कदम और डॉक्टर थापा की तरफ़ सीधा किया। कार्ड ‘द एम्परर’ ही था।
निमित्त ने अपनी कुहनियाँ कुर्सी से उठा कर सामने टेबल पर टिका दीं, उसके हाथ अब भी हाकिनी मुद्रा बनाए हुए थे।
“आपकी अंतरात्मा पर बोझ है,”
“हर किसी के होता है,” गिरीश बाबू असहज भाव से बोले।
“ना। ये वैसा बोझ नहीं। ये बोझ है…किसी की जान लेने का…ना…एक से अधिक जानें लेने का,” निमित्त जैसे सीधे गिरीश बाबू की आत्मा में झांकते हुए बोला।
गिरीश बाबू इस बार कुछ ना बोले। सिर्फ़ उन्होंने अपनी कुर्सी पर बेचैनी से पहलू बदला। कदम और डॉक्टर थापा एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे।
“जो जानें आपने लीं वो निर्दोष नहीं थीं…गुनाहगार थीं…फिर भी, जान लेने का अधिकार आपका नहीं था। जब हम जीवन दे नहीं सकते तो उसे लेने का अधिकार भी हमारा नहीं। इसलिए, आप पर मानव हत्या के पाप का बोझ है,” निमित्त भावहीन स्वर में बोला। उसकी पलकें एक बार भी ना झपकीं, ना ही पत्थर जैसे सर्द चेहरे पर कोई भाव उमड़े।
“शायद उसी पाप की क़ीमत मेरी इरा चुका रही है,” गिरीश बाबू नज़रें झुकाते हुए बोले। उनकी झुकी नज़रें और कंधे गवाह थे कि हारे हुए पिता के सामने अंदर के शासक ने घुटने टेक दिए हैं।
“सिन्स ऑफ़ द फादर,” निमित्त शांत भाव से बोला।
“इंसान के कर्मों का फल सिर्फ़ वो नहीं भोगता, उसकी संतानें और उसकी संतानों की संतानें भी भोगती हैं। यदि कर्म अच्छे होंगे तो उनका फल कर्म करने वाले को मिले या ना मिले उसकी संतानों को अवश्य मिलेगा और यदि कर्म बुरे होंगे, या फिर मनुष्य कोई अक्षम्य अपराध करेगा तो उसका दंड वो तो अगले जन्म में प्रारब्ध कर्मों के रूप में लेकर जाएगा ही, साथ ही उसकी इस जन्म की पीढ़ियाँ भी उस अपराध का दंड भुगतेंगी,”
कमरे में घुप्प सन्नाटा छा गया। कोई कुछ ना बोला।
“अगर आप मेरी ‘साइकिक अबिलिटीज़’ का परीक्षण कर चुके हों तो मैं इरा को देख सकता हूँ?”
निमित्त खड़ा होते हुए बोला।
“आओ मेरे साथ,”
गिरीश बाबू कमरे से बाहर निकले, निमित्त, कदम और डॉक्टर थापा उनके पीछे थे। अल्फ़ा निमित्त के साथ-साथ चल रहा था।
वो एक लम्बे ओपन कॉरिडोर से गुजरे। निमित्त की नज़रें चारों ओर पैन हो रही थीं। ओपन कॉरिडोर के एक तरफ़ विशाल गार्डेन और मार्बल फ़ाउंटन था जो रेनेसाँ आर्टिस्ट और स्कल्प्टर माइकल ऐंजेलो से प्रभावित था और देख कर पता लगता था कि उस एक फ़ाउंटन की क़ीमत कई रईसों की हवेलियों से अधिक थी। कॉरिडोर के हर पिलर के पास ऑटमैटिक राइफ़ल लिए एक कमांडो तैनात था। हर पिलर के ऊपर सीसीटीवी कैमरा इंस्टॉल्ड था।
कॉरिडोर से होते हुए वो लोग लॉबी में पहुँचे जहां हैंगिंग गार्डेन बनाया गया था। वहाँ एक तरफ़ पुराने जमाने की घुमावदार सीढ़ियाँ थीं जिनसे होते हुए वो लोग पहली मंज़िल पर पहुँचे। नीचे की तर्ज़ पर ही ऊपर भी कॉरिडोर था, फ़र्क़ इतना था कि यहाँ कॉरिडोर के दोनों तरफ़ कमरे थे।
निमित्त ने अंदाज़ा लगाया कि ग्राउंड फ़्लोर का इस्तेमाल ऑफ़िस वर्क के लिए व पॉलिटिकल पार्टी के कार्यकर्ताओं के आने-जाने के लिए किया जाता है जब कि ऊपरी मंज़िल प्राइवेट एरिया है जहां सिर्फ़ फ़ैमिली, कुछ ख़ास नौकर-चाकर व कदम और डॉक्टर थापा जैसे करीबी लोगों को ही आने की अनुमति है।
नीचे की तर्ज़ पर यहाँ भी कॉरिडोर में कैमरा लगे हुए थे हालाँकि यहाँ पहरा देते कमांडोज़ की संख्या नीचे के मुक़ाबले कम थी, फिर भी, किसी अजनबी का घुसपैठ करना सरासर नामुमकिन था। इरा के कमरे के बाहर दो कमांडोज़ तैनात थे।
गिरीश बाबू के साथ क़ाफ़िला रूम में दाखिल हुआ। निमित्त दरवाज़े पर ही ठिठक के रुक गया। उसके साथ अल्फ़ा भी।
निमित्त ने अपनी आँखें बंद की और चेहरा ऊपर को उठाया। जैसे कुछ सूंघने की कोशिश कर रहा हो। उसके हाथ हवा में कुछ टटोलने लगे। गिरीश बाबू, डॉक्टर थापा और कदम सवालिया नज़रों से निमित्त के कार्यकलाप देख रहे थे।
“ये कर क्या रहा है?” डॉक्टर थापा ने फुसफुसा कर कदम से पूछा।
“ढोंग। ये जो कर रहा है उसे ढोंग कहते हैं,” कदम ने फुसफुसा कर जवाब दिया। उसका स्वर और चेहरा दोनों ही उस घड़ी भावहीन थे।
कुछ पल बाद निमित्त ने आँखें खोलीं और अंदर दाखिल हो गया। अंदर एक बड़े गोल बेड पर बेहोश इरा लेटी हुई थी। उसे ड्रिप चढ़ रही थी, साथ ही वहाँ डॉक्टर थापा ने इलेक्ट्रोकार्डीओग्रैम और पल्स ऑक्सीमीटर इंस्टॉल किए हुए थे जो इरा के जिस्म से जुड़े थे और लगातार एक निश्चित अंतराल पर ‘बीप’ की ध्वनि निकाल रहे थे जिसके साथ मॉनिटर पर नज़र आती रेखाएँ ऊपर-नीचे हो रही थीं।
सुभद्रा पहले से ही वहाँ मौजूद थी जो इरा के सिरहाने एक चेयर पर बैठी थी। उसके अलावा वहाँ नर्स यूनिफ़ॉर्म में एक बूढ़ी गोवानी महीना थी जिसकी उम्र सत्तर से कम बिल्कुल ना होगी, क़द साढ़े चार फ़ीट से बामुश्किल कुछ ऊपर होगा, शरीर पर यूँ लग रहा था जैसे मांस है ही नहीं, सिर्फ़ ढाँचे पर ढीली, झुर्रीदार खाल मढ़ दी गई हो। उसके काले पड़े होंठ लकीर जैसे पतले और यूँ एक-दूसरे से मिले हुए थे जैसे किसी ने पर्स की ज़िप लगा दी हो। उसकी आँखें पीली और पुतलियाँ धुंधली हो चली थीं लेकिन फिर भी उन आँखों में एक अलग ही चमक थी।
“इन सभी उपकरणों को बंद कर दीजिए और सब लोग यहाँ से बाहर निकल जाइए,” निमित्त जैसे सब को आदेश देते हुए बोला।
“दैट्स रिडिक्युलस! ये मशीन्स इरा के वाइटल स्टैट्स मॉनिटर कर रही हैं, ये बिल्कुल बंद नहीं होंगी,” डॉक्टर थापा तल्ख़ भाव से बोले।
“इरा इज़ नॉट इन कोमा। शी डज़ंट नीड इलेक्ट्रोकार्डीओग्रैम एंड पल्स ऑक्सीमीटर अटैच्ड टू हर। देयर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ज़ आर डिस्रप्टिंग हर नैचरल एनर्जी फ़्लो,” निमित्त ने शांत भाव से जवाब दिया।
“इरा इज़ नॉट इन कोमा? फिर क्या है ये? डॉक्टर थापा की आवाज़ में तल्ख़ी बढ़ी।
“उस इन्सिडेंट ने इरा के चेतन मस्तिष्क को बुरी तरह हिला दिया है। उसका नन्हा सा दिमाग़ इतने उच्च स्तरीय फ़ियर, स्ट्रेस और ट्रॉमा को प्रॉसेस नहीं कर पाया। इस असहनीय मानसिक दबाव से इरा अपना मानसिक संतुलन ना को दे इसलिए उसके नर्वस सिस्टम ने उसके चेतन मस्तिष्क को एक डीप स्लीप…एक हायबर्नेशन में डॉल दिया है,” निमित्त इत्मिनान से अपनी बात समझाते हुए बोला।
जब किसी की ओर से कोई सवाल या प्रतिवाद ना आया तो उसने आगे कहा।
“ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी स्मार्ट होम की पावर सप्लाई ओवरलोड होने से ट्रिप कर जाए और घर का ऑपरेटिंग सिस्टम पावर बैक-अप यूनिट पर काम करे। फ़िलहाल इरा का नर्वस सिस्टम भी बैक-अप यानी उसके अवचेतन मस्तिष्क पर चल रहा है,”
“यह ठीक कैसे होगा?” गिरीश बाबू ने सीधा सवाल किया।
“इरा का नर्वस सिस्टम उसके कॉंश्यस माइंड को प्रोटेक्ट करने की कोशिश कर रहा है, इसलिए वो उसे होश में नहीं आने देगा…कम से कम तब तक नहीं जब तक उसे ये यक़ीन ना दिलाया जाए कि इरा होश में आने पर सुरक्षित रहेगी। उसके कॉंश्यस माइंड को ये यक़ीन दिलाने और इरा के नर्वस सिस्टम को मेन ग्रिड पर लाने के लिए मुझे इरा के सब-कॉंश्यस में जाना होगा, और इस काम के लिए मुझे एकांत चाहिए,”
गिरीश बाबू ने आँखों के इशारे से डॉक्टर थापा को उपकरण बंद करने का आदेश दिया। डॉक्टर थापा ने बिना प्रतिवाद या प्रतिक्रिया के उपकरणों की पावर सप्लाई बंद कर दी। निमित्त के कहे अनुसार सभी लोग रूम से बाहर निकले, सिर्फ़ बूढ़ी नर्स बुत के समान अपनी जगह खड़ी रही।
“क़सम से, ये गिरीश भाऊ को अपनी बेटी की टेक-केयर के वास्ते इससे जवान नर्स नहीं मिली थी? बुड्ढी को खुद आइ.सी.यू. में लिटा के ग्लूकोज़ चढ़ाने की ज़रूरत है,” स्कैली की आवाज़ निमित्त के दिमाग़ में गूंजी।
“आप भी बाहर चलिए प्लीज़,” स्कैली की बात नज़रंदाज़ करते हुए निमित्त नर्स से विनम्र भाव से बोला।
“हम बेबी को अकेला छोड़ के कहीं नहीं जाएगा,” नर्स की आवाज़ बेहद महीन थी और ये शायद उम्र का असर था कि आवाज़ बुरी तरह काँप रही थी लेकिन आवाज़ की कम्पन के बावजूद उसमें एक अनुशासनात्मक लहजा साफ़ झलक रहा था।
“इरा अकेली नहीं है, मैं हूँ यहाँ इसके साथ,” निमित्त शांत भाव से बोला।
“इसीलिए तो बिल्कुल नहीं जाएगा! एक गुंडा-मवाली टाइप दिखने वाला आदमी के साथ अन-कॉंश्यस बच्ची को हम बिल्कुल नहीं छोड़ेगा,” इस बार आवाज़ काँपी हुई और महीन के साथ-साथ तीखी भी थी जैसे अपने शरीर में बची जान का एक-एक कतरा लगा कर वो चीखी हो।
“आइला, बुड्ढी डाँटती है! काटती भी है क्या?” स्कैली बोला।
अल्फ़ा निमित्त की टांगों के बीच दुबक गया। खुद निमित्त भी एक पल को सकपका गया।
“आ जाओ आंटी डॉरिस, उसे करने दो जो वो करना चाहता है,” दरवाज़े के बाहर खड़े गिरीश बाबू नर्स को समझाते हुए बोले।
“नो! हम बेबी के पास से कहीं नहीं जाएगा। इसको जो करना है हमारी प्रेज़ेन्स में करे,” नर्स डॉरिस भी दृढ़ भाव से बोली।
निमित्त ने सहमति में सिर हिलाया और प्रतिवाद ना किया।
निमित्त ने रूम का दरवाज़ा अंदर से लॉक किया। अल्फ़ा चुपचाप एक कोने में जा बैठा।
निमित्त ने अपने होल्स्टर से एक चौकोर लकड़ी का छोटा सा बॉक्स निकाला जिसमें छोटी-छोटी शीशियाँ खाँचों में रखी हुई थीं। इनमें से एक में गंगाजल था जो उसने बेड के चारों तरफ़ छिड़का। फिर दो-तीन शीशियों से रोज़मेरी, सैंडलवुड, फ़्रैंकिंसेन्स और पिपरमिंट ऑइल छिड़के। बेड के चारों तरफ़ फ़्लोर पर उसने सी-सॉल्ट और सिन्नेमन पाउडर से एक षट्कोण बनाया, जिसके कर कोने पर एक सिल्वर कैंडल जलाई। इसके अलावा उसने सेज जला कर बेहोश इरा के पास बेडसाइड टेबल पर रख दिया।
नर्स डॉरिस बग़ैर कोई व्यवधान उत्पन्न किए निमित्त के कार्यकलाप देखती रही।
इरा के सिरहाने के पास रखी जिस चेयर पर सुभद्रा बैठी थी निमित्त उस पर बैठ गया। उसने अपने होल्स्टर से कुछ क्रिस्टल पेबल्स निकाले।
निमित्त का हाथ बेहोश इरा की तरफ़ बढ़ा।
“ऐ, क्या करता है?” नर्स डॉरिस चेतावनी भरे स्वर में बोली।
उसकी चेतावनी का निमित्त पर कोई प्रभाव ना पड़ा।
“ये ‘मूनस्टोन’ है। फ़ीमेल एनर्जी बैलेन्स करता है, इमोशनल हीलिंग के काम आता है। ये इंसान की कुंडलिनी में उसके स्वाधिष्ठान यानी सेक्रल चक्र पर असर करता है, उसके अवरुद्ध हटाता है,” निमित्त हाथ में थमा मूनस्टोन इरा की नाभि पर रखते हुए बोला।
“टाइगर्स आइ। ये बल और साहस देता है, भय से लड़ने की इच्छाशक्ति जागृत करता है। यह मणिपुर चक्र यानी सोलर प्लेक्सस के अवरोध खोलता है,” निमित्त ने टाइगर्स आइ क्रिस्टल इरा के पेट के ऊपरी हिस्से पर बीचोंबीच रखते हुए कहा।
“ये है ‘रोडोक्रोसाइट’। इनर चाइल्ड हीलिंग में सहायक होता है और इंसान के अनाहत यानी हार्ट चक्र पर असर करता है,” निमित्त ने रोडोक्रोसाइट पेबल इरा के सीने के बीचोंबीच रखा।
“और इसके थर्ड आइ चक्र यानी अजना/आज्ञा चक्र के लिए ‘ऐमथिस्ट’ जो स्पष्टता, अंतर्ज्ञान और दूरदर्शी अंतर्दृष्टि देता है,” निमित्त ने ऐमथिस्ट इरा की दोनों भौंहों के बीच रखा।
सतर्क हुई नर्स डॉरिस सामान्य होकर पूर्ववत खड़ी हो गई।
निमित्त ने अपने गले से रक्त चंदन की माला उतारी जिसके सिरे पर पीतल की पुरानी, कलात्मक नक़्क़ाशी वाली चाभी लटक रही थी। चाभी पर ढेरों चिन्ह अंकित थे।
“इससे क्या करेगा?” नर्स ने सशंकित भाव से पूछा।
“ऐथेरनथॉर्न-की। ये एक पुरातन केल्टिक कंजी है जो मेरे लिए ‘दूसरी दुनिया’ और दूसरों के सपनों व अंतर्मन में प्रवेश के द्वार खोलती है,”
निमित्त ने बेहोश इरा का बायाँ हाथ अपनी दाहिनी हथेली पर रखा और ऐथेरनथॉर्न-की उसकी हथेली पर रख दी। फिर अपने हाथ से इरा का हाथ पकड़ते हुए मुट्ठी बंद कर ली।
अगले ही पल कुर्सी पर बैठे निमित्त की गर्दन नीचे यूँ झूल गई जैसे कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गया हो। नर्स डॉरिस अपनी जगह पर पूर्ववत खड़ी रही।
इरा के रूम के बाहर बेचैनी बढ़ रही थी। सुभद्रा बार-बार अपने स्टोल का सिरा उँगलियों में फँसा कर खींचती और हर दस सेकंड बाद स्मार्ट वॉच और बंद दरवाज़े पर नज़र डालती। गिरीश बाबू के लिए कॉरिडोर में एक चेयर लगा दी गई थी। वो इरा के रूम के ठीक सामने बैठे एकटक दरवाज़े को घूर रहे थे। मल्हार भी अपनी वाइफ़ रॉशेल के साथ वहाँ आ गया था। सिक्योरिटी कमांडोज़ और घर के सर्वेंट्स को उस समय वहाँ आने की अनुमति नहीं थी हालाँकि दो कमांडो सीढ़ियों के पास तैनात थे।
परिवार वालों से कुछ दूरी पर एक पिलर की ओट में डॉक्टर थापा और चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम खड़े थे। उनकी नज़रें भी इरा के रूम के बंद दरवाज़े पर टिकी हुई थीं.
“क्या लगता है कदम, क्या ये निमित्त कालांत्री इरा को ठीक कर पाएगा?” अपनी नज़रें बग़ैर दरवाज़े से हटाए डॉक्टर थापा ने सवाल किया।
चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम ने डॉक्टर थापा को एक जजमेंटल लुक दिया।
“कम ऑन डॉक्टर थापा, आप भी? यू आर ए मैन ऑफ़ साइंस! आइ थॉट यू वर बेटर देन दिस,”
“इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि उसने बिना देखे गिरीश बाबू के लिए बिल्कुल सही टैरो कार्ड पहचाना…और…और वो उसकी हत्या का बोझ होने वाली बात?”
डॉक्टर थापा पर कदम के जजमेंट का कोई प्रभाव ना पड़ा। उनकी नज़रें पूर्ववत दरवाज़े पर टिकी हुई थीं।
“ही इज़ ए कॉन-मैन। ऐसे चीप कार्ड-ट्रिक्स सड़क पर और सर्कस में तमाशे दिखाने वाले जादूगर आम करते हैं। रहा सवाल उसके हत्या वाली बात का तो वो सरासर तुक्का था जो क़िस्मत से सही लग गया,”
“तुक्का था? क्या सच में?”
“बिल्कुल! खुद सोचिए, गिरीश रायकर पॉलिटिकल लॉबी में काफ़ी बड़ा और पावरफ़ुल नाम है। और कौन सा बड़ा पॉलिटीशियन ऐसा है जिसके साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मानव हत्या का केस ना जुड़ा हो?”
कदम के तर्क से डॉक्टर थापा पूर्णतः सहमत तो नहीं थे फिर भी उन्होंने अनमने ढंग से सहमति में सिर हिला दिया।
“ही इज़ ए नट-केस। आधा पागल है ये आदमी। आपको यक़ीन नहीं होता ना? ठीक है…अगर ये आदमी इरा को ठीक कर के इस कमरे से बाहर ले आया तो मैं अपनी मूँछें मुंडवा दूँगा,” कदम तैश में आते हुए बोला।
डॉक्टर थापा की नज़रें कदम के तमतमाए चेहरे और उसकी तीखी, तराशी मूँछों पर गई, फिर दोनों वापस से सामने दरवाज़ा निहारने लगे।
निमित्त घुप्प अंधकार में था।
चारों ओर फैला नितांत घुप्प अंधकार।
उसके गले में बंधा वेगविसिर वाइकिंग कम्पस रेडियम की तरह चमक रहा था और उसके आगे बढ़ने के लिए मार्ग प्रकाशित कर रहा था।
समय का कोई अंदाज़ा नहीं।
निमित्त ने अपने दाहिने हाथ पर बंधी ज़ोडीऐक क्रोनो-कम्पस वॉच पर निगाह डाली। घड़ी की सुइयाँ रुकी हुई थीं जैसे घड़ी बंद पड़ गई हो।
“हम्म,”
निमित्त अपनी सोच में उलझ हुआ उस नितांत शून्य के अंधकार में आगे बढ़ता रहा, जैसे वो किसी एक बहुत लम्बी, अंधेरी सुरंग से गुजर रहा हो जिसका छोर नज़र नहीं आ रहा। जैसे वो सुरंग कभी ख़त्म ही नहीं होगी। ना उसके दूसरे छोर पर कभी प्रकाश नज़र आएगा।
उस लम्बी अंधेरी सुरंग में सिर्फ़ उसके बूट्स की सख़्त हील की आवाज़ गूंज रही थी। वेगविसिर पेंडेंट की रौशनी सिर्फ़ निमित्त को अगला कदम बढ़ाने भर की गुंजाइश दे रही थी।
“ठक-ठक-ठक”
उसके बूट्स की आवाज़ एको हो रही थी।
फिर कुछ बदला।
बूट्स अचानक सूखे पत्तों के झुरमुट पर पड़े। निमित्त के नीचे की ज़मीन अब सख़्त नहीं थी, नरम पड़ रही थी। गीली मिट्टी और उसपर बिछे सूखे पत्तों की चादर।
अंधेरा अब भी कम ना हुआ था पर इतना एहसास हो रहा था कि निमित्त उस सुरंग से बाहर निकल चुका है।
“आईsssss….”
अंधेरे में कहीं से किसी बच्ची के चीखने की तीखी आवाज़ गूंजी।
निमित्त चौंक कर पलटा। वो समझने की कोशिश कर रहा था कि आवाज़ किस ओर से आयी थी लेकिन सफल ना हो सका। ऐसा लग रहा था मानो चारों तरफ़ से वो आवाज़ एको हो रही है।
फिर सन्नाटा छा गया।
निमित्त ठिठक कर अपनी जगह रुक गया और ध्यान लगा कर सुनने की कोशिश करने लगा।
“ह्मफ़-ह्मफ़-ह्मफ़”
हाँफने की आवाज़।
कोई बच्ची अपनी उखड़ी साँसों को सम्भालते हुए, खुद को बचाने के लिए भाग रही थी।
निमित्त बिल्कुल चौकन्ना था लेकिन उसने कोई आवाज़ ना की। वो पहले जान लेना चाहता था कि जो आवाज़ें वो सुन रहा है वो किसकी हैं…क्या हैं।
तेज़ भागते कदमों की आहट निमित्त के पीछे से आई, जब तक वो पलटा, एक तेज़ रफ़्तार साया उसकी बाँह से टकराते हुए दूसरी तरफ़ भागा। निमित्त के वेगविसिर अपने हाथ में थाम लिया। उसकी रौशनी में वो देखने की कोशिश कर रहा था कि वो किससे टकराया। क्या वो इरा थी?
अंधेरे में कुछ नज़र ना आया। कहीं कोई ना था। ऐसा लग रहा था जैसे हवा ठोस साये का रूप लेकर उससे टकरा कर गुजरी हो।
इससे पहले कि निमित्त कुछ समझता या संभल पाता उसके पीछे से फिर एक साया भागते हुए आया और निमित्त से टकराते हुए गुजरा। इस साये के हाथ में फ़्लैशलाइट थी। यह सब कुछ इतनी तेज़ी से घटित हुआ कि निमित्त के समझ पाने से पूर्व ही पूरा घटनाक्रम जैसे अंधेरे में घुल गया था।
कुछ बचा था तो सिर्फ़ घुप्प अंधकार और उसमें व्याप्त भय और मृत्यु की महक।
निमित्त ने हाथ में थमा वेगविसिर चारों दिशाओं में घुमाया। जिस ओर वेगविसिर का प्रकाश सबसे अधिक था निमित्त उस दिशा में आगे बढ़ा।
“व्रूमsss..”
दूर कहीं से आती गाड़ी के इंजन की आवाज़ सुनाई दी।
“बचाओ-बचाओsss”
एक बार फिर बच्ची की चीख गूंजी।
निमित्त उस ओर भागा। उसके पीछे दोबारा हवा में सरसराहट उभरी। इस बार पहले से कहीं तेज़ और तीखी। निमित्त फ़ौरन एक ओर हुआ, जहां उसका चेहरा था वहाँ से जैसे सनसनाते हुए हवा में एक पत्थर गुजरा।
“ठाक”
पत्थर किसी से टकराने की ज़ोरदार आवाज़ हुई और उसके बाद झाड़ियों पर किसी के गिरने की।
ऐसा लग रहा था जैसे निमित्त किसी पूर्व घटित घटनाचक्र के बीच था लेकिन उस घटनाक्रम का हिस्सा नहीं था।
फ़्लैशलाइट वाला साया एक बार फिर निमित्त के क़रीब से गुजरा। इस बार उस साये की आकृति की हल्की झलक मिली।
निमित्त उसके पीछे भागा।
अंधेरे में धुंधला सा दृश्य उभर रहा था। जैसे धूमिल पड़ चुकी फ़िल्म रील किसी पुराने प्रोजेक्टर पर चलाई जा रही हो।
कँटीली झाड़ियों पर मुँह के बल एक लड़की गिरी हुई थी। उम्र लगभग तेरह साल होगी लेकिन ये इरा नहीं थी। हमलावर साये ने हड़बड़ा कर अपनी फ़्लैशलाइट बुझाई। गाड़ी के इंजन की आवाज़ बहुत क़रीब आ गई थी। झाड़ियों के पार हेडलाइट की रौशनी में निमित्त ने उस हमलावर को लड़की की दोनों टांगे पकड़ कर बेरहमी से झाड़ियों पर से घसीटा। लड़की की फ़्रॉक और बाल झाड़ी में उलझ गए। साये का चेहरा निमित्त को नज़र नहीं आ रहा था।
सब कुछ बहुत धुंधला था।
साया बेरहमी से लड़की की दोनों टांगें पकड़ कर उसे किसी शिकार किए हुए जानवर के जैसे घसीट कर कार की रौशनी से दूर ले जाने लगा। काई पर घसीटे जाने से खून की लकीर बन रही थी।
निमित्त आगे बढ़ा, जैसे उस साये को रोकना चाहता हो, लेकिन पूरा दृश्य अंधकार में यूँ घुल गया जैसे धुएँ का बना हो जो निमित्त की हलचल से बिखर गया।
फिर सिसकियों की आवाज़ आई।
कोई सुबक कर रो रहा था। धीमी और घुटी आवाज़ में। निमित्त अंदाज़े से उस आवाज़ की दिशा में बढ़ा। उसके हाथ में थामे वेगविसिर की चमक बढ़ रही थी। यानी वो सही दिशा में अग्रसर था। अपने लक्ष्य के क़रीब था।
अंधेरे में एक आकृति उभरी। खुद में सिमटी और डर से थर-थर काँपती हुई। अपनी नन्ही बाहों में खुद को समेट के बचने का असफल प्रयास करती हुई। निमित्त ने वेगविसिर की रौशनी में उसका चेहरा देखा। वो इरा थी।
“न..नहीं…मुझे…छोड़…दो..”
निमित्त को पास आता देख वो और बुरी तरह काँप गई। लगातार जाने कब से रो रही थी वो। उसका गला रुंध गया था। रोते-रोते हिचकी बंध गई थी।
“श्श्श्श…प्यारी बच्ची,” निमित्त की आवाज़ उस घड़ी एक माँ जैसी कोमल थी जो अपने रोते हुए शिशु को चुप कराने की कोशिश कर रही हो।
निमित्त ने अपना दाहिना हाथ इरा की ओर बढ़ाया। सहमी हुई इरा ने हाथ ना थामा। वो बस निमित्त को देख रही थी। जैसे पढ़ने की कोशिश कर रही हो।
“मुझ पर भरोसा करो। मुझ पर भरोसा कर के आज तक किसी का बुरा नहीं हुआ,” निमित्त मुस्कुराते हुए बोला।
उसकी आँखों में एक सच्चाई थी, एक बच्चों सी मासूमियत, जो इरा को ऐन अपने जैसी लगी। अपनत्व का एहसास कराती हुई। इरा ने अपना काँपता हुआ हाथ निमित्त की तरफ़ बढ़ाया। निमित्त ने बहुत ही आहिस्ता से इरा का हाथ थामा, जैसे वो इंसान नहीं, रुई के फाहे से बनी गुड़िया हो।
उस स्पर्श में कुछ था। इरा को एहसास हुआ जैसे अब कोई भी बुराई उसका कुछ बुरा नहीं कर सकती। वो भागते हुए निमित्त से लिपट गई और फूट-फूट कर रोने लगी।
“श्श्श्श…बस प्यारी बच्ची। अब सब ठीक है,” निमित्त ने आहिस्ता से इरा के सिर पर हाथ फेरा।
“वो..वो…मुझे…न…नहीं…छोड़ेगा…” निमित्त से लिपटी इरा सिसकते हुए बोली।
निमित्त अपना चेहरा इरा के बाएँ कान के पास लाया।
“ओम् नमो हनुमते, रुद्रवताराय, सर्वशत्रु संहारणाय, सर्वरोग हराय, सर्ववशीकरणाय, राम दूताय स्वाहा,”
मंत्रोच्चारण के साथ-साथ निमित्त की दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा इरा की भौंहों के बीच, उसके अजना/आज्ञा चक्र यानी थर्ड आइ पर एक अदृश्य ‘ॐ’ बना रही थीं। निमित्त फिर इरा के कान में फुसफुसाया।
“ये रुद्र हनुमान मंत्र है। हनुमान जी रक्षक हैं और बुरी शक्तियों के संहारक भी। उनके रहते कोई भी भूत-पिशाच, बुरी शक्ति उनके भक्त का बुरा नहीं कर सकती। हनुमान जी हर मतिभ्रम, मायाजाल, प्रेत बाधा को काट देते हैं और इंसान के अजना चक्र यानी उसकी थर्ड आइ को ऐक्टिवेट करते हैं। अब मैं दोबारा ये मंत्र पढ़ कर तुम्हारी थर्ड आइ को तीन बार टैप करूँगा। तीसरे टैप पर तुम नींद से जागोगी। तुम्हारे साथ अब तक जो कुछ भी हुआ तुम हर वो बुरी घटना भूल जाओगी, तुम्हें सिर्फ़ ये मंत्र याद रहेगा। ठीक है?”
इरा का सिर सहमति में हिला।
“ओम् नमो हनुमते, रुद्रवताराय, सर्वशत्रु संहारणाय, सर्वरोग हराय, सर्ववशीकरणाय, राम दूताय स्वाहा,”
निमित्त ने अपनी तर्जनी और मध्यमा से इरा की थर्ड आइ को टैप किया।
एक.
दो..
तीन…
निमित्त और इरा ने एक साथ आँखें खोलीं। इरा अपने बेड पर लेटी थी, निमित्त उसके बग़ल में चेयर पर था, इरा के हाथ में ‘ऐथेरनथॉर्न-की’ थी और उसका हाथ निमित्त के हाथ में था। अल्फ़ा किसी समय उठ कर निमित्त के पैरों में आ बैठा था और फ़िलहाल उन दोनों को जागता देख कर ख़ुशी से दुम हिला रहा था। निमित्त की नज़रें नर्स डॉरिस पर गयीं। ऐसा लग रहा था जैसे वो कुछ बुदबुदा रही थी लेकिन निमित्त और इरा को होश में आता देख कर उसके पतले होंठ फ़ौरन ही पर्स की ज़िप की तरह बंद हो गए।
इरा निमित्त और अल्फ़ा को देख कर हल्के से मुस्कुराई।
“आप कौन हो?”
“हेय किड्डो, आई एम योर फ़्रेंड। यू कैन कॉल मी ‘एन.के.’ एंड दिस इज़ अल्फ़ा,” निमित्त सहज भाव से मुस्कुराते हुए बोला।
इरा ने हौले से अल्फ़ा के सिर पर हाथ फिराया। अल्फ़ा ने प्यार से इरा की हथेली पर अपना सिर टिका दिया।
“क्या आपको हनुमान ज़ी का मंत्र याद है बच्चे?” निमित्त ने प्यार से सवाल किया।
“ओम् नमो हनुमते, रुद्रवताराय, सर्वशत्रु संहारणाय, सर्वरोग हराय, सर्ववशीकरणाय, राम दूताय स्वाहा,”
इरा के मुँह से जैसे स्वतः ही मंत्र निकला। वो खुद भी हैरान थी कि उसने ये मंत्र कब और कहाँ सुना और उसे ये मंत्र याद कैसे हुआ।
निमित्त मुस्कुराया। उसने अपने होल्स्टर के ज़िपर से एक लगभग दो इंच की, ठोस चाँदी से बनी हनुमान ज़ी की मूर्ति निकाली और इरा की हथेली पर आहिस्ता से रख दी।
“ये हमेशा अपने साथ रखना। हनुमान जी रक्षा करेंगे,”
इरा ने मूर्ति मुट्ठी में बंद कर ली।
“अब चलिए, आपके डैडी और बाक़ी लोग आपका वेट कर रहे हैं,”
निमित्त उठते हुए बोला।
बाहर अब बेचैनी हद से अधिक बढ़ रही थी। दरवाज़े को ताकती गिरीश बाबू और सुभद्रा की आँखें जैसे पलकें झपकाना भूल गई।
दरवाज़ा खुला।
“डैडीsss…सुभी माँsss”
इरा चहकते हुए बाहर निकली। निमित्त और अल्फ़ा उसके पीछे थे।
“इराsss…मेरी बच्ची,” गिरीश बाबू की आवाज़ में पिछले चार दिनों में पहली बार ख़ुशी झलकी।
इरा भाग कर पहले गिरीश बाबू और फिर सुभद्रा के गले लग गई। मल्हार वहाँ ना टिका। उसने सुलगती आँखों से पहले गिरीश बाबू के गले लगती इरा को, और फिर निमित्त को घूरा और दनदनाते हुए वहाँ से निकल गया। रॉशेल सहज भाव से सुभद्रा के पास आ खड़ी हुई और इरा से बातें करने लगी।
डॉक्टर थापा और चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम जहां थे वहीं बुत बन कर खड़े थे। डॉक्टर थापा कभी इरा को तो कभी कदम के चहरे और मूँछों को देखते। कदम के चहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उसका दिल फट के रोने का कर रहा हो लेकिन ये भाव झलक ना जाए इसलिए जबरन चेहरे को सख़्त बनाने की कोशिश कर रहा हो, जिससे चेहरा विकृत हो रहा था।
एक ओर खड़ा निमित्त इत्मिनान से जैसे वहाँ मौजूद हर शख़्स की छोटी से छोटी हरकत, भाव-भंगिमा और बॉडी लैंग्वेज स्कैन कर रहा था।
गिरीश बाबू निमित्त के पास आए।
अब उनकी नज़रों में निमित्त के लिए वो सशंकित और तल्ख़ भाव नहीं थे, बल्कि कृतज्ञता थी।
“हम समझ नहीं पा रहे निमित्त कि तुम्हारा धन्यवाद कैसे करें,” गिरीश बाबू कृतज्ञ भाव से बोले।
“अभी नहीं गिरीश बाबू। अभी ये ख़त्म नहीं हुआ है, अभी तो शुरुआत है,” निमित्त का चेहरा और आवाज़ गहरे और गम्भीर थे।
गिरीश बाबू का चेहरा उतर गया।
निमित्त की आँखों में वो पढ़ सकते थे कि हालात कितने चिंताजनक थे। गिरीश बाबू का दिल बैठने लगा।
इरा की नज़रें निमित्त और गिरीश बाबू की तरफ़ घूमीं।
निमित्त के फेशियल एक्स्प्रेशन फ़ौरन चेंज हुए। उसने मुस्कुराते हुए इरा की ओर ‘वेव’ किया।
“मुस्कुराइए गिरीश बाबू। इरा को लगना चाहिए कि सब कुछ नॉर्मल है। मैंने इस घटनाक्रम से जुड़ी इरा की स्मृतियों को अवरुद्ध कर दिया है। उसे याद नहीं कि उसके साथ क्या हुआ था। उसकी मेंटल सैनिटी बचाने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था,” निमित्त इरा की तरफ़ हाथ हिलाते हुए बोला।
अब तक कदम और डॉक्टर थापा भी उनके पास आ गए थे। गिरीश बाबू और बाक़ियों ने निमित्त के कहे अनुसार ही मुस्कुराते हुए इरा की तरफ़ हाथ हिलाया।
“मैं कुछ समझा नहीं निमित्त, आख़िर ये हो क्या रहा है?” गिरीश बाबू चेहरे पर मुस्कान चिपकाए हुए थे लेकिन उनकी आवाज़ में चिंता साफ़ झलक रही थी।
“पूरी तरह तो मैं भी नहीं समझ पाया हूँ लेकिन इतना बता सकता हूँ कि ये जो कुछ भी है वो इरा के अंदर घर कर चुका है। फ़िलहाल यूँ समझ लीजिए कि मैंने उसे इरा के अन-कॉंश्यस की जेल में क़ैद कर दिया है। इसीलिए बहुत ज़रूरी है कि इरा के आस-पास का माहौल हाइली पॉज़िटिव एंड वाइब्रेंट रहे। उसके लिए किसी भी तरह का शॉक, फ़ियर, ऐंग्ज़ाइयटी या ट्रॉमा एक ट्रिगर का काम करेगा जो उस चीज़ को रिलीज़ कर देगा जो उसके अंतर्मन में क़ैद है,” निमित्त ने गिरीश बाबू को समझाते हुए कहा।
उसकी बात सुन कर डॉक्टर थापा और कदम एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“अब आगे क्या करना है?” गिरीश बाबू ने चिंतित भाव से सवाल किया।
“सबसे पहले मुझे वो बॉक्स देखना है जिससे ये सारा क़िस्सा शुरू हुआ,”
“ठीक है। हमारे साथ हमारे रूम में आओ,” गिरीश बाबू ने कहा और अपने रूम की ओर बढ़े।
इरा, सुभद्रा और रॉशेल उस घड़ी अल्फ़ा के साथ खेलने में व्यस्त थीं।
निमित्त गिरीश बाबू के पीछे जाते हुए ठिठका और वहाँ खड़े डॉक्टर थापा और कदम से मुख़ातिब हुआ।
“आप दोनों ऐसे मातमी सूरत बनाए क्यों खड़े हैं? मुस्कुराइए। ऊपर वाले ने शकल कितनी भी बुरी दी हो, मुस्कुराने पर बेहतर ही दिखती है,”
“कहना क्या चाहते हो? हम दोनों बदसूरत हैं?” कदम उसे खा जाने वाली नज़रों से घूरते हुए बोला।
“तौबा! तौबा!! तौबा!!! मजाल है मेरी? मैंने ऐसा कब कहा? ये तो आप खुद कह रहे हैं। मैं तो सिर्फ़ इतना कह रहा हूँ कि बच्ची के आस-पास माहौल ख़ुशनुमा रखना है। अब अपनी शक्लों का तो आप कुछ कर नहीं सकते, ऐसा करते हैं दोनों के नाम का कुछ करते हैं,”
“नाम का करते हैं? क्या करते हैं?” कदम ने सशंकित भाव से सवाल किया।
निमित्त अपनी दाढ़ी में उँगलियाँ फिराते हुए उन दोनों को देखने लगा। उस घड़ी उसकी नज़रों में शरारत साफ़ झलक रही थी।
“बचपन में आपको आपकी मम्मी किस नाम से बुलाती थीं?” निमित्त ने अचानक से डॉक्टर थापा पर सवाल दाग दिया।
हमला अचानक से हुआ था। सवाल इतना अप्रत्याशित था कि जवाब बिना सोचे, स्वतः ही उनके मुँह से निकल गया।
“शंटू,”
कदम ने खा जाने वाली नज़रों से डॉक्टर थापा को घूरा, जैसे निमित्त के सवाल का जवाब देकर उन्होंने घोर पाप किया हो। डॉक्टर थापा ने सकपका कर यूँ नज़रें चुरा लीं जैसे कोई बच्चा स्कूल में टीचर से गलती पकड़े जाने पर चुराता है।
“आए-हाए क्या बात है! शंटू जी! आप लगते भी शंटू हो,” निमित्त चहकते हुए बोला।
“और आपको क्या बुलाते थे बचपन में?” निमित्त ने अब कदम से सवाल किया।
कदम ने कोई जवाब ना दिया। सिर्फ़ निमित्त को यूँ घूरता रहा जैसे आँखों से ही ए.के. 47 चला कर उसे छलनी करने का इरादा रखता हो।
“चलो कोई बात नहीं। नहीं बताना है मत बताओ, आख़िर प्राइवेसी नाम की भी कोई चीज़ होती है। ऐसा करते हैं, डॉक्टर थापा का नाम शंटू है तो आपको….बंटू बुला लेते हैं। ठीक है ना?” निमित्त सहज भाव से बोला।
कदम का चेहरा ग़ुस्से से अंगारे के समान लाल हो गया। उसकी परवाह किए बिना निमित्त ने इरा को आवाज़ लगाई।
“इरा, अंकल शंटू एंड अंकल बंटू भी आप लोगों के साथ खेलना चाहते हैं,”
इरा खिलखिला कर हंसी।
निमित्त ने उन दोनों को देख कर आँख मारी और एक फ़्लाइइंग किस देते हुए वहाँ से निकल गया। डॉक्टर थापा और कदम अपनी जगह पर बुत बने खड़े रहे।
“मैं अपनी पहले कहीं बात वापस लेता हूँ डॉक्टर थापा। ये आदमी आधा पागल नहीं है,” कदम ग़ुस्से से काँपते हुए, फुसफुसा कर बोला।
डॉक्टर थापा की प्रश्नवाचक नज़रें उसकी तरफ़ घूमीं।
“ये आदमी पूरा पागल है…और साथ ही निहायत ही बेहूदा और वाहियात भी,”
कदम ने अपना वाक्य पूरा किया। डॉक्टर थापा का सिर मशीनी अन्दाज़ में सहमति में हिला।
ठीक उसी समय निमित्त ने पीछे से आकर आहिस्ता से दोनों के कंधों पर हाथ रखा और कदम जितने ही धीमे स्वर में फुसफुसा कर बोला,
“कभी घमंड नहीं किया,”
उन दोनों को उसी अवस्था में छोड़ कर निमित्त गिरीश बाबू के रूम में पहुँचा।
गिरीश बाबू ने वह लकड़ी का बक्सा निकाल कर निमित्त के हवाले कर दिया। निमित्त इत्मिनान से एक सोफ़ा चेयर पर जा बैठा और उस बॉक्स का बारीकी से मुआयना करने लगा।
“हम्म,” बॉक्स पर की गई नक़्क़ाशी पर उँगलियाँ फिराते हुए निमित्त की हुंकार निकली। इस घड़ी वो जितना संजीदा और गम्भीर नज़र आ रहा था उसे देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वो कुछ ही क्षण पूर्व बाहर डॉक्टर थापा और कदम को अपनी हरकतों से कलपा कर हटा है।
बाहरी तौर पर बॉक्स का अवलोकन कर लेने के बाद निमित्त ने आहिस्ता से उसकी लिड खोली। अंदर से आती तीखी दुर्गंध उसके नथुनों से टकराई। अंदर यूज़्ड सैनिटेरी पैड से बनाई हुई वूडू डॉल थी जिसमें सात सुइयाँ धंसी हुई थीं।
“वर्जिन्स ब्लड! सबसे ख़तरनाक और अचूक हेक्सेस में से एक," निमित्त के मुँह से स्वतः ही निकला।
षडंगादि वेदो मुखेशास्त्र विद्या,
कवित्वादि गद्यम, सुपद्यम करोति।
मनश्चैन लग्नम गुरोरंघ्रि पद्मे
ततः किं, ततः किं, ततः किं, ततः किं।।
13 साल पूर्व
“वो मर जाएगी…मेरी बच्ची को बचा लीजिए प्रोफ़ेसर…मेरी बच्ची को बचा लीजिए,” उस महिला ने गिड़गिड़ातेहुए गुहार लगाई।
“कु छ नहीं होगा आपकी बेटी को…ये वादा है मेरा,” उस शख़्स की आवाज़ गहरी थी। सुकून दायक और गहरी। जैसे शांत सागर की लहरें बिना उठे भी उसकी गहराई का एहसास कराती हैं, बिल्कुल वैसी।
सारी नज़रें उस मल्टी-स्टोरी अपार्टमेंट के दसवें फ़्लोर पर टिकी हुई थीं, जहां एक लगभग 18 साल की लड़की बाल्कनी के एक्स्टेन्शन पर खड़ी थी और उसे देख कर लगता था वो किसी भी पल नीचे कूद जाएगी।
उसकी आँखों से बहते आँसू थमनेका नाम नहीं ले रहे थे।
नीचे पुलिस, दमकल विभाग और ऐम्ब्युलेन्स आ चुके थे। पुलिस की महिला काउन्सिलर मेगाफ़ोन पर लड़की से बात करने, उसे समझा-बुझा के नीचे उतारने की भरसक कोशिश कर रही थी। पर सब व्यर्थ।
लड़की ने फ़्लैट का मुख्य दरवाज़ा अंदर से लॉक किया हुआ था और धमकी दी थी कि अगर किसी ने दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश की तो वो फ़ौरन ही नीचे कूद जाएगी।
नीचे सोसाइटी कॉम्पाउंड में मीडिया वालों का ताँता लगा हुआ था।
“हम इस समय हैं दिल्ली के मयूर विहार फ़ेज़-वन की राजा बाग सोसाइटी में जहां अट्ठारह वर्षीय आकृति खन्ना अपने दसवीं मंज़िल के फ़्लैट की बाल्कनी से कूदने वाली हैं…सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार आकृति पिछले कुछ महीनों से डिप्रेशन में चल रही हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कारणों का पता नहीं चल सका है। हमारे चैनल पर बने रहिए, हम हर पल का सीधा प्रसारण आप तक लेकर आ रहे हैं…”
“क्या आकृति कूदेगी? यदि आपका जवाब ‘हाँ’ हैतो AK ‘Y’ टाइप करिए और अगर ‘ना’ है तो AK ’N’ और भेज दिए 58686 पर,”
“आख़िर क्या हुआ ऐसा आकृति के साथ जो नन्ही सी लड़की ने पूरी दुनिया के सामने इतना बड़ा कदम उठाने की ठान ली? जवाब मिलेगा सिर्फ़ हमारे चैनल पर। आज की स्पेशल रिपोर्ट देखना ना भूलें लेकिन उस से पहले एक मिनट हमारे स्पॉन्सर्स के लिए,”
चारों ओर शोर ही शोर था।
“वो किसी की नहीं सुनेगी प्रोफ़ेसर…कभी सोचा नहीं था कि जिसे मैंने ज़िंदगी दी, जिसके लिए अपनी ज़िंदगी की हर ख़ुशी ताक पर रख दी उसे अपनी आँखों के सामने अपनी जान लेते देखूँगी..” भावनाओ ंऔर भय के बोझ ने उस महिला के बूढ़े हो चले घुटनों को ज़मीन पर टिका दिया।
प्रोफ़ेसर संजीव गौतम ने महिला को सहारा दिया।
“भरोसा रखिए…आपकी बेटी को कुछ नहीं होगा,”
महिला की आस और प्रोफ़ेसर पर आस्था, दोनों कमजोर पड़ रहे थे।
प्रोफ़ेसर संजीव गौतम ने फ़ोन पर एक नम्बर स्पीड डायल किया। उनके कान में लगे इयर प्लग में निमित्त की आवाज़ आयी।
“येस प्रोफ़ेसर,”
“प्रोफ़ेसर के बच्चे…क्या कर रहा है?”
“कोशिश.”
“किस चीज़ की?”
“लड़की को रोकने की पहल करने की,”
“कब करेगा? उसके कूदने के बाद?”
“म…मुझसे नहीं होगा प्रोफ़ेसर। ये किसी के जीवन का सवाल है,” निमित्त की आवाज़ में संशय था।
“इग्ज़ैक्ट्ली …ये किसी के जीवन का सवाल है। सिर्फ़ उस लड़की के नहीं, उस माँ के भी जो अपनी बेटी को इस अवस्था में देख के आधी तो वैसे ही मर चुकी है। अगर वो लड़की कूद गई तो सिर्फ़ एक बेटी नहीं…उसके साथ एक माँ का विश्वास भी मरेगा…इसीलिए तुझे करना ही होगा निमित्त,”
“अ…अगर मैं बात करने गया और वो मुझे देखते ही कूद गई तो?” निमित्त का उलझन भरा स्वर प्रोफ़ेसर को सुनाई दिया।
“अपनी शक्ति को पहचान निमित्त। इस मानव संसार में विचार सेअधिक शक्तिशाली कुछ नहीं। एक विचार जीवंत हो तो राम राज्य ला दे, एक विचार कलुषित हो तो महाभारत करवा दे…और तुझ में वो क़ाबिलियत है कि तू लोगों के विचारों को नियंत्रित कर सकता है, उनके दिमाग़ के साथ खेल सकता है…उनके विचार सिर्फ़ पढ़ ही नहीं, बदल भी सकता है,”
“अगर फेल हुआ तो जीवन भर इसकी मौत का बोझ मुझ पर होगा,”
“वो तो तब भी होगा अगर तूने कोशिश ही नहीं की और ये लड़की मर गई,” प्रोफ़ेसर ने तर्क देते हुए कहा।
निमित्त कुछ ना बोला।
“मुझ पर विश्वास है तुझे?” प्रोफ़ेसर ने गम्भीर भाव से पूछा।
“खुद से ज़्यादा,” इस बार निमित्त की आवाज़ में कोई संशय न था।
“और मुझे उतना ही अटूट विश्वास तुझ पर और तेरी क़ाबिलियत पर है मेरे बच्चे,” प्रोफ़ेसर की आवाज़ गहरी थी। इतनी गहरी जो निमित्त की अंतरात्मा में उतर गई। उसने कॉल डिस्कनेक्ट कर दी।
आकृति ने डबडबाई आँखों से नीचे देखा। सब कुछ धुंधला था और उसकी आँखों के सामने यूँ घूम रहा था जैसे बचपन में अपनी माँ का हाथ पकड़ कर ‘घिरनी’ घूमने के बाद होता था। बचपन और माँ को याद करते ही आकृति के मन में टीस उठी।
नीचे सैकड़ों लोगों की भीड़ के बीच भी वो अपनी माँ को, उन धुंधली आँखों से भी साफ़-साफ़ देख सकती थी।
“सब ख़त्म हो गया…सब कुछ ख़त्म हो गया…आय एम सॉरी मम्मा,” आकृति ने हिचकती आवाज़ में कहा। उसका दाहिना पैर एक्स्टेन्शन से बाहर निकला। वो एक पल को ठिठकी।
नीचे शोर बढ़ गया था।
लेकिन उस शोर के बीच भी भी उसे वो आवाज़ यूँ सुनाई दी जैसे उसके अंदर, उसकी अंतरात्मा में गूंजी हो।
“बिल्कुल सही सोच रही हो…दर्द होता है, बहुत ज़्यादा असहनीय पीड़ा। जिस पल ऊपर से तेज़ी से गिरता जिस्म सख़्त ज़मीन से टकराता है, मानव मस्तिष्क पूरी तरह जागृत अवस्था में होता है। दिमाग़ के रेसेप्टर्स जिस्म के टकराने से पहले ही इंसान को एहसास दिला देते हैं कि उसका ये कदम कितना ग़लत था…लेकिन अब बहुत देर हो चुकी होती है…पता है इसीलिए ऊपर से गिर के मरने वाले कई लोगों का हार्ट ज़मीन से टकराने से पहले ही फेल हो जाता है… लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा नहीं होगा। तुम्हारा दिल मज़बूत है, वो डरेगा, उस मोमेंट को और दर्दनाक बनाएगा जब तुम ज़मीन से टकराओगी,”
आकृति ने चौंक कर ऊपर देखा। ग्यारहवें फ़्लोर के, उसके ठीक ऊपर वाले फ़्लैट की बाल्कनी से एक साया नीचे ठीक उसके पास कूदा।
“क..कौन हो तुम? पास मत आना वरना मैं कूद जाऊँ गी,” आकृति हड़बड़ाई।
“रिलैक्स! तुम्हें पकड़ कर ज़बरदस्ती तुम्हारी जान बचाने का मेरा कोई इरादा नहीं। अभी ज़ोर ज़बरदस्ती कर के तुम्हें बचा भी लिया तो तुम मरने का कोई और रास्ता व मौक़ा ढूँढ निकालोगी। जिसमें ना शोर होगा ना लोगों की भीड़,” उस अजीब से, बंजारों या हिप्पी जैसे नज़र आते शख़्स ने इत्मिनान से कहा और बाल्कनी में लगे झूले पर बैठ गया।
“फिर यहाँ क्यों आए हो?”
“तुम्हारे सवाल का जवाब देने,” निमित्त इत्मिनान सेबोला।
“सवाल? कैसा सवाल…कौन सा जवाब?”
“जो तुमने ख़ुद से पूछा था जब तुम नीचे कूदने से पहले ठिठकी थी,”
“तुम्हें कैसे मालूम मैंने क्या पूछा?”
“तुमने अपने मन में खुद से दो सवाल किए…दोनों इस मौक़े पर खड़े शख़्स के लिए बिल्कुल जायज़ सवाल थे। पहला, क्या नीचे गिरने पर दर्द होगा…जिसका जवाब मैं दे चुका। दूसरा, क्या तुम्हारी मम्मा तुम्हें माफ़ कर पाएगी?”
आकृति सन्न रह गई। उस शख़्स ने जैसे उसका मन पढ़ लिया था।
“त…तुम्हें कैसे पता मैंने खुद से क्या सवाल किए?”
“तुम्हारे दूसरे सवाल का जवाब ये है कि नहीं…तुम्हारी मम्मा तुम्हें नहीं, बल्कि अपने आप को मरते दम तक माफ़ नहीं कर पाएगी,” उसके सवाल को नज़रंदाज़ करते हुए निमित्त ने कहा।
“मैं उनकी वजह से ऐसा नहीं कर रही…” आकृति रुआँसा होते हुए बोली।
“मुद्दा वो नहीं, मुद्दा ये है कि तुम्हारी नज़रों में उनकी हैसियत, उनकी ममता और उनका प्रेम अपनी जान लेने की वजह के सामने छोटे पड़ गए। तुम्हारे जाने के बाद अपने जीवन के हर पल…अपनी अंतिम साँस तक वो सिर्फ़ यही सोचेंगी कि अगर उन्होंने तुम्हें थोड़ा और प्यार दिया होता…थोड़ा अधिक समझा होता तो शायद तुम उनके साथ…उनके पास होती,”
“नहीं…नहीं…नहीं…ये सच नहीं…मम्मा ने बहुत ज़्यादा प्यार दिया है मुझे…मैं बस उनको फ़ेस नहीं कर सकती,”
“तुम्हारी गलती नहीं आकृति। तुम अब भी जीवन को समझने की कोशिश कर रही हो। तुमने अपने बॉयफ़्रेंड के कहने पर उसके साथ अपनी ‘प्राइवेट पिक्स’ शेयर कीं क्योंकि तुम उसे उसकी शर्तों पर ये जताना चाहती थी कि तुम उसके प्रति कितनी डिवोटेड हो,” निमित्त की आवाज़ में इतना अपनत्व था जैसे वो हमेशा से आकृति को जानता हो, उसका हमराज़ हो।
आकृति का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया।
“तुम ये भी जानते हो?”
“और ये भी कि तुम्हारे उसी बॉयफ़्रेंड ने अपने दोस्तों के सामने शान बघारते हुए तुम्हारी उन ‘प्राइवेट पिक्स’ की नुमाइश लगा दी,”
“क…कै से पता है तुम्हें?” आकृति की आवाज़ बैठ गयी थी। उसके होंठों से सिर्फ़ हल्की फुसफुसाहट निकली।
“तुम्हारा दिमाग़, तुम्हारे विचार पढ़ सकता हूँ मैं…और तुम्हारा सोशल मीडिया भी। जहां तुमने अपने एक्स को ब्लॉक किया हुआ है लेकिन उसके और उसके दोस्तों और उनके कॉमन फ़्रेंड्स के चैट और कॉमेंट्स पब्लिक हैं,”
आकृति के शरीर ने झुरझुरी ली। वो एक्स्टेन्शन पर ही घुटनों के बल बैठ गई।
“मैं चार साल की थी जब मम्मा-पापा का डिवॉर्स हुआ था। पापा ने कभी मुड़ के भी हमारी तरफ़ नहीं देखा…हम ज़िंदा भी हैं या मर गए इसकी भी खबर नहीं ली। उन्होंने दूसरी शादी कर ली क्योंकि उन्हें बेटा चाहिए था। मम्मा नहीं झुकीं, नहीं टूटीं…वो मेरे लिए जीती चली गयीं..और मैंने…मैंने सिर्फ़ उन्हें शर्मिंदगी दी है,”
“ना! अब तक दी नहीं है…अभी उन्हें सिर्फ़ इस बाद का गहरा दर्द है कि उनकी बेटी के साथ कुछ इतना ग़लत हुआ है कि वो प्यार करना और समाज में सिर उठा के चलना दोनों से जीवन भर कतराएगी…शर्मिंदगी तुम उन्हें नीचे कूद कर दोगी,”
“मैं कैसे फ़ेस करूँ उन्हें?”
“आँखों में आँखें डाल के और बाहें फैला के…कुछ बोलना मत, वो माँ हैं, तुम्हारी खामोशी समझ जाएँगी,”
आकृति के चेहरे पर उलझन भरे भाव आए। निमित्त झूले से उठा और अपनी जेब से एक टैरो कार्ड्ज़ का डेक निकाल कर शफ़ल हुए उसके पास पहुँचा।
“इनमें से कोई तीन कार्ड चुनो,” वो आकृति की तरफ़ डेक बढ़ाते हुए बोला।
इस दौरान उसने देखा कि दोनों बग़ल की बाल्कनी पर रेस्क्यूटीम पहुँच चुकी है। नीचे क्रेन पर भी फ़ायर ब्रिगेड वाले तैनात थे। उसने हाथ से उन्हें रुकने का इशारा किया। सभी अपनी जगह रुक गए। नीचे मीडिया में भी हलचल थी, खबर अब और मसालेदार हो रही थी।
“आख़िर कौन है ये रहस्यमयी शख़्स जिसने ऐन मौक़े पर पहुँच के आकृति को नीचे कूदने से रोक लिया? क्या येआकृति का आशिक़ है जिससे रूठ के आकृति जान देने चली थी और जिसने फ़िल्मी हीरो के अन्दाज़ में एंट्री मार के अपनी माशूक़ा को बचा लिया? अपनी राय जल्दी से हमें कॉमेंट कर के बताएँ,” नीचे विश्वस्तरीय न्यूज़ रिपोर्टिंग अपने चरम पर थी।
आकृति ने झिझकते हुए पहला टैरो कार्ड खींचा।
“ ‘द टॉवर’। ये कार्ड विनाश दर्शाता है, एक दुखदायी अंत। यह अंत सोच का हो सकता है…या फिर हमारे पुराने व्यक्तित्व का। अधिकतर लोग इसे टैरो डेक के सबसे बुरे कार्ड्ज़ में से एक मानते हैं, पर मैं नहीं। मेरे हिसाब से ये सबसे पॉज़िटिव कार्ड्ज़ में से एक है…क्योंकि अगर पुराने का अंत नहीं होगा तो नए की स्थापना कैसे होगी? ये कार्ड दिखाता है कि तुम्हारे अब तक के जीवन में जो भी आईडियोलॉजीज़ थीं, तुम्हारी जो कोर पर्सनैलिटी थी उसका एक दुखदायी अंत होने का समय आ गया है ताकि तुम जीवन में एक नयी शुरुआत करो। अगला कार्डपुल करो,”
आकृति ने दूसरा कार्ड निकाला।
“फ़ोर ऑफ़ सॉर्ड्ज़ । ये कार्ड दर्शाता है कि तुम्हारे लिए समय है खुद पर ध्यान देने का, रुक के अपने जीवन के बारे में सोचने और विचार करने का और अपने आंतरिक दर्द और रिक्त स्थान को भरने का। अब फ़ाइनल कार्ड खींचो,”
आकृति नेअंतिम कार्ड निकाला।
“ ‘द सन’, टैरो डेक का सबसे पॉज़िटिव कार्ड। जब तुम अपने नए व्यक्तित्व के साथ जीवन की फिर से शुरुआत करोगी तो ज़िंदगी में वैसे ही चमकोगी जैसे रात का अंधियारा दूर कर के सुबह का सूरज निकलता है। यूँ समझो कि अपने बॉयफ़्रेंड के इमोशनल एंट्रैपमेंट में फँसने वाली आकृति खन्ना आज वाक़ई यहाँ से गिर के मर गई। अब जो लड़की मेरे साथ नीचे जाएगी वो अपनी माँ जितनी ही सशक्त और सबल है,”
“प…पर…अगर मेरे एक्स ने वो पिक्स इंटर्नेट पर पोस्ट कर दीं तो मैं कहीं की नहीं रहूँगी,” आकृति अब भी उलझन में थी।
“पहली बात…येअच्छा ही है कि तुम टीनएजर्स के पास पुअर क्वालिटी कैमरा फ़ोन होता हैऔर तुम लोग ऑफ़ ऐ ंगल से ब्लर और ग्रेनी पिक्स लेते हो। किसी आम लड़की को, जिसका चेहरा जाना- पहचाना ना हो, उसकी पिक्स देख के आयडेंटिफ़ाई करना मुश्किल है। तुम डिनाई कर सकती को कि पिक्स तुम्हारी नहीं हैं,”
“ऐसा थोड़े ही होता है,” आकृति आहत भाव से बोली।
निमित्त कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला।
“ठीक है, कल सुबह कुछ ऐसा होगा जिसके बाद तुम्हें इस बात की चिंता नहीं करनी पड़ेगी,”
“ऐसे कैसे?”
“ऐसे ही! मुझ पर भरोसा करो…मुझ पर भरोसा कर के आज तक किसी का बुरा नहीं हुआ,” निमित्त की आँखों में झलकती शरारत के बावजूद उनमें एक सच्चाई थी।
आकृति एक्स्टेन्शन से वापस बाल्कनी में निमित्त के पास आ गई। नीचे इकट्ठा भीड़ के उन्हें ‘चियर’ करने का शोर गूंजा।
“एक और बात…मीडिया गिद्ध की तरह तुम्हारे लिए घात लगाए बैठा है। जैसे ही तुम यहाँ से बाहर निकलोगी रिपोर्टर्स तुम पर टूट पड़ेंगे। तुम्हारी इस उपद्रवी…फ़सादी हरकत का कारण जानने के लिए तुम्हें भंभोड़ेंगे,” निमित्त संजीदा होते हुए बोला।
आकृति ने घबरा कर उसकी आँखों में देखा।
“कह देना बोर हो गई थी, लाइफ़ में थ्रिल और अटेन्शन सीक कर रही थी, चाहती थी कि पूरी दुनिया की नज़रें तुम पर हों इसलिए महज़ फ़ुटेज खानेकी नियत से तुमने ऐसा किया,”
“प…पर सब लोग हँसेंगे मुझ पे…ट्रोल की जाऊँ गी..मज़ाक़ बन के रह जाऊँ गी,”
“और अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो पता है क्या होगा?”
आकृति ने नज़रों से इनकार करते हुए निमित्त की आँखों में देखा।
“भूखे शिकारी कुत्ते देखे हैं कभी? वो अपने शिकार की गंध ही नहीं, उसका भय भी सूंघ लेते हैं। ठीक इसी तरह ये मीडिया वाले तुम्हारे इस ऐक्ट की असल वजह सूंघने लग जाएँगे और तुम्हारी उन प्राइवेट पिक्स का सच जो अब तक चंद लोग जानते हैं वो पूरी दुनिया के सामने होगा,”
आकृति भयभीत नज़र आई।
“मेरी बात सुनो…और समझो आकृति, फ़र्क़ इससे नहीं पड़ता कि हम दुनिया की नज़रों में क्या हैं। समाज हमें देख कर मखौल उड़ाता है या थू-थू करता है। फ़र्क़ इससे पड़ता है कि हम अपनी नज़रों में क्या हैं, हमारी अंतरात्मा हमें कैसे देखती है। सुबह उठ कर जब आईने में अपनी आँखों में देखो तो क्या नज़र आता है? खुद पर शर्मिंदगी होती है, घिन्न आती है, अफ़सोस होता है…या फिर गर्वहोता है कि हम जो हैं, ना वो कोई समझ सकता है ना जान सकता है। मूर्खों की भीड़ को अपना मज़ाक़ बनाते देख उनके अस्तित्व पर मन ही मन अट्टहास करने का मज़ा ही अलग होता है,”
आकृति ने सकुचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“मीडिया किसी भी न्यूज़ को तब तक खींचती है जब तक व्यूअर्स उससे ऑर्गैज़म ले रहे हैं। न्यूज़ चैनल से चिपके विकृत बुड्ढों की भीड़ जो हर खबर में विभत्सता तलाशती है ताकि अपनेअंतर्मन की कुंठा की तुष्टि कर सके । किसी लड़की का बलात्कार कितने लोगों ने, कितनी बार और कैसे किया इसमें ‘हाई’ लेने, सोशल मीडिया पर चार दिन हैशटैग्स चलाने और मोमबत्ती जला कर पाँचवें दिन पॉलिटिक्स या क्रिकेट में डूब के उस मुद्दे को टिश्यूपेपर की तरह फेंक देने वाले बुद्धिजीवी समाज को ऐसी बेवक़ूफ़ और लाइम लाइट की भूखी लड़की की स्टोरी में कोई इंट्रेस्ट नहीं होगा जो सिर्फ़ मज़े के लिए मरने चढ़ गई। लोग इंट्रेस्ट नहीं लेंगे तो मीडिया भी तुम्हारा पीछा छोड़ देगा,”
इस बार आकृति का सिर दृढ़ भाव से हिला।
“एक आख़री बात…संसार में पिता का स्थान ‘सूर्य’ का है। पिता भी सूर्य की तरह अंधियारे रास्तेको प्रकाशमान करता है, प्राण ऊर्जा देता है…खुद जलता है ताकि अपने संसार…अपने परिवार को जीवन दे सके । जब भी जीवन में पिता की और पिता के मार्गदर्शन की कमी महसूस करो, आसमान में उगते सूर्य को एक कलश जल अर्पित कर ‘ॐ घृणि सूर्याय नमः’ मंत्र का जाप करना,”
आकृति आगे बढ़ के निमित्त के गले लग गई।
“थैंक-यू…थैंक-यूसो मच,”
“मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। बाह्य शत्रु से तो हर वीर करे है द्वंद्व…महावीर कहलाए वही जो जीते अपने मन का अंतर्द्वंद्व,” निमित्त की आवाज़ जैसेआकृति की अंतरात्मा में गूंजी।
“अब तुम सामने के रास्ते से निकलोगी और मीडिया को फ़ेस करोगी। मैं फ़ायर एग्ज़िट से बग़ल वाले ब्लॉक में जाऊँगा और पीछे के रास्ते से निकल जाऊँगा,” निमित्त फ़्लैट का दरवाज़ा खोलते हुए बोला।
कॉरिडोर के दूसरे एंड पर लिफ़्ट उस फ़्लोर पर आ के रुक रही थी।
“मीडिया वाले आ रहे हैं…ऑल द बेस्ट आकृति,”
“अरे….पर वो तुम्हारे बारे में पूछेंगे तो क्या कहूँगी?”
“कह देना कोई वाहियात डेस्पो था…जो मरती लड़की देख कर चान्स मारने चला आया,” निमित्त ने आँख मारते हुए कहा और फ़ायर एग्ज़िट विंडो से छज्जे पर कूद गया। पीछे लोगों के हुजूम का शोर सुनाई दे रहा था।
इस घटना के कुछ घंटों बाद एक और हंगामा हुआ। पार्टी करते हुए आकृति के एक्स और उसके दोस्तों ने शराब और एल.एस.डी. के नशे में पहले अपनी पूर्ण निर्वस्त्र फ़ोटोग्राफ़्स होम प्रिंटर पर प्रिंट कर के पूरी लोकैलिटी में पोस्टर चिपकाए, फिर अपने मोबाइल फ़ोन्स जला दिए और उसी नंग-धडंग अवस्था में एरिया के पुलिस थाने जा कर पुलिस वालों से मार-पीट की।
ऐसे कोई भी सबूत या गवाह नहीं थे जो निमित्त को इस घटना से जोड़ सकें।
रात के समय निमित्त और प्रोफ़ेसर संजीव गौतम प्रोफ़ेसर के घर के गार्डेन में बैठे थे, दोनों के सामने बियर के आधे ख़ाली ग्लास थे। प्रोफ़ेसर निमित्त को देख के यूँ मुस्कुरा रहे थे जैसे उसकी हरकत के लिए उसे डाँटना चाहते हों लेकिन साथ ही उस पर इतना गर्व था कि फूले नहीं समा रहे।
***
“बहुत बदमाश है तू…हद से ज़्यादा! मन की करता है…किसी की नहीं सुनता,” प्रोफ़ेसर के अल्फ़ाज़ शिकायती अवश्य थे लेकिन लहजा ऐसा था जैसे प्रशंसा कर रहे हों।
“कभी घमंड नहीं किया,” निमित्त अबोध बच्चों से एक्स्प्रेशन चेहरे पर लिए हुए मुस्कुराया और अपना बियर का ग्लास ख़ाली किया।
प्रोफ़ेसर ने ग्लास दोबारा भर दिया।
“वैसे ये कहना ग़लत है…मुझ मासूम पर सरासर ज़्यादती है कि मैं किसी की नहीं सुनता। आपकी तो सुनता हूँ,”
“ग़नीमत है…वरना पता नहीं क्या ही करता तू,”
निमित्त मुस्कुराया।
“तूने बेहतरीन काम किया निमित्त…मेरी अपेक्षा से कहीं अधिक बेहतरीन…” इस बार प्रोफ़ेसर खुल कर प्रशंसा करते हुए बोले।
“श्रेय आपको जाता है, जो किया आपके लिए हुआ…मैं तो बस ‘निमित्त’ मात्र हूँ,”
“त्च! हर बार अपने किए का क्रेडिट मुझे क्यों देता है? जो किया तूने किया,”
“ना! मैंने किया क्योंकि मेरे गुरु ने मुझे बताया कि मैं कर सकता हूँ। आपने कभी नहीं कहा मुझसे कि अपने किए का क्रेडिट मुझे दिया कर…मैं खुद देता हूँ, अपनी इच्छा से, अपने आदर के प्रतीक के रूप में,”
संजीव की आँखों के पोरों में हल्की ख़ुशी की नमी छलछलाई, जिसे वो ख़ूबसूरती से बियर का ग्लास उठा कर डुबो गए। फिर एकाएक संजीदा हुए।
“ ‘स्टडीज़ इन इंडियन ऑकल्ट साइंस एंड डार्क आर्ट्स ’ आय बेट, ज़्यादातर लोगों ने इसका नाम भी नहीं सुना होगा। लोगों को इल्म ही नहीं कि ऐसी कोई विधा भी होती है। हमारे देश मेंऑकल्ट को लेकर सिर्फ़ दो तरह का मत रखने वाले लोग हैं। एक साले वो जाहिल-गंवार जो तंत्र-मंत्र का मतलब सिर्फ़ टोना-टोटका समझते हैं। जिनकी बुद्धि मोहल्ले की शादीशुदा औरतों और अंडरएज बच्चियों पर वशीकरण से ऊपर नहीं उठती और दूसरे वो जो इसको अंधविश्वास और ढकोसला मानते हैं। शर्म की बात है कि जिस भारतवर्ष ने दुनिया को ‘यंत्र-तंत्र और मंत्र’ की महाशक्ति का ज्ञान दिया वहाँ ऑकल्ट और डार्क आर्ट्स सिर्फ़ सड़कछाप औघड़ और तांत्रिकों का खिलौना बन कर रह गया है,”
निमित्त शांति से उनकी बात सुन रहा था। उसने सहमति मेंअपना सिर हिलाया। प्रोफ़ेसर की आँखें अब गुलाबी हो रही थीं। निमित्त जानता था कि अब प्रोफ़ेसर जो भी बोलेंगे वो दिल से बोलेंगे, दिमाग़ से नहीं।
“तू टैलेंटेड है निमित्त…बहुत ज़्यादा टैलेंटेड। तू जीवन में जो कुछ भी करना चाहेगा वो कर पाने की क़ाबिलियत है तुझमें,”
“वही तो कर रहा हूँ,” निमित्त सहज भाव से बोला।
“क्यों कर रहा है? ये रास्ता तुझे जीवन में किसी मंज़िल तक लेकर नहीं जाएगा। ऊपर वाले ने तुझे जो नियामत बक्शी है वो हर किसी को नसीब नहीं होती। इसका सही इस्तेमाल कर, अपना जीवन बना। एक कामयाब इंसान बन, इस लाइन को छोड़ के जीवन में कुछ ढंग का कर,”
निमित्त मुस्कुराया। उसने अपना बियर पिचर ख़ाली किया, एक गहरी साँस खींची…जैसे आगे जो बोलने वाला है उसके लिए हिम्मत जुटा रहा हो। फिर बोला,
“नियामत का तो पता नहीं, पर दूसरों से अलग हूँ ये बात बचपन में काफ़ी जल्दी समझ आ गई थी। मुझे समझने वाला मेरे नाना के अलावा दूसरा कोई ना था। उनकी डेथ के बाद मैं मँझधार की कश्ती था, ना खैवइया ना पतवार। मेरे नाना हमेशा कहा करते थे…किताबों से दोस्ती कर आशू, उन्हें अपना दोस्त बना, जीवन में किसी और दोस्त की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। नाना के जाने के बाद उनका रिक्त स्थान किताबों से भरना शुरू किया…यही वो समय था जब आपको पहली बार पढ़ा। पहली बार पढ़ के ही लगा कि कोई तार जुड़ गया है। आप सागर में मध्य बने उस विशाल लाइट हाउस जैसे थे जिसकी रौशनी मेरी भटकी, बिना पतवार की नाव को राह दिखा रही थी,”
निमित्त शांत हुआ, प्रोफ़ेसर ने दोनो के पिचर भरे।
“आपको पता नहीं, पर जब आपसे मिला भी नहीं था तब से आप मेरे गुरु हैं। ऑकल्ट को लेकर आपकी और प्रोफ़ेसर ‘भारतेंदु नागराजन’ की इन-डेप्थ नॉलेज, आपकी आइडिओलॉजीज़, आपके विचार, आपकी हर एक बात ने मेरा मार्गदर्शन एक गुरु की तरह किया है….मुझे निमित्त कालांत्री बनाया है,”
प्रोफ़ेसर खुद को भावुक होने से रोकने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे।
“मुद्दा ये है कि इस अनकन्वेन्शनल पाथ पर आप चले, बिना कुछ हासिल करने की लालसा लिए… और आपने मुझे बना दिया। आज मैं चल रहा हूँ…बिना किसी लालसा के, शायद यही ब्रह्मांड का ‘निमित्त’ है…शायद मैं भी ऐसी भटकी नावों को राह दिखा सकूँ जिनके पतवार छूट गए हैं,”
प्रोफ़ेसर की आँखों में वही भाव थे जो एक गर्व से भाव-विभोर हुए पिता की आँखों में होते हैं। “पता है निमित्त…मैं तुझ में अपना गुजरा हुआ कल देखता हूँ,”
“जानता हूँ…और मैं आप में अपना आने वाला कल…बस मैं आप जितना विनम्र नहीं,” निमित्त मुस्कुरा कर बोला।
“ये राह बहुत कठिन है बेटे,”
“पहली बार चलना शुरू किया था तब से चाल वक्री है मेरी…देख लेंगे,” निमित्त बेपरवाही से बोला।
प्रोफ़ेसर ने निमित्त को समझाने का अंतिम प्रयत्न किया,
“मान ली तेरी बात लेकिन अब तू बिन पतवार की नाव नहीं है बेटे। अपनी शक्ति को पहचान, तू अथाह, अनंत महासागर है जिसकी थाह कोई नहीं लगा सकता। अब तुझे इस पुराने बूढ़े लाइट हाउस की ज़रूरत नहीं…अब तुझे मेरी ज़रूरत नहीं,”
“पर आपको तो है ना…मेरी ज़रूरत। कैसे छोड़ दूँ आपको यूँ ही? मैं कहीं नहीं जा रहा प्रोफ़ेसर, आप धक्का मार के निकालेंगे फिर भी नहीं जा रहा,”
प्रोफ़ेसर ने हथियार डालने के अन्दाज़ में सिर हिलाया।
“वैसे…एक चीज़ की लालसा है मुझे,” निमित्त कुछ सोचते हुए बोला।
“किस चीज़ की?”
“आपका सपना पूरा करना है। ‘तंत्रपुरम’ ढूँढना है आपके साथ मिल के। मैं चाहता हूँ कि सारी दुनिया जाने कि मेरे गुरु कितने महान हैं, आपको वो नाम और सम्मान मिले जिसके आप अधिकारी हैं,” निमित्त संजीदा स्वर में बोला।
प्रोफ़ेसर भी गम्भीर हुए,
“ ‘तंत्रपुरम’…क़ाबिनी के जंगलों में बसी एक प्राचीन नगरी जिसे आज अधिकतर इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता मिथक मानते हैं। प्राचीन भारत में उन्नत तंत्र विज्ञान का केंद्र था तंत्रपुरम जो एकाएक यूँ ग़ायब हो गया जैसे धरती पर उसका अस्तित्व कभी था ही नहीं। मेरा और प्रोफ़ेसर भारतेंदु का सपना था तंत्रपुरम का सच दुनिया के सामने लाना। लेकिन तंत्रपुरम तलाशते हुए एक दिन प्रोफ़ेसर भारतेंदु भी उस रहस्यमयी प्राचीन नगरी की तरह ही ग़ायब हो गए…जैसे उनके समूचे अस्तित्व को ही ब्रह्मांड से इरेज़ कर दिया गया हो,”
“जानता हूँ। यह भी कि अपने पार्ट्नर प्रोफ़ेसर भारतेंदु के एकाएक ग़ायब होने के बाद आप गहरे अवसाद में चले गए और आपने वर्षों तक लिखना बंद कर दिया था,”
“तो ये भी समझ लो कि भारतेंदु के जाने से जो झटका मेरे जीवन को लगा था वो मैं दोबारा नहीं झेल सकता। तुम तंत्रपुरम का नाम भी नहीं लोगे,” प्रोफ़ेसर जैसे निमित्त को चेतावनी देते हुए बोले।
“मैं कहीं नहीं जा रहा प्रोफ़ेसर। एक कार्ड खींचिए,” निमित्त तपाक से अपना टैरो डेक प्रोफ़ेसर के सामने करते हुए बोला।
प्रोफ़ेसर ने उसे एक सख़्त लुक दिया।
“अरे खींचिए भी!”
प्रोफ़ेसर संजीव गौतम ने अपनी आँखें बंद की जैसे ध्यान केंद्रित कर रहे हों, और एक कार्ड डेक से बाहर खींचा।
“बिंगो! ‘व्हील ऑफ़ फ़ॉर्चून’…आने वाले दस साल हमारे लिए रोलर-कोस्टर राइड होंगे…ऊपर ज़्यादा, नीचे कम। हम वहाँ होंगे जहां हम पहुँचना चाहते हैं…उस शीर्ष पर पहुँच कर हम वो कर रहे होंगे जो हम करना चाहते हैं,”
“चियर्स टू दैट,” प्रोफ़ेसर की आवाज़ गहरी और गम्भीर थी।
हमेशा की तरह निमित्त के कार्ड्ज़ बिल्कुल सही थे। अगले दस सालों में प्रोफ़ेसर संजीव गौतम के सानिध्य में निमित्त ने हर मुश्किल और हर दुश्मन का मुँह तोड़ते हुए इंडियन ऑकल्ट साइंस और प्रोफ़ेसर संजीव गौतम को उनका वो सम्मान और स्थान दिला दिया जिसके वे हक़दार थे।
वर्तमान समय
“ग़द्दार, दोगला, दग़ाबाज़, विश्वासघाती…गुरुघाती! इनमें से किसी भी उपाधि या उपनाम से नवाज़िए, इस शख़्स पर ये सभी ऐन फिट बैठते हैं…जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ नन अदर देन निमित्त कालांत्री की, जिसने सिर्फ़ अपने गुरु का ही नहीं, बल्कि उन हज़ारों-लाखों लोगों का भी काटा है जो इस पर विश्वास रखते थे,” एक फ़ेमस यूट्यूबर अपने लाइव पॉड्कैस्ट में बोल रहा था।
व्यूअर्ज़ की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही थी।
“प्रोफ़ेसर संजीव गौतम के तलवे चाट कर उनके फ़ॉलोअर्स के बीच नाम कमाने वाला ये इंसान इस कदर गिर गया कि इसने लोगों के विश्वास ही नहीं, उनकी जान से भी खिलवाड़ करना शुरू कर दिया। अनएथिकल प्रैक्टिस एंड कॉंडक्ट के आरोप तो इस पर हमेशा से ही लगते रहे लेकिन अपनी बढ़ती पॉप्युलैरिटी के नशे और घमंड में चूर इसने लाखों लोगों को ठगा और एक मानसिक रूप से बीमार लड़की का ‘एक्सॉर्सिज़म’ करने के नाम पर उसका ग़लत फ़ायदा उठाया। इसका ये घिनौना चेहरा कहीं दुनिया के सामने उजागर ना हो जाए इस डर से उस लड़की की हत्या कर के उसे ‘ऐक्सिडेंटल डेथ ड्युरिंग एक्सॉर्सिज़म’ का रूप दे दिया,”
वीडियो पर निमित्त के लिए ‘हेट कॉमेंट्स’ की बाढ़ आ गई।
यूट्यूबर ने अपने मोबाइल पर निमित्त का एक पुराना इंटरव्यू प्ले कर के कैमरा के सामने कर दिया।
“आपको इसका एक पुराना इंटरव्यू दिखाता हूँ। देखिए कितना बड़ा ढोंगी..दोगला और पाखंडी है ये इंसान,”
इंटरव्यू में होस्ट ने निमित्त से सवाल किया,
“आपके लाखों चाहने वाले हैं निमित्त। आपके फ़ॉलोअर्स आपको भगवान की तरह पूजते हैं…कैसा फ़ील होता है ये देख के?”
निमित्त सहज भाव से मुस्कुराया,
“मैं भगवान नहीं। मैं सिर्फ़ ‘थोड़ा सा भगवान’ हूँ…बस उतना ही जितने वो लोग हैं जो मुझसे प्रेम और मुझ पर विश्वास रखते हैं,”
“अपनी इस कामयाबी का श्रेय किसे देना चाहेंगे?”
“कामयाब तो अभी हुआ नहीं…सफ़र लम्बा है। हाँ, आगे बढ़ने की ऊर्जा और साहस देने का श्रेय मेरे गुरु प्रोफ़ेसर संजीव गौतम को जाता है। जीवन में पिता का स्थान कोई नहीं ले सकता, और गुरु वो होता है जिसका ओहदा और गरिमा पिता जितना ही उच्च होता है…इसलिए वे मेरे लिए ‘पिता तुल्य’ हैं,”
यूट्यूबर ने वीडियो पॉज़ की।
“सुना आपने! क्या कह रहा है ये ढोंगी ड्रामेबाज़…’पिता तुल्य’…आक्क-थू!” द्वेष व घृणा से उसने थूकने का उपक्रम किया, फिर बोला।
“अपने फ़ायदे और लोगों की वाहवाही बटोरने के लिए ये ऐसी लच्छेदार बातें करता है और फिर अपने उसी गुरु को बर्बाद करने की क़समें खाता है। कॉमेंट कर के बताइए दोस्तों आपका क्या कहना है…मुझे तो लगता है ये दोगला अपने सगे बाप का भी नहीं होगा!”
कॉमेंट्स में फिर गालियों की बाढ़ आई।
यूट्यूबर ने आगे कहा,
“आचार्य संजीव गौतम और उनके ‘आर्टऑफ़ लव, पर्सनल हीलिंग एंड अवेकनिंग’ ने लाखों लोगों की जिंदगियाँ संवारी हैं। अपने इस यूट्यूब चैनल के माध्यम से मैं अपने फ़ॉलोअर्स, फ़ैन्स और पूरे देश से अपील करना चाहूँगा कि आचार्यज़ी को सपोर्ट करें…उनके राइट हैंड…सॉरी…उनकी राइट हैंड ‘मंथरा’ जी को सपोर्ट करें। एक मर्द के शरीर में जन्म लेने वाली मंथरा ने इस पुरुष प्रधान समाज को उसकी औक़ात दिखाते हुए अपने अंदर के नारी स्वरूप को स्वीकारा है…आज इंडिया में ‘एल.जी.बी.टी.क्यूक्वीन’ के रूप में सोशलिस्ट्स एंड इंटेलेक्चूअल्स के बीच मंथरा जी का नाम बहुत आदर और सम्मान से लिया जाता है। उनका आचार्यजी के साथ खड़ा होना ये संदेश देता है कि आचार्य ज़ी निमित्त कालांत्री जैसे रूढ़िवादी और दक़ियानूसी विचारधारा के पाखंडियों का बहिष्कार कर के नए समय और देश के युवाओ ं के साथ चलने वाले हैं और उनका मार्गदर्शन करने वाले हैं। साथ ही मेरे माध्यम से मंथरा ज़ी ने आप सभी से ये अपील की है कि निमित्त कालांत्री जैसी समाज की गंदगी का खुलेआम बहिष्कार करें, ये जहां कहीं भी छुपा बैठा हो, इसका घिनौना चेहरा दुनिया के सामने लाने में हमारी मदद करें,”
वीडियो ख़त्म हुआ। मल्हार ने होंठों के बीच दबी सिगरेट ऐश-ट्रे में झोंकी और फ़ोन पर एक नम्बर डायल किया। दूसरी तरफ़ कुछ देर रिंग जाती रही फिर कॉल पिक हुआ।
“हेल्लो..”
“निमित्त कालांत्री का अता-पता ढूँढ रहे हो? वो गोवा में छुपा बैठा है…मोल्लेम में,”
“आगे बढ़ने से पहले एक गम्भीर मुद्दे पर चर्चा…जो हमें ऐसे तो शुरुआत में ही कर लेनी चाहिए थी पर नहीं हुई, अब कर लेनी चाहिए,”
गिरीश बाबू अपनी सिंहासन जैसी एग्ज़ेक्यूटिव चेयर के हेड-रेस्ट पर सिर टिकाते हुए गम्भीरता पूर्वक बोले।
निमित्त मुस्कुराया।
“मैं सोच ही रहा था कि ‘नेता जी’ ने अब तक पैसे की बात क्यों नहीं की,”
“यानी वास्तव में लोगों के विचार पढ़ते हो,”
“लोगों को पढ़ता हूँ,” निमित्त भावहीन स्वर में बोला।
“पर मैं नहीं पढ़ता। इसीलिए साफ़-सीधी बात करने की आदत है मुझे,”
“फिर भी इतने सफल नेता हैं…कमाल की बात है,” इस बार निमित्त ने चुटकी लेते हुए कहा।
उसके व्यंग पर गिरीश बाबू ने कोई तवज्जो ना दी
“इरा होश में आ गयी है…बिल्कुल ठीक-ठाक, हंसती-खेलती…पहले के जैसी। हमें जो चाहिए था वो मिल गया। तुमने अपना काम पूरा किया। अब उस काम का जो भी पारिश्रमिक तुम्हें सही लगता है वो बोलो। तुम जितना माँगोगे उतना मिल जाएगा तुम्हें…बल्कि उससे ज़्यादा ही मिलेगा। पर अब ये क़िस्सा ख़त्म चाहिए मुझे,”
निमित्त हवा में हिसाब लगाने की ऐक्टिंग करने लगा। कभी वो उँगलियों पर कुछ जोड़-घटाना करता तो कभी हवा में बुदबुदाते हुए उंगलियाँ नचाता जैसे कोई बहुत ही जटिल मैथ्स इक्वेशन सॉल्व करने की कोशिश कर रहा हो। गिरीश बाबू धैर्यपूर्वक उसका ये गिमिक ख़त्म होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। आख़िरकार उसने सिर झटकारा, अपने कंधे उचकाए जो माथे से पसीना (जो कि एक बूँद भी ना था) पोंछने की ऐक्टिंग करते हुए बोला,
“बाबा रे…मुझसे तो नहीं हो रही इतनी कठिन कैल्क्युलेशन। आप ही बता दीजिए, कितनी क़ीमत आंकते हैं आप अपनी बेटी की जान की,”
गिरीश बाबू का चेहरा क्रोध और अपमान से सुर्ख़ हुआ,
“कालांत्री! तमीज़ से बात करो,”
निमित्त इत्मिनान से मुस्कुराया,
“उसके लिए तमीज़ से कहिए उसे खुद आकर मुझसे बात करनी पड़ेगी…वो क्या है ना, मैं थोड़ा शर्मीला हूँ…थोड़ा शाई टाइप…खुद से जा के लेडीज़ लोग से बात नहीं करता,”
गिरीश बाबू दांत पीस कर रह गए। उन्हें समझ ना आया कि आगे क्या बोलें
निमित्त पूर्ववत मुस्कुराते हुए बोला,
“मैं आपको एक क़िस्सा सुनाता हूँ। मैं बचपन से ही गणित में काफ़ी कमजोर था। मेरी माँ अक्सर मुझे लेकर चिंता करतीं। कहती थीं कि तू भोले का भोला ही रह जाएगा। अगर हिसाब-किताब नहीं सीखेगा तो कैसे कटेगी तेरी ज़िंदगी? जब बड़ा हुआ तब एहसास हुआ कि माँ की ज़्यादातर बातों की तरह ये बात भी बिल्कुल सही थी। ये लेन-देन, हिसाब-किताब, नफ़ा-नुक़सान, पैसे-कौड़ी के चक्करों में ना मन रमता और ना ही ये मेरे पल्ले पड़ते, लेकिन बंदे का गणित कमजोर था, दिमाग़ नहीं…कभी घमंड नहीं किया वैसे। हाँ, तो मैंने सफ़ेद मूँछों वाले चाचा चौधरी के कम्प्यूटर से तेज़ अपना दिमाग़ लगाया। मेरी माँ के हिसाब से मैं भोला…और मेरे हिसाब से तो ब्रह्मांड में सिर्फ़ एक ही ‘भोले’ हैं,”
निमित्त ने उँगली से ऊपर की तरफ़ इशारा किया,
“मैंने बोला, हे भोले भंडारी! आप तो पूरे संसार का लेखा-जोखा, व्यवस्था देख लेते हैं, मुझे मूरख का भी देख लो। जैसे रखोगे रह लूँगा, कभी शिकायत नहीं करूँगा। भोले तो भोले हैं, उन्होंने मेरी सुन ली। उस दिन के बाद से इस संसार में निमित्त कालांत्री की सांसारिक व्यवस्था भोले के भरोसे चलती है। ज़रूरत से ज़्यादा मैंने कभी कुछ माँग नहीं और मेरी आवश्यकता से कम कभी भोले ने पड़ने नहीं दिया,”
गिरीश बाबू अब मुँह बाये हुए निमित्त को देख रहे थे।
“जितनी मेरी आवश्यकता है और जितना भोले को लगता है कि मैं डिज़र्व करता हूँ उतने की व्यवस्था वो कर देते हैं। भोले हर किसी को उसकी ज़रूरत अनुसार ही देते हैं…आपकी ज़रूरत ज़्यादा है, तो आपको ज़्यादा दिया है,” निमित्त ने चारों ओर नज़रें घुमाते हुए कहा।
उसने पहले अपनी उँगली ऊपर की तरफ़ पॉइंट की, “जब देने वाला दाता ही मेरा है…”, फिर गिरीश बाबू की तरफ़ करते हुए बोला, “…तो मैं ‘दीन’ से क्या माँगूँ?"
गिरीश बाबू की आवाज़ थोड़ी विनम्र हुई,
“माफ़ी चाहता हूँ निमित्त…मेरे बात रखने का तरीक़ा शायद ग़लत था, मेरा इरादा नहीं। तुम मेरी पोज़िशन समझने की कोशिश करो…”
“बेटी के होश में आते ही पिता की पोज़िशन बैकसीट लिए पॉलिटीशियन ने टेक-ओवर कर ली है। आप एक बड़ी राइट विंगर पार्टी के प्रॉमिनेंट लीडर हैं। ऑपज़िशन और लेफ़्ट विंगर्स आपको घेरने का मौक़ा ढूँढते रहते हैं। पिछले कई सालों की मेहनत से फ़ाइनली आप अपनी ‘धर्म निरपेक्ष’ इमेज बना पाए हैं, ऐसे में खुद आपके घर में एक एक तांत्रिक-ओझा का होना, वो भी जिस पर आपराधिक मामले दर्ज हों, ये बात आपके विरोधियों को आपको घेरने का बेहतरीन मुद्दा दे देगी,”
“वाक़ई तुम्हारा दिमाग़ हर पहलू पर सोचता है कालांत्री। लेकिन ये डर सिर्फ़ एक पॉलिटीशियन का नहीं है, एक पिता का भी है। ऑपज़िशन और मीडिया को अगर तुम्हारे यहाँ होने की भनक लग गयी तो वो कारण भी ढूँढने की कोशिश करेंगे…और मैं इरा का नाम इसमें नहीं घसीटना चाहता,”
“मेक्स सेन्स…बट…मेरे यहाँ से चले जाने से इरा की दुश्वारियाँ नहीं चली जाएँगी,” निमित्त गम्भीर होते हुए बोला।
उसने वुडन बॉक्स गिरीश बाबू के सामने टेबल पर रखा,
“आपको पता है ये वुडन बॉक्स वास्तव में क्या है?”
गिरीश बाबू ने उत्तर देने के बजाय प्रश्नवाचक नज़रों से निमित्त को देखा।
“यह एक डिब्बक बॉक्स है,”
“डिब्बक?”
“यहूदियों द्वारा प्रयोग में लाया जाने वाला डिब्बक/डिब्बूक बॉक्स एक लकड़ी का प्राचीन वाइन कैबिनेट होता है,”
“ये वाइन रखने के लिए है?”
“नहीं, अतृप्त आत्मा यानी डिब्बक को रखने के लिए,”
“पर अभी तो तुमने बोला कि डिब्बक/डिब्बूक प्राचीन वाइन कैबिनेट होता है,”
“ना! मैंने कहा कि डिब्बक/डिब्बूक ‘बॉक्स’ वाइन कैबिनेट होता है। डिब्बक के बारे में सही तौर पर कम ही लोग जानते हैं, इसके बारे में अधिकतर लोगों की जानकारी मलयालम हॉरर फ़िल्म ‘एज़्रा’ या उसके हिंदी रीमेक ‘डिब्बक’ तक ही सीमित है लेकिन उसमें एक बड़ा नुक़्स है। ‘डिब्बक’ सुनने में हिंदी के शब्द ‘डिब्बे’ सा ज़रूर साउंड करता है लेकिन वास्तव में इसका ओरिजिन हीब्रू के शब्द ‘डावक' से है जिसका मतलब है 'पैरासिटिक पोज़ेशन’, यानी डिब्बक का मतलब ये लकड़ी का बॉक्स नहीं बल्कि उसमें बंद ऊर्जा है,”
गिरीश बाबू के माथे पर बल पड़े।
“सोलहवीं शताब्दी के काबलिस्ट रैबाई आइज़ैक लूरीआ व उनके समकालीन सूफ़ियों ने इसपर तफ़सील से लिखा है। यहूदियों में ‘गिलगुल’ का अर्थ होता है पुनर्जन्म, इब्बर या इब्बूर वो सद-आत्माएँ होती हैं जिन्हें पुनर्जन्म तो नहीं मिलता लेकिन वो किसी का “पोज़ेशन” या तो उस व्यक्ति की भलाई, या फिर किसी अधूरे रह गए भले कार्य को पूरा करने के लिए करती हैं जबकि इनसे ठीक विपरीत डिब्बक वो अतृप्त आत्मा होती है जिसके पापों के कारण उसे मुक्ति ना मिली हो। अनरेज़ॉल्वड ट्रॉमा, जघन्य पाप कर्म और अधूरे कार्मिक साइकल उस आत्मा को बेहद उग्र और उद्दंड बनाते हैं। ये ‘साइकिक पैरासाइट’ डिब्बक बॉक्स के माध्यम से उन लोगों को अपना होस्ट बनाती है जो इमोशनली, मेंटली या स्पिरिचूअली कमजोर या बीमार हों…या फिर बच्चे…जो अब तक अपने दिमाग़, अपने सब-कॉंशियस और कॉंशियस में संतुलन नहीं बना पाए हैं। एक लड़की के लिए प्यूबर्टी, उसकी फ़र्स्ट मेन्स्ट्रूअल साइकल ऐसा ही समय होता है जब शरीर और मन में हो रहे परिवर्तन का तारतम्य चेतन और अवचेतन मस्तिष्क से सही ढंग से नहीं बैठता,”
निमित्त के अंतिम वाक्य पर गिरीश बाबू ने असहजता से पहलू बदला।
“अब आते हैं इस बात के दूसरे पहलू पर,” निमित्त चेयर पर पीछे टिक कर बैठ गया। उसने अपने चीर-परिचित अन्दाज़ में, एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ाया, दोनों कुहनियाँ चेयर के आर्म रेस्ट से टिका लीं और उँगलियों के पोरों को जोड़ते हुए हाकिनी मुद्रा बनाई।
“इरा के सब-कॉंशियस के जिस हिस्से हो मैंने ब्लॉक किया है वहाँ ‘इन्फ़ेस्टेड मेमरी’ है। ये इन्फ़ेस्टेड मेमरी ही डिब्बक का सोर्स है जो इस डिब्बक बॉक्स में बंद वूडू-डॉल के ज़रिए इरा तक पहुँचाई गई है,”
“इन्फ़ेस्टेड मेमरी?”
“ह्यूमन मेमरी को कई कैटेगॉरीज़ में बाँटा जा सकता है। जैसे, अक्वायर्ड मेमरी, एक्स्पीरीयन्स्ड मेमरी, इमोशन, सोमैटिक, ऐन्सेस्ट्रल, कार्मिक या सोल मेमरी, इत्यादि-इत्यादि…लेकिन ये सभी मेमरीज़ व्यक्ति की अपनी होती हैं, चाहे इस जन्म की या अपने पिछले जन्मों की, पर इन्फ़ेस्टेड मेमरी किसी दूसरे व्यक्ति की एक्स्पीरीयन्स की हुई मेमरी होती है जिसे जबरन होस्ट के सब-कॉंशियस में ‘प्लांट’ किया जाता है,”
“क्या है उस इन्फ़ेस्टेड मेमरी में जो इरा के सब-कॉंशियस में प्लांट की गई है?”
गिरीश बाबू के सवाल के जवाब में निमित्त ने जो कुछ भी इरा के सब-कॉंशियस में जाने पर देखा था वो बताता चला गया। सारी बात सुन कर गिरीश बाबू ने अपना सिर पकड़ लिया।
“यहाँ आते समय सुभद्रा ने मुझे मेरे आने से पहले घाटी घटनाओं के बारे में डिटेल में बताया था, इस घर में रहने वाले एक-एक सदस्य, नौकरों और कर्मचारियों इत्यादि के बारे में भी जितनी जानकारी दी जा सकती थी, सब कुछ। जब इरा के साथ वो “पोज़ेशन एपिसोड” हुआ था उस समय आपने तेरह साल पहले के किसी श्राप का ज़िक्र किया था। इरा को “पज़ेस” करने वाले “साइकिक पैरासाइट” ने भी कहा था कि उसने तेरह साल इस पल की प्रतीक्षा की है। इससे यह पता चलता है कि आपको पूरा-पूरा अंदाज़ा है कि यह डिब्बक किसका है,” निमित्त ने इत्मिनान से अपनी बात ख़त्म करते हुए प्रश्नवाचक नज़रों से गिरीश बाबू की तरफ़ देखा।
गिरीश बाबू ने नज़रें फेर लीं। निमित्त ने इस पर कोई प्रतिक्रिया ना दी। वो पूर्ववत गिरीश बाबू को अपलक देखता रहा। कुछ देर तक दोनों के बीच एक बोझिल सन्नाटा व्याप्त रहा, उसके बाद गिरीश बाबू बोले,
“तुमने “त्रियो-किलर” के बारे में सुना है?”
“मुझे लगा “त्रियो-किलर” मात्र एक “बैकवुड मिथ” है,”
“हुँह…”बैकवुड मिथ”! मोल्लेम जैसे रिमोट गाँव-क़स्बों, जो जंगल से घिरे हों, उनमें होने वाली भयावह घटनाओं के लिए एक “फ़ैन्सी” शहरी टर्म,” गिरीश बाबू विषादपूर्ण ढंग से बोले।
“तेरह साल पहले गोवा से लगे वेस्टर्न घाट्स के जंगलों और आस-पास के क्षेत्र से टीनएज बच्चियों के ग़ायब होने की खबर आई थी। ग़ायब हुई हर बच्ची की उम्र तेरह साल थी। हर महीने एक तेरह साल की बच्ची रहस्यमयी तरीक़े से इन इलाक़ों से ग़ायब हो जाती। पुलिस, सी.बी.आई., सी.आई.डी व अन्य सरकारी एजेन्सीज़ भी इन बच्चियों का सुराग लगाने में नाकाम हुई थीं। बच्चियों के ग़ायब होने का ये सिलसिला लगभग एक साल तक चला था। इंटरनेट और मीडिया ने ऐसी थ्योरी सर्क्यूलेट करनी शुरू की कि यह किसी साइकोपैथ सीरीयल किलर का काम है। मीडिया ने उसे नाम दिया “त्रियो-किलर” हालाँकि कभी भी इसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई, ना ही गुमशुदा हुई बच्चियों में से किसी के भी शव बरामद हुए। फिर हर महीने बच्चियों का ग़ायब होना जैसे अचानक शुरू हुआ था वैसे ही अचानक बंद भी हो गया और न्यूज़ या “त्रियो-किलर” थ्योरी पर इंटरनेट पोस्ट्स आना भी बंद हो गयीं। कभी पता नहीं चल पाया कि वास्तव में उन ग़ायब हुई बच्चियों के साथ क्या हुआ, ना ही ये पता चल पाया कि वास्तव में कोई त्रियो-किलर है भी या नहीं,” निमित्त उस पूरी घटना को रिकॉल करते हुए बोला।
गिरीश बाबू ने अपनी चेयर पर आगे झुकते हुए अपनी कुहनियाँ टेबल से टिकाईं।
“बारह बच्चियाँ ग़ायब हुई थीं कालांत्री। हर बच्ची तेरह साल की। उनके परिवार कभी जान नहीं पाए कि उनकी बच्चियों के साथ क्या हुआ। बस अपने भय और दर्द में वो सिर्फ़ यही कामना करते रहे कि या तो उनकी बच्चियाँ सही-सलामत मिल जाएँ या फिर उन बच्चियों को सुकून की मौत नसीब हुई हो…क्योंकि इन दोनों बातों के बीच जो कुछ भी आता है वो किसी बच्ची के घर वालों के सबसे भयानक दुस्वप्न से भी अधिक भयावह है,”
गिरीश बाबू की आवाज़ ही नहीं उनके जिस्म में भी भावनात्मक आवेग से उत्पन्न होते कम्पन निमित्त साफ़ तौर पर महसूस कर रहा था।
“तेरह साल की छोटी बच्चियाँ कालांत्री…मेरी इरा आज तेरह साल की है और भगवान जानता है कि मेरे जीवन को कोई एक दिन नहीं गुजरा जब उन मासूम बच्चियों को याद कर के मेरा दिल ना डूबा हो कि कहीं अगर मेरी इरा के साथ ऐसा कुछ हुआ तो…नहीं…नहीं…मेरी इरा को कुछ होने से पहले मैं दुनिया को जला कर ख़ाक कर दूँगा,”
“समरथ को नहीं दोष गोसाईं,” निमित्त शांत भाव से बोला।
“यही सही, इस नाते भी मेरा दायित्व बनता था कि उन बच्चियों के अपराधी को दंड दूँ,” गिरीश बाबू ज़िद भरे स्वर में बोले।
“हम्म…वास्तव में क्या हुआ था?”
“उसका नाम कापालिक नीलजेबूब था। ओझा, तांत्रिक, काला जादू करने वाला कापालिक था वो जो वेस्टर्न घाट्स के घने जंगलों में घूमता रहता था। मोल्लेम के लोग भय खाते थे कापालिक नीलजेबूब के नाम से। कभी-कभी वो महीनों, सालों तक नज़र नहीं आता, लोगों का मानना था कि वो काली शक्तियों की सिद्धि के लिए जंगल में कहीं अघोर साधना करता है। फिर वो एकाएक प्रेत के जैसे प्रकट होता। उसके आते ही मोल्लेम में कोई ना कोई घोर अपशकुन होता..महामारी और त्रासदी आती और फिर नीलजेबूब ग़ायब हो जाता। ऐसा लगता था जैसे अपनी काली शक्तियों और प्राप्त की हुई सिद्धियों का मोल्लेम के लोगों पर परीक्षण करने ही आया है वो,”
“नीलजेबूब। नाम तो यहूदी है। कापालिक है यानी आधा यहूदी और आधा हिंदुस्तानी हो सकता है,” निमित्त जैसे खुद में बड़बड़ाया या फिर स्कैली से बात करते हुए। फिर गिरीश बाबू से मुख़ातिब हुआ, “आप कंटिन्यू कीजिए,”
“नीलजेबूब को नज़र आए सालों बीत गए थे। मोल्लेम के लोग निश्चिंत होने लगे थे कि शायद इस बला से आख़िरकार उन्हें छुटकारा मिल गया, लेकिन तेरह साल पहले नीलजेबूब फिर एकाएक नज़र आया। पहली बच्ची के ग़ायब होने से एक-दो दिन पहले। और फिर हर महीने, लगातार, बच्चियों के ग़ायब होने के समय और जगह के आस-पास नीलजेबूब को देखा गया। लोगों ने उसे पकड़ने की कोशिश की…पर वो तो जैसे इंसान नहीं कोई छलावा था। किसी के हाथ आने से पहले ही वो जंगलों में ग़ायब हो जाता,”
“पुलिस ने कार्यवाही नहीं की?”
“कार्यवाही करने के लिए ख़ास कुछ था नहीं। कोई सबूत नहीं थे जो नीलजेबूब के विरुद्ध पुख़्ता केस बनाते। सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि नीलजेबूब का कोई पता-ठिकाना ना मिल रहा था। पुलिस की लाख कोशिशों के बाद भी वो उनके हाथ नहीं आया,”
“फिर?”
“फिर मैंने मुंबई से ख़ास तौर पर इस केस को हैंडल करने के लिए इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे को बुलाया,”
“एंकाउंटर स्पेशलिस्ट इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे? जिसे पुलिस डिपार्टमेंट और मीडिया इंस्पेक्टर ‘चीता’ बुलाते हैं?”
“ऐन वही। जिस तरह चीता एक बार अपने शिकार के पीछे पड़ जाए तो उसका शिकार कर के ही दम लेता है उसी तरह एक बार इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे उर्फ़ चीता अगर किसी अपराधी के पीछे पड़ जाए तो समझो उसका ‘केस क्लोज़’ कर के ही दम लेगा,”
“तो इस इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे…चीता ने नीलजेबूब को ढूँढ निकाला?”
“ना सिर्फ़ ढूँढ निकाला बल्कि उस राक्षस…उस दरिंदे, जानवर को उसके सही अंजाम तक भी पहुँचाया,”
निमित्त सोच में पड़ गया।
“इंस्पेक्टर ने अपनी स्पेशल थर्ड-डिग्री के ऐसे दांव-पेंच उस कापालिक पर आज़माए कि उसके शरीर ने प्राण त्याग दिए। बस अफ़सोस इस बात का है कि मरने से पहले नीलजेबूब ने ये ना क़बूला कि उसने उन बारह बच्चियों के साथ क्या किया,” गिरीश बाबू ने आगे कहा।
“लेकिन इस हिसाब से तो अगर ये डिब्बक नीलजेबूब का है तो उसे आपसे पहले इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे से बदला लेना चाहिए। आख़िरकार उसने नीलजेबूब की जान ली,”
“हमारे कहने पर ली, हमारे हुक्म की तामील करते हुए ली,”
“और इस बात का इल्म नीलजेबूब को था?”
“बिल्कुल! बक़ौल इंस्पेक्टर चिरंजीवी, उस कापालिक के अपने प्राण त्यागने से पहले के अंतिम अल्फ़ाज़ यही थे कि वो मुझे और मेरे वंश को श्राप देता है कि उसकी मौत का बदला मेरा वंश अपने लहू से चुकाएगा। ख़ून याद रखता है, बदला भी,”
“हुम्म…” निमित्त ने गहरी हुंकार भारी और गिरीश बाबू की ओर देखा।
“और सबसे बड़ा सबूत खुद अपने आप में यह तथ्य है कि उस कापालिक के मारे जाने के साथ ही बच्चियों का ग़ायब होना बंद हो गया। अगर वो त्रियो-किलर नहीं होता तो उसकी मौत पर यह सिलसिला ना रुकता,”
“कापालिक की लाश का क्या हुआ?”
“चीता ने ठिकाने लगा दी, कहाँ ये सिर्फ़ वही जानता है। हमने पूछा नहीं क्योंकि जानने में हमारी कोई दिलचस्पी ना थी। हमारी हिदायत सिर्फ़ इतनी थी कि वो कभी मिलना नहीं चाहिए…और वो नहीं मिला,”
“द एम्परर,” निमित्त बोला, “जो टैरो कार्ड आपने आपने लिए चुना, दिखाता है उस रूढ़िवादी, सख़्त, अनुशासक प्रजा पालक को जो पिता समान है। जैसे एक पिता अपने परिवार की रक्षा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, उसके लिए सही और ग़लत के कोई मायने नहीं रह जाते वैसे ही एक प्रजा पालक अपनी प्रजा की रक्षा के लिए सही और ग़लत की परिधि से परे जा कर निर्णय लेता है…दंड देता है,” इस बार निमित्त के लहजे में जेन्यूइन अप्रीशीएशन था।
“तुम्हारी वो ‘सूर्यवंशम की ज़हर वाली खीर’ वाली बात ओवर स्टेट्मेंट थी। हमारी फ़ैमिली और मोल्लेम के लोग, सभी हमसे दिली मुहब्बत रखते हैं। हाँ, हम मानते हैं हमारे फ़ैसले कठोर और आचरण सख़्त है पर हम जो करते हैं सबकी भलाई सोच के करते हैं,”
“और ये बात हमें लाती है इस केस के तीसरे और सबसे अहम पहलू पर,” निमित्त डिब्बक बॉक्स खोलते हुए बोला। अंदर से सड़ते रक्त की तीखी दुर्गंध उठी। निमित्त पर जैसे उस दुर्गंध का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था, जैसे वो उसका आदि हो। उसने सैनिटेरी पैड और कॉटन अंडरगार्मेंट से बनाई हुई वूडू डॉल निकाल कर अपने हाथ में ले ली,
“डिब्बक को बॉक्स के अंदर लाने, ब्लड स्टेंड अंडरवियर और सैनिटेरी पैड चुरा कर उसे ब्लैक मैजिक से वूडू डॉल बनाने और डिब्बक बॉक्स को इरा के रूम तक पहुँचाने का काम करने वाला कोई भूत-प्रेत, चुड़ैल, पिशाच, आत्मा नहीं बल्कि जीता-जागता इंसान है,”
“कौन?”
“यही तो पता लगाना है,” निमित्त ने हाथ में थमी वूडू गुड़िया का उलट-पलट कर मुआयना करते हुए कहा।
“पर ये कैसे हो सकता है? इरा को पहली बार मेन्सेस हुए हैं ये बात या तो सिर्फ़ इरा जानती थी या सुभद्रा। मुझे भी इस बारे में नहीं पता था तो किसी और को पता होने का सवाल ही पैदा नहीं होता,”
“इस सवाल का जवाब है मेरे पास,” निमित्त इत्मिनान से बोला।
“सुभद्रा इरा से एक माँ के जैसे प्यार तो करती है लेकिन उसमें एक नैचरल मदर्स इन्स्टिंक्ट नहीं है। जिस माँ की बच्ची टीन्स में प्रवेश करने पर हो वो पहले से बच्ची को मेन्सेस के बारे में बताती है, फ़र्स्ट यूज़ के लिए पहले ही सैनिटेरी पैड का इंतज़ाम कर के रखती है। पर सुभद्रा को ये एक्स्पिरीयन्स नहीं है। उसके लिए इरा अब भी बच्ची है। इसीलिए जब एक दिन अचानक से इरा ने पहली बार ब्लीड किया तो उससे इरा और सुभद्रा दोनों बुरी तरह घबरा गए। सुभद्रा और इरा के बॉडी शेप में स्वाभाविक तौर पर बड़ा अंतर है। इस पैड को देखिए, इरा ने हेविली ब्लीड किया था और सुभद्रा का सैनिटेरी नैप्किन इरा को फिट नहीं आता,”
निमित्त की बात से गिरीश बाबू बुरी तरह असहज और विचलित हुए।
“इ…इतना डिटेल में जाने की ज़रूरत नहीं है कालांत्री, सीधे मुद्दे पर आओ,”
निमित्त मुस्कुराया, “ज़रूरत है गिरीश बाबू। सबसे पहले तो बच्चियों के लिए उनके मेन्सेस कोई हौवा या शर्म की बात नहीं है ये एहसास कराए जाने की ज़रूरत है। बाक़ी शारीरिक प्रक्रियाओं की तरह यह भी एक सहज प्रक्रिया है जिस पर खुल कर बात होनी चाहिए ताकि बच्चियाँ असहज ना हों, शर्मिंदगी और झेंप ना महसूस करें। हाँ मैं मानता हूँ कि स्यूडो फ़ेमिनिस्ट्स की तरह सोशल मीडिया पर अपने पीरियड्स फ़्लॉंट और सेलिब्रेट करने का भौंडापन सरासर बहूदगी है लेकिन परिवार के अंदर हर व्यक्ति का दायित्व है कि बच्चियों के लिए ये झेंप और शर्मिंदगी का सबब ना बने,”
गिरीश बाबू का सिर स्वतः ही सहमति में हिला।
“मेरी थ्योरी है कि या तो इरा के पीरियड आने पर उसे खुद को साफ़ करने का बोल कर उसके लिए उसके हिसाब के सैनिटेरी पैड लेने सुभद्रा खुद आनन-फ़ानन मार्केट भागी या फिर उसने किसी ऐसे इंसान को भेजा जो विश्वासपात्र हो। जितना मैं सुभद्रा को समझता हूँ, वो ये काम किसी दाई-नौकर से नहीं करवाएगी, किसी पुरुष से भी नहीं, उसकी वजह झेंप भी है और यह फ़ैक्ट भी कि इरा की ज़रूरत का अंदाज़ा कोई पुरुष नहीं लगा सकता, इसीलिए मुझे लगता है वो खुद ही मार्केट गई। हड़बड़ाई सुभद्रा का असमय मार्केट जाना, इरा का रूम में बंद होना, फिर सुभद्रा के वापस आते ही इरा का नहा कर ड्रेस चेंज होना। इतनी बातें उस शख़्स के लिए काफ़ी थीं यह जानने को कि इरा पहली बार ब्लीड कर चुकी है। अब उसको सिर्फ़ गार्बेज से यूज़्ड पैड और अंडरवेयर उठाना था,”
“पर है कौन वो शख़्स?”
“आपके करीबी और विश्वासपात्रों में से कोई एक। पिछले तेरह सालों में…उस नीलजेबूब के मरने के बाद इस कोठी में सुभद्रा के अतिरिक्त और कौन कौन आया है…आय मीन स्टाफ़, नौकर-चाकर?”
“कोई भी नहीं। यहाँ जितने भी स्टाफ़ हैं वो पीढ़ियों से काम कर रहे हैं, जो नए हैं वो भी कम से कम पिछले पच्चीस-तीस सालों से,” गिरीश बाबू इनकार में सिर हिलाते हुए बोले।
“मेरी थ्योरी के अनुसार यह दो या दो से ज़्यादा लोगों का काम है। पहला लो-लेवल ऑपरेटर है, जिसने इरा के मेन्सेस की जासूसी की और फिर वूडू डॉल बनाने का सामान हासिल किया और दूसरा वो है जो पर्दे के पीछे से खेल रहा है, आपके बेहद करीबी और विश्वासपात्रों में से कोई, जिसने इस लो-लेवल ऑपरेटर को ऐक्सेस दिया है,” निमित्त ने अपने होल्स्टर से अपना ख़ास सिल्वर कॉइन निकाल लिया था जिसे वो फ़िलहाल अपनी उँगलियों के बीच नचा रहा था। ऐसा वो तब करता था जब कुछ सोचने में अधिक दिमाग़ लगा रहा हो।
“ऐसा तो कोई भी नहीं है,” गिरीश बाबू ने दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कहा।
“डॉक्टर थापा और अपने चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम के बारे में आपका क्या विचार है?”
“सवाल ही पैदा नहीं होता,” गिरीश बाबू उसकी बात का पुरज़ोर खंडन करते हुए बोले, “डॉक्टर थापा बीस साल पहले मेरे साथ नेपाल से यहाँ आए थे। बीस वर्ष पूर्व नेपाल के राजनीतिक दौरे पर हमारी मुलाक़ात डॉक्टर थापा से हुई थी। उस समय डॉक्टर थापा वहाँ के राजा मानवेंद्र के निजी चिकित्सक थे। उस समय हमारी पहली पत्नी…मल्हार की माँ रंजना की तबियत पहली बार ख़राब होना शुरू हुई। उपचार डॉक्टर थापा ने ही किया था। उनके साथ जल्द ही एक मित्र सा सम्बंध बन गया, जब हम नेपाल से वापस आए तो डॉक्टर थापा भी हमारे बुलाने पर हमारे साथ चले आए और हमेशा के लिए यहीं के हो कर रह गए। थापा सिर्फ़ हमारे फ़ैमिली डॉक्टर नहीं, हमारे सबसे करीबी और अज़ीज़ दोस्त हैं,”
“और चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर कदम?”
“कदम का और हमारा साथ और पुराना है कालांत्री। लगभग पच्चीस साल पहले की बात है, कदम कमांडो ट्रेनिंग लेकर निकला ही था और हमारा बॉडीगार्ड था। हमारे सबसे बड़े विरोधी, ऑपज़िशन लीडर नागफन भंडारकर ने किराए के किलर हायर कर के हम पर गोलियाँ चलवाई। हमारे और गोलियों के बीच कदम दीवार बन कर खड़ा हो गया था। दस गोलियाँ खायी थी उसने। चार पीठ, दो कंधे, तीन पैरों और एक लगभग सिर को छूते गुजरी थी, फिर भी कदम ढाल बन कर खड़ा रहा। पूरे छे महीने लगे उसे अपने पैरों पर खड़ा होने में और खड़ा होते ही वो वापस हथियार उठा कर हमारे बग़ल में आ खड़ा हुआ। आगे कई मौक़ों पर कदम ने हमारे लिए अपनी जान दांव पर लगाई है। तुम दौलत की बात करते हो कालांत्री, मुझे लगता है मैं इतना सौभाग्यशाली हूँ कि महादेव ने मुझे जीवन में डॉक्टर थापा, कदम, सुभद्रा जैसे लोग नियामत की तरह बक्शे हैं,”
“और मल्हार? अपने बेटे के बारे में क्या सोचते हैं आप? देख कर पता चलता है कि वो इरा से चिढ़ रखता है,”
“मल्हार पूरी दुनिया से चिढ़ रखता है लेकिन चिढ़ रखना और नफ़रत करना दो अलग बातें हैं,”
“इसकी वजह इरा का आपकी दूसरी पत्नी की संतान होना है?”
“मल्हार बहुत छोटा था जब हमने उसे पढ़ाई के लिए बोर्डिंग स्कूल भेज दिया था। अपनी माँ रंजना से कभी मल्हार को वो ‘मातृत्व’ वाले प्रेम का सुख नहीं मिला और ना ही हमसे एक पिता-पुत्र का परस्पर सम्बंध और भावनात्मक जुड़ाव। इस अभाव ने मल्हार के भीतर बचपन से ही एक हीन भावना, एक कुंठा को जन्म दे दिया। जब रंजना को लास्ट स्टेज कैन्सर डाइग्नोज़ हुआ तब मल्हार तेरह-चौदह साल का था। रंजना के जाने के बाद हमने मल्हार को अपने पास बुला तो लिया पर हमें यह एहसास हुआ कि आत्मिक रूप से हमारा बेटा हमसे शायद इतना दूर हो चुका है कि वो फ़ासला तय करने में उम्र गुज़र जाएगी,”
“हुम्म…फिर,”
“इस दौरान हमारे जीवन में इरा की माँ इंदू आई। इंदू के रूप में मल्हार को वो मातृत्व मिला जो अपनी माँ रंजना से नहीं मिला था। हमने जीवन में पहली बार मल्हार को खुश देखा, सोलह साल का मल्हार पूरे दिन इंदू के आगे-पीछे ‘इंदू माँ-इंदू माँ’ करते हुए किसी छोटे बच्चे की तरह डोलता रहता, उससे फ़रमाइशें करता। इंदू ने अपने प्रेम से मल्हार के मन पर मरहम लगा दी थी जिसने मेरे और मल्हार के रिश्तों के घाव भी भर दिए। सब ठीक था, फिर इंदू प्रेगनेंट हुई। मल्हार अपने छोटे भाई/बहन के आने को लेकर बहुत एक्सायटेड था। इरा के होने के बाद तो वो उसे गोद से नीचे ही नहीं रखता था…फिर धीरे-धीरे इंदू इरा में व्यस्त होती चली गई, मल्हार से यह नहीं लिया गया। उससे उसकी माँ एक बार फिर छिन रही थी। इससे पहले कि हम इस मुद्दे पर मल्हार से बात करते…वो मनहूस रात आयी जब इंदू की कार का ऐक्सिडेंट हुआ। ड्राइवर और इंदू दोनों की मौक़े पर ही मौत हो गई, ये ऊपर वाले का चमत्कार ही था कि नन्ही इरा सीट के निचले हिस्से में सुरक्षित रह गई। पता नहीं क्यों पर मल्हार ने इंदू की मौत के लिए इरा को ज़िम्मेदार मान लिया। उस दिन से मल्हार के दिल में हर चीज़ के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ आक्रोश है लेकिन हम अपनी औलाद को जानते हैं। वो सही ग़लत का फ़र्क़ समझता है,”
“जानते तो ख़ैर धृतराष्ट्र भी थे दुर्योधन को,” निमित्त ने तपाक से कहा।
गिरीश बाबू ने उसे खा जाने वाली नज़रों से घूरा जिस पर निमित्त ने लापरवाही से अपने कंधे उचकाए और फिर उँगलियों के बीच नचा रहे सिक्के को हवा में उछाल कर कैच करते हुए बोला,
“बहरहाल, अब आप सारी वस्तुस्थिति से अवगत हैं। इस वूडू डॉल में सात सुइयाँ हैं, यानी इरा पर सात बार अटैक होगा…अलग-अलग तरीक़ों से। हर आघात उसे पहले से अधिक कमजोर बनाएगा और आख़री आघात से पहले तक वो सिर्फ़ नाम मात्र को ही जीवित बची होगी। सात में से पहला अटैक हो चुका, उसका मैग्निट्यूड भी आप देख चुके हैं। हर अगले अटैक का लेवल पिछले वाले से बढ़ता जाएगा। अगर अब भी आप चाहते हैं की मैं यहाँ से चलता बनूँ तो बंदे को कहीं आने में उतनी ख़ुशी नहीं मिलती जितनी लोगों की ज़िंदगी और उनके घर से जाने में मिलती है,”
“तुम्हें यक़ीन है कि इसके पीछे कोई अंदर का इंसान है?”
“सौ फ़ीसदी!…और उसके साथ कोई ऐसा जो बाद में आया है…नीलजेबूब की मौत के बाद…या फिर अभी हाल-फ़िलहाल में एक-दो साल पहले। यह जो भी है मुझे इन्वेस्टिगेट करने और इरा पर किए गए ‘हेक्स’ की काट करने में समय लगेगा,”
“दिक़्क़त ये है कालांत्री कि यू आर कॉंट्रवर्सीज़ फ़ेवरेट चाइल्ड। तुम साँस भी लेते हो तो एक कॉंट्रवर्सी हो जाती है,”
“कभी घमंड नहीं किया,”
“घमंड मत करो..फ़िक्र करो। इसको मेरी हिदायत समझो…या चेतावनी, इरा की ख़ातिर मैं तुम्हें रुकने दे रहा हूँ लेकिन अगर तुम्हारी वजह से कोई बखेड़ा या हंगामा खड़ा हुआ या मीडिया में बात फैली तो मेरे पास तुम्हें दफ़ा करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता ना होगा,”
निमित्त ने माथे से दो उँगलियाँ लगा कर सैल्यूट के अन्दाज़ में गिरीश बाबू की बात अक्नॉलेज की।
“अब अगला कदम क्या है तुम्हारा,”
“अजी कदम मेरा कहाँ…कदम तो आपका है,” निमित्त इत्मिनान से बोला।
गिरीश बाबू ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देखा, वो उसकी बात ना समझ पाए।
“चीफ़ सिक्योरिटी ऑफ़िसर…कदम..वो तो आपका है,”
“कहीं भी शुरू हो जाते हो? अजीब इंसान हो तुम कालांत्री,” गिरीश बाबू खिज कर बोले।
“कभी घमंड नहीं किया,” निमित्त ने सिर नवाते हुए कहा और हवा के सिक्का उछाल कर कैच करते हुए टेबल पर पटका।
“हेड्स…क्वीन विक्टोरिया! मेरे ख़याल में हमें सुभद्रा को बुला कर बात करनी चाहिए। शायद आगे बढ़ने की लीड वहीं से मिलेगी,”
गिरीश बाबू ने सुभद्रा को कॉल कर के अंदर बुलाया। निमित्त ने फटाफट सुभद्रा को सारी बात और वस्तुस्थिति से अवगत कराया जिसके सुन कर सुभद्रा चिंतित भी थी और भौंचक भी।
“बाप रे! आपने तो इरा के फ़र्स्ट मेन्सेस का पूरा घटनाक्रम यूँ हूबहू बयान कर दिया जैसे आँखों देखा हो,” सुभद्रा अचरज और प्रशंसा के मिश्रित लहजे में बोली।
“लेकिन इसमें कोई कड़ी मिसिंग है, कुछ है जो मुझसे छूट रहा है। इसीलिए तुम्हें बुलाया है,”
“नहीं, सब कुछ आपने बिल्कुल सही बताया है…सिर्फ़ सैनिटेरी पैड लेने मैं खुद नहीं गई थी क्योंकि मुझे इरा को खुद को क्लीन करने में हेल्प करना था,”
“फिर कौन गया था?”
“मैंने इस काम के लिए पलक को भेजा था,” सुभद्रा सोचते हुए बोली।
“पलक? ये पलक कौन है? इसके बारे में क्यों नहीं पता मुझे?”
“इरा की टीचर है। इरा ऑन-लाइन स्कूलिंग कर रही है, जिसमें उसे गाइड और हेल्प करने के लिए पलक आती है,” सुभद्रा ऑब्वीयस टोन में बोली।
“इरा तेरह साल की है, अब पैदा होते ही तो पलक पढ़ाने आने नहीं लग गई होगी…कब से आ रही है?” निमित्त के अधरों पर अब तीखी मुस्कान नाच रही थी।
“पिछले दो साल से, उससे पहले इरा की पढ़ाई मैं ही देखती थी,”
निमित्त ने विजयी भाव से गिरीश बाबू को देखा,
“बिंगो! मिल गया वो शख़्स जो ना सिर्फ़ पिछले दो साल से यहाँ आ रहा है बल्कि जिसे इरा के पीरियड की फ़र्स्ट-हैंड इन्फ़र्मेशन भी थी,”
“क्योंकि उस समय पलक इरा को पढ़ा ही रही थी जब इरा को ब्लीडिंग स्टार्ट हुई। पलक ने ही आकर मुझे इन्फ़ॉर्म किया। मैं आनन-फ़ानन इरा के पास आई और सैनिटेरी पैड लाने के लिए पलक को मार्केट भेज दिया,”
“तुमने मुझे इस पालक के साग…आय मीन पलक के बारे में पहले क्यों नहीं बताया?”
“अरे आपने मुझसे इस कोठी के लोगों, फ़ैमिली मेम्बर्स और स्टाफ़ के बारे में पूछा था…पलक इनमें से नहीं आती…एक मिनट..” सुभद्रा एकाएक चौंकी, “आप कहीं ये तो यहीं सोच रहे कि इस सब के पीछे पलक है?”
“फ़िलहाल कोई मत नहीं बना रहा लेकिन सबसे स्ट्रॉंग कंटेंडरशिप उसी की है,” निमित्त कॉइन उँगलियों के बीच नचाता हुआ बोला।
“नो..नो..नो..नो…दैट्स नॉट पॉसिबल। आप पलक से मिले नहीं हैं इसलिए ऐसा सोच रहे हैं। पलक बहुत अच्छी लड़की है। अपनी माँ के साथ पास ही रहती है, बेचारी अपने कॉलेज एक्स्पेन्सेज़ उठाने के लिए प्राइवेट क्लासेज़ लेती है,”
“हाँ तो ऐसा कहाँ लिखा है कि कॉलेज एक्स्पेन्सेज़ मीट करने के लिए प्राइवेट क्लास लेने वाली बेचारी लड़की वूडू डॉल नहीं बना सकती?” निमित्त तर्क देते हुए बोला।
सुभद्रा उसका मुँह ताकते रह गई।
“यार निमित्त, कुछ भी बोलते हो आप!”
निमित्त ने लापरवाही से कंधे उचकाए,
“कहाँ पाई जाएगी ये पालक…आय मीन पलक?”
“लीव पर है?”
“कब से?”
“ज..जिस दिन इरा को पीरियड आए थे उसके बाद से,”
“मतलब एक वीक से, वेरी कन्वीन्यंट,”
“उसने पहले से बता के लीव ली थी..और फिर ये भी देखिए कि जिस दिन ये मनहूस वूडू बॉक्स मिला उस दिन पलक यहाँ आई ही नहीं थी,” सुभद्रा तर्क देते हुए बोली।
“सो व्हॉट? यहाँ उसका जो भी अकॉम्प्लिस है उसने बॉक्स प्लांट किया होगा,”
सुभद्रा निमित्त के तर्क से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थी।
“वैसे कालांत्री की बात में पॉइंट तो है सुभद्रा, हर्ज क्या है अगर एक बार पलक से सवाल-जवाब कर लें तो?” गिरीश बाबू गम्भीर भाव से बोले।
“जैसा आप ठीक समझें,” सुभद्रा ने प्रतिवाद ना किया, “पलक कल से वापस जॉइन करने वाली है,”
“बढ़िया! इसके अलावा मुझे इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे से भी बात करनी है,” निमित्त गिरीश बाबू से मुख़ातिब हुआ।
“ठीक है, फ़िलहाल उसकी पोस्टिंग मडगाँव है। मैं उसे कॉल कर दूँगा, तुम कल उससे भी जा कर मिल सकते हो,”
“मुझे एक बुलेट या क्रूज़ बाइक चाहिए होगी,”
“बाइक क्यों? गाड़ी ले जाओ, जो भी तुम ले जाना चाहो,”
“ना! आय एम ए बाइकर बाई हार्ट। मैं फ़ोर व्हीलर तभी चलाता हूँ जब क़यामत आई हो, क्योंकि अगर क़यामत नहीं भी आई है तो मेरे फ़ोर व्हीलर चलाने से आ जाती है। बुलेट या क्रूज़ बाइक इस लिए क्योंकि अल्फ़ा को बैकसीट पर बैठने में और मुझे चलाने में सहूलियत होती है,”
“हम्म…इंतज़ाम हो जाएगा। तुम्हारे रहने की व्यवस्था हम इसी फ़्लोर पर करवा देते हैं, कॉर्नर रूम में,”
“सामान रखने की व्यवस्था कहिए, बंदा अपना डेरा नीचे बाग़ीचे में डालेगा,”
“अरे! ये क्या बात हुई?”
“इतना ख़ूबसूरत और आलीशान बाग़ीचा है आपका, आख़िर क्या कमी है आपके बाग़ीचे में जो ये भँवरा नहीं रह सकता?” निमित्त अपनी शरारती मासूमियत से बोला।
गिरीश बाबू सकपका गए,
“बड़े वाहियात आदमी हो यार,”
“कभी घमंड नहीं किया,”
कहते हुए निमित्त उठ खड़ा हुआ।
निमित्त और सुभद्रा वहाँ से निकले। निकलते वक्त निमित्त ने डिब्बक-बॉक्स अपने साथ ले लिया। बाहर अल्फ़ा और इरा अब भी खेल रहे थे। पास ही डॉक्टर थापा और कदम खड़े थे। निमित्त उन दोनों को अनदेखा कर के नीचे की तरफ़ बढ़ गया। सुभद्रा भी उसके साथ थी।
“आपको सच में लगता है कि ये पलक ने किया होगा?”
“मैं नहीं जानता। बिना उससे बात किए मैं कुछ नहीं कह सकता। पर अब भी कई तार ऐसे हैं जिनका सिरा नहीं मिल रहा,”
“मसलन?”
“मसलन गिरीश बाबू ने कहा कि मल्हार इंदू देवी से बहुत स्नेह रखता था, उन्हें ‘इंदू माँ’ बुलाते ना थकता था जबकि तुमने बताया कि इरा के कमरे से निकलते वक्त मल्हार इरा को बिल्कुल उसकी माँ यानी इंदू देवी की तरह पागल करार दे रहा था। कैरेक्टर के दोनों वर्ज़न मैच नहीं हो रहे। अगर कापालिक नीलजेबूब इंस्पेक्टर चीता के हाथ लग गया था तो उसे ‘त्रियो-किलर’ के रूप में दुनिया के सामने लाने में क्या प्रॉब्लम थी?”
“उसके ख़िलाफ़ सबूत ना थे, वो बच निकलता,” सुभद्रा सोचते हुए बोली।
“फ़ॉल्स एविडेन्स प्लांट करना हमारे पुलिस डिपार्टमेंट के लिए कौन सा मुश्किल काम है? वो भी तब जब गिरीश बाबू जैसे बड़े नेता हाँ हाथ सिर पर हो। चैतन्य ताम्बे कापालिक की लाश के साथ ऐसे सौ सबूत पेश कर सकता था जो नीलजेबूब को ‘त्रियो-किलर’ घोषित कर देते। डिपार्टमेंट की और सरकार की वाह-वाही होती, ताम्बे की वर्दी पर दो-चार तमग़े बढ़ जाते लेकिन इसकी जगह उसने नीलजेबूब की लाश, उन गुमशुदा बच्चियों के राज़ और इस केस को भी हमेशा के लिए गुमनामी में दफन कर दिया, क्यों?”
निमित्त के तर्क पर सुभद्रा भी सोचने को मजबूर हो गई। अब तक वे नीचे आ चुके थे। उन्हें बाहर गेट पर गार्ड्ज़ का शोर सुनाई दिया।
“भगाओ इसे यहाँ से!”
“कमबख्त उठ ही नहीं रहा! लाठी से मारो,” बाहर से गार्ड्ज़ की आवाज़ें आयीं।
“क्या हो रहा है?” सुभद्रा ने चौंक कर उस तरफ़ देखा।
“पता नहीं, मैं देखता हूँ,” सुभद्रा के कुछ बोलने से पहले ही तेज़ डग भरते हुए निमित्त बाहरी गेट की तरफ़ बढ़ गया।
कोठी की आउटर बाउंड्री से लग कर एक बैल बैठा था जिसके अगले पैर पर घाव था जो शायद किसी गाड़ी के टक्कर मारने से हुआ था। घाव पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, दर्द और मक्खियों से पहले से ही परेशान बैल को कोठी के सुरक्षाकर्मी वहाँ से हटाने की कोशिश कर रहे थे। कभी वो उसे लाठी और डंडों से कोंचते तो कभी उसके मुँह पर पानी फेंकते।
“ऐsss!! छोड़ दो उसे,” निमित्त की आवाज़ किसी फटते बादल के समान गरजी। ऊपर खड़े थापा, कदम और इरा का ध्यान भी उस तरफ़ चला गया।
“जानवर वो है, हरकतें तुम क्यों कर रहे हो जानवरों सी?” निमित्त इतने क्रोध में था कि सुरक्षाकर्मी सकपका गए।
फिर अपना रुआब दिखाते बोले,
“यहाँ गंदगी करेगा तो हमें सुनना पड़ेगा और जवाब देना पड़ेगा ऊपर। तुमको क्या भई? तुम्हारा सगे वाला लगता है क्या,”
निमित्त की आवाज़ सर्द थी, इतनी सर्द जितनी शायद अगर मृत्यु बोल पाती तो उसकी होती,
“हाँ लगता है मेरा सगे वाला, और जो निमित्त कालांत्री का सगा है उसे कष्ट पहुँचाने का अधिकार ब्रह्मा को भी नहीं,”
गार्ड दो कदम पीछे हुए।
“अगर किसी ने भी इसपर लाठी उठाई तो मैं एक जादू दिखाऊँगा। उसकी वो लाठी ग़ायब हो जाएगी…दिखाई नहीं देगी लेकिन महसूस इतनी ज़्यादा होगी कि ना उठते बनेगा, ना बैठते…,”
निमित्त की चेतावनी गार्ड्ज़ को अपने हलक में अटकती महसूस हुई जिसे बड़ी मुश्किल से उन्होंने थूक के साथ घोंटा।
निमित्त बैल की तरफ़ मुड़ा,
“का हो नंदी महाराज! हियाँ बाहर गाँव मा काहे ऐसी-तैसी करात हौवा आपण,” निमित्त यूँ बोला जैसे किसी पुराने बिछड़े दोस्त से मसखरी कर रहा हो।
बैल ने अपनी जगह पर बैठे-बैठे सींग हिलाए।
“अरे-रे-रे…चला ठीक बा…ग़ुस्साए मत। तनी बैठा हम आत हई,” निमित्त ने हंसते हुए बनारसी में कहा और अंदर की ओर बढ़ गया। सुभद्रा व ऊपर खड़े लोग उसे अचरज से देख रहे थे।
“एक्स्क्यूज़ मी सुभद्रा, गॉटा टेक केयर ऑफ़ दिस बिग गाय,” कहते हुए निमित्त निचली मंज़िल की पैंट्री में दाखिल हुआ।
“ये आख़िर कर क्या रहा है?” निचले क़द के डॉक्टर थापा उचक नीचे झांकने की कोशिश करते हुए बुदबुदाए।
“शो-ऑफ़ है, शो-ऑफ़ कर रहा है,” कदम ने रूखे स्वर में जवाब दिया।
कुछ देर बाद निमित्त अंदर से एक बोल में गर्म पानी, मरहम पट्टी का सामान, और एक बाल्टी भर के भिगोए हुए मूँगफली-चने-गुड़ और ज्वार-बाजरे की रोटियाँ लिए हुए बाहर निकला। गिरीश बाबू की कोठी के पीछे ही उनका प्राइवेट घोड़ों का अस्तबल था जहां घोड़ों के खाने का इंतज़ाम कोठी की निचली पैंट्री में ही किया जाता था।
निमित्त ने पहले बैल के घाव को साफ़ कर के उसपर मरहम-पट्टी की, फिर उसके साथ ही मूँगफली-चने-गुड़ और रोटी खाने बैठ गया।
“ये साला गोवा में मैदे की रोटी खा-खा के दिमाग़ ख़राब हो गया है गुरु, अरे जब तक देसी शरीर को अनाज नहीं मिलेगा तो काम कैसे चलेगा? नहीं चलेगा ना…वही तो! अब देखो गुरु, हम दबाएँगे रोटी में देसी घी, गुड़, चना और मूँगफली, बाल्टी में जो बच रहा है तुम उस पर कॉन्सेंट्रेट करो,” बैल के पास पालथी मार के बैठे निमित्त ने रोटी को रोल की तरह लपेटा।
बैल ने लपक कर उसके हाथ से रोटी रोल खा लिया।
“वेरी चालाक ब्रो!” निमित्त शरारती अन्दाज़ में मुस्कुराया।
लगभग एक घंटे तक निमित्त और बैल की चुहलबाज़ी चलती रही। सुभद्रा देख रही थी उस अजीब शख़्स को, जो ना तेरह साल पहले उसकी समझ में आया था और ना आज समझ आ रहा था। बस वो इतना जानती थी कि निमित्त शायद वो पहेली था जिसे बनाने वाला भी सुलझाने का तरीक़ा भूल गया है।
एक घंटे बाद बैल उठ कर अपनी राह चल दिया।
रात गहरा रही थी।
बहुत समझाने और मिन्नतें करने पर भी निमित्त कमरे में सोने को तैयार ना हुआ और नीचे बाग़ीचे में पहुँच गया। जिस समय सुभद्रा निमित्त को गुडनाइट बोलने के लिए गार्डेन में पहुँची, वो और अल्फ़ा नीम के पेड़ के नीचे खड़े थे। निमित्त मुँह ऊपर उठाए हुए बात कर रहा था जैसे पेड़ पर कोई बैठा हो। जिसमें अल्फ़ा भी बीच-बीच में भौंक कर अपना पूरा योगदान दे रहा था।
“भौं-भौं,”
“नहीं रे अल्फ़ा, अपन लोग बाद में आए ना! जो पहले से रह रहा उससे तो पर्मिशन लेना माँगता है,” निमित्त अल्फ़ा को समझाते हुए बोला।
“एक काम करते हैं, अपनी-अपनी टेरिटॉरीज़ डिफ़ाइन कर लेते हैं…मैडम आप पेड़ के ऊपर सो जाइए, नो वरीज़। मैं और अल्फ़ा नीचे अजस्ट कर लेंगे, क्यों अल्फ़ा?” निमित्त पेड़ पर किसी से बोला फिर अल्फ़ा से मुख़ातिब हुआ।
“वुफ़्फ़,”
“किससे बात कर रहे हैं निमित्त?” सुभद्रा ने कौतूहल से पूछा, “क्या स्कैली से?”
“अरे नहीं, ये पेड़ पर जो मैडम बैठी हैं उनसे,” निमित्त ने सहज भाव से ऊपर पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा।
“प…पेड़ पर कौन बैठी है? क…कोई चुड़ैल है क्या?” सुभद्रा ने हिचकिचाते हुए नज़रें उठाईं।
ऊपर पेड़ की डाल पर एक काली बिल्ली बैठी दिखाई दी जिसकी आँखें चमक रही थीं।
“म्याऊँsss,”
“ये हैं मैडम किटी,” निमित्त बोला
“किटी क्यों बोलता है ‘हौले’, पुसी क्यों नहीं बोलता?” स्कैली की आवाज़ आई।
“वुफ़्फ़” अल्फ़ा यूँ भौंक जैसे स्कैली को डाँट रहा हो।
“ए हौले, ये अपने खच्चर को समझा ले आजकल इसका ढ़ेंचू-ढेंचू बढ़ते ही जा रेला है,”
“स्कैली, दो मिनट के लिए चुप हो जा मेरे बाप,” निमित्त आवाज़ दबा कर स्कैली को डाँटते हुए बोला।
सुभद्रा उसे और अल्फ़ा को देख कर मुस्कुरा रही थी।
“निमित्त…” सुभद्रा कुछ बोलते-बोलते ठिठकी।
निमित्त उसकी तरफ़ घूमा, उस घड़ी निमित्त की आँखों में किसी शरारती बच्चे सी चंचलता थी।
“थैंक-यू…हर उस चीज़ के लिए जो आपने की है…कर रहे हैं,”
“मैंने कुछ भी नहीं किया, जो कुछ भी किया-धरा है वो मम्मी और महादेव का है, मैं तो बस ‘निमित्त’ मात्र हूँ,” निमित्त चेहरे पर मासूमियत और आँखों में शरारत लिए बोला।
“देख रहे हैं डॉक्टर थापा। कभी बैल से बात करता है कभी बिल्लियों से, शामन किंग क्यों, खुद को सीधे-सीधे टार्ज़न…’जंगल जिम’ क्यों नहीं घोषित कर देता,” ऊपर बाल्कनी पर हाथ में जाम लिए खड़े कदम से चिढ़ते हुए कहा। डॉक्टर थापा की गर्दन सहमति में हिली।
दोनों ऊपर से निमित्त के एक-एक क्रियाकलाप पर नज़र रखे हुए थे।
“अपना और इरा का ख़याल रखना सुभद्रा। हालाँकि मुझे उम्मीद नहीं कि आज रात कुछ होगा, फिर भी चौकन्ना रहना और अगर कुछ भी गड़बड़ लगे तो फ़ौरन मुझे कॉल करना,” निमित्त सुभद्रा को हिदायत देते हुए बोला।
सुभद्रा ने सैल्यूट के अन्दाज़ में निमित्त का आदेश तस्दीक़ किया।
कुछ देर निमित्त से बात करने के बाद सुभद्रा सोने चली गई। डॉक्टर थापा और कदम भी अपने-अपने कमरों में चले गए।
सबके सो जाने के बाद निमित्त ध्यान मुद्रा में बैठ गया। जाने कितनी ही देर वो अपनी इस ध्यान समाधि में डूबा रहा। उसकी तंत्रा बिल्ली के हल्के ‘परिंग’ साउंड से भंग हुई।
“क्या हुआ मिस किटी? क्या दिखा तुम्हें,” निमित्त ने ऊपर पेड़ की डॉल की तरफ़ चेहरा उठाते हुए पूछा। बिल्ली वहाँ नहीं थी, वो पहले ही उतर चुकी थी।
निमित्त के बग़ल में अल्फ़ा चारों टांगें ऊपर किए हुए इत्मिनान से सो रहा था।
“उठा इस गधे को, घोड़े बेच के सो रहा है,” स्कैली की आवाज़ आई।
“सोने दो, हम चलते हैं,” निमित्त अपनी जगह से उठा और बिना आवाज़ चलते हुए कोठी की तरफ़ बढ़ा।
ऊपर की मंज़िल पर, लॉबी में उसे एक साया विचरता नज़र आया।
“डॉक्टर थापा!” निमित्त के होंठों से फुसफुसाहट निकली।
“ऐ शालाsss…ये शाब’ज़ी थापा वूडू का पापा है?” स्कैली फ़ेक नेपाली ऐक्सेंट में बोला।
“अभी पता नहीं, पर कुछ अजीब है…” निमित्त का ध्यान मशीनी अन्दाज़ में चलते थापा पर था।
“हाँ, थोबड़ा तो अजीब है इसका..जैसे तेल में डूबे भटूरे पर मक्खन टपका दिया हो,”
“नहीं स्कैली, वो नहीं। इसकी चाल देखो…इसका चेहरा…ऐसा लग रहा है जैसे ये किसी के वश में है,”
डॉक्टर थापा का चेहरा और आँखें पथराई हुई थीं। वो मशीनी अन्दाज़ में यूँ चल रहा था जैसे कोई रिमोट कंट्रोल से उसे चला रहा हो। चलते हुए थापा लॉबी के पिछली तरफ़ मुड़ गया। नीचे गार्डेन से थापा को फ़ॉलो करता हुआ निमित्त भी उस तरफ़ मुड़ा।
ऊपर की फ़्लोर पर उस तरफ़ मल्हार का रूम था जहां उसे दो साये और खड़े नज़र आए। इनमें से एक मल्हार था जो काफ़ी तैश में नज़र आ रहा था और दूसरे साये से; जिसकी पीठ निमित्त की तरफ़ थी, धीमी आवाज़ में कुछ बात कर रहा था। डॉक्टर थापा अन दोनों की तरफ़ बढ़ा। थापा को देख कर मल्हार फ़ौरन अपने कमरे में घुस गया और रूम का दरवाज़ा बंद कर लिया। दूसरा साया भी पीछे मुड़ा और उसने ऊपर से नीचे छलांग लगा दी। लगभग बारह-चौदह फ़ीट की ऊँचाई से कूद कर भी साया बिना गिरे, बिना किसी खरोंच के नीचे लैंड हुआ।
निमित्त इस पूरे घटनाक्रम के यूँ अप्रत्याशित मोड़ लेने के लिए तैयार ना था..और ना ही वो साया। उसके नीचे कूदते ही निमित्त और वो साया आमने-सामने पड़े। निमित्त उसके चेहरे, उसकी चमकती आँखों और उसकी वेशभूषा से ही समझ गया कि वो एक ओझा-तांत्रिक…एक शामन है।
उस शामन ने भी निमित्त के उस घड़ी वहाँ होने की अपेक्षा ना की थी। उसके होंठों से निमित्त को देख कर सिसकारी निकली,
“द शामन किंग…!!”
इससे पहले कि निमित्त कोई हरकत करता वो ओझा किसी छलावे की तरह कूदते-छलांग लगाते बारह फ़ीट की आउटर बाउंड्री वॉल लांघ कर ग़ायब हो गया। निमित्त ने उसके पीछे जाने की चेष्ठा ना की। उसने डॉक्टर थापा को देखा, जो वापस अपने कमरा में जा रहा था।
फिर सब कुछ शांत हो गया।
“पर्रर्रर्र” निमित्त के बूट पर काली बिल्ली ‘परिंग’ करते हुए लिपट रही थी।
“थैंक्स मिस किटी, अब हमें भी सोना चाहिए,” निमित्त उसके फ़र सहलाते हुए बोला।
उस रात और कोई दूसरा घटनाक्रम घटित ना हुआ।
* * *
निमित्त के कहे अनुसार गिरीश बाबू ने उसके लिए अगली सुबह एक क्रूज़ बाइक का इंतज़ाम करवा दिया था और सुबह दस बजे इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे से उसकी मीटिंग भी फ़िक्स कर दी गई थी। मोल्लेम से मडगाँव वाया रोड लगभग एक से डेढ़ घंटे का रास्ता है। निमित्त सुबह के आठ बजे ही कोठी से मडगाँव के लिए निकल गया। निमित्त क्रूज़ बाइक चला रहा था और उसके पीछे अल्फ़ा अपने अगले पंजे निमित्त के कंधे पर टिकाए इत्मिनान से बैठा था।
वे मोल्लेम से पंजिम-बेलगाम रोड पर बामुश्किल आधा-एक किलोमीटर आगे बढ़ा होगा कि सुनसान इलाक़े में बाइकर्स का एक क़ाफ़िला उसके साथ-साथ चलने लगा। गोवा, ख़ासकर पंजिम-बेलगाम हाई-वे पर बाइकर्स का क़ाफ़िला आम बात है जो गोवा और वेस्टर्न घाट्स के बीच रोड-ट्रिप करते हैं लेकिन इस बाइकर क़ाफ़िले के आते ही निमित्त के सिक्स्थ सेंस ने उसे ख़तरे के संकेत दिए। निमित्त ने बाइक की स्पीड बढ़ाई। रियर-व्यू मिरर रिफ़्लेक्शन में उसे बाइक सवारों के पास हॉकी स्टिक, बेसबॉल बैट, क्रिकेट बैट इत्यादि नज़र आए। छे बाइक्स पर क़ुल बारह गुंडे सवार थे। इनमें से कुछ ने हाथ में मोबाइल-फ़ोन लेकर वीडियो रिकॉर्डिंग ऑन कर रखी थी।
“वुफ़्फ़-वुफ़्फ़” अल्फ़ा जैसे निमित्त को आगाह करने के लिए भौंका।
“जानता हूँ अल्फ़ा, ये बारात हमारे लिए सजी है लेकिन बारात में नाचने आए इन हिजड़ों से हम उलझ नहीं सकते,”
“क्या बोल रहा है हौले? बाइक रोक और इनमें से एक-एक के घर की लेडीज़ लोग का हाल-चाल ले ले…क़ायदे से,” स्कैली की आवाज़ आई।
“नहीं कर सकता स्कैली। गिरीश बाबू की वॉर्निंग याद है ना? एक और कॉंट्रवर्सी और मुझे यहाँ से जाना होगा। इनका इस तरह मेरी ताक में बैठना और मोबाइल में वीडियो रिकॉर्ड करना बताता है कि मेरी टिप इन्हें किसी घर वाले ने दी है..शायद मल्हार ने। मैंने इनमें से किसी एक को हाथ भी लगाया तो ये लोग उसका वीडियो वायरल कर देंगे। हमारे पास ऑप्शन नहीं…”
निमित्त की बात पूरी नहीं हो पाई। उससे पहले ही लाल बाइक पर सवार गुंडे ने; जो बाक़ियों का लीडर लग रहा था, बैट बूमरैंग की तरह घूमा कर फेंका। बैट निमित्त की बाइक के पिछले टायर से टकराया। गाड़ी साँप की तरह लहराई। भरसक कोशिश के बावजूद निमित्त ने बाइक पर अपना कंट्रोल खो दिया। बाइक बुरी तरह स्किड हुई। निमित्त और अल्फ़ा ने जम्प लगा दी। अल्फ़ा सही-सलामत लैंड हुआ पर निमित्त की कुहनियों और घुटनों पर अच्छी-ख़ासी चोटें आयीं।
जब तक निमित्त सम्भाल कर खड़ा हुआ बाइक सवारों ने उसे घेर लिया। लाल बाइक वाला, जो देखने में कोई चरसी-हिप्पी लग रहा था कूद कर नीचे उतरा।
“हिहिही…अरे कोई बोलो अपने कालांत्री को…इन सब चीजों में कुछ नहीं रखा। जाओ भईया, कोई नौकरी धंधा ढूँढो। ज़ोमैटो, ब्लिंक-इट, या पैसे हों तो ओला-उबर का काम करो। इज़्ज़त की रोटी कमाओ, नाम जपो, किरत करो, संघ चक्कों …हिहिहिही…हाहाहाहा,” हिप्पी निमित्त को मॉक करते हुए बोला।
“गर्रर्रर्र…sss…” अल्फ़ा के जबड़े भिंच रहे थे।
“नो अल्फ़ा, सिट।” निमित्त की बर्फ़ सी सर्द आवाज़ आई। अल्फ़ा चुप-चाप बैठ गया।
“हेहेहे…ही नीड्ज़ फ़्रेंड्ज़ गाइज़…हिहिही…ही नीड्ज़ हेल्प…हाहाहा,” हिप्पी फिर पागलों सा बड़बड़ाया, “देख कालांत्री, बंद कर ये ड्रामेबाजी और वापस लौट जा। जा के अपने दिमाग़ का इलाज करवा। तेरे गुरु ने तो तुझे लात मार के निकाल दिया है, अब कोई नौकरी-धंधा ढूँढ, ऐसे तेरे जैसे पागल को कोई काम भी नहीं देगा, ऐसा कर पंचर बनाने की दुकान खोल ले, चार पैसे कमा, यहाँ से कट ले,”
“नाम क्या है तेरा?” निमित्त ने भावहीन स्वर में सवाल किया।
“हेहेहे…ही आस्क्स माय नेम…ही नीड फ़्रेंड्ज़…हाहाहा…जुपे..द नेम इज़ जोंस…जुपे जोंस,” चरसी पागलों के जैसे डोलते हुए बोला।
“देख भाई जुपे-चूपे…तू जो भी है, ज्ञान और गां$ बिना माँगे फैलाने वाले की कोई इज़्ज़त नहीं रहती…और तू ऑलरेडी काफ़ी फैला चुका है। अब समेट और निकल ले यहाँ से। तुझसे मेरी कोई अदावत नहीं, जबरन उड़ता तीर मत ले,” निमित्त सर्द भाव से बोला।
किसी भांग खाए बंदर की मानिंद झूमता जुपे एक पल को स्थिर हुआ। उसने निमित्त को घूरा फिर पागलों की तरह हंसने लगा।
“हिहिहिही…हेहेहेहे…हाहाहाहा,”
“भड़ाक!!” जुपे के हाथ में थमा बैट निमित्त के चेहरे से पूरे फ़ोर्स से टकराया। निमित्त के मुँह में खून का खारा स्वाद भर गया।
“वुफ़्फ़..” अल्फ़ा ने गरजते हुए जुपे पर अपने जबड़े फाड़े।
“अल्फ़ा नो!!” निमित्त खून थूकते हुए बोला।
“हिहिहिही…हाहाहाहा…ही नीड्ज़ हेल्प…डोंट गिव हिम हेट…डोंट हेट हिम गाइज़…ही नीड्ज़ हेल्प…ही नीड़ फ़्रेंड्ज़…हाहाहाहा..”पागलों की तरह फ़्रेज़ लूपिंग करते हुए जुपे ने पूरे फ़ोर्स से बैट निमित्त को दे मारा। निमित्त अपनी जगह से एक इंच भी ना हिला, बैट दो टुकड़ों में बंट गया।
“रिकॉर्डिंग ऑन रखो। सारे एक साथ घेर के मारो इसे…तब तक मारो जब तक हाँ तो ये हाथ ना छोड़ दे या अपनी जान की भीख ना माँगने लगे,” अपना आपा खोया जुपे इतनी ज़ोर से चिल्लाया कि उसकी आवाज़ फट गई।
“अल्फ़ा तू निकल यहाँ से,” निमित्त ने अल्फ़ा को आदेश दिया। अल्फ़ा टस से मस ना हुआ।
“अल्फ़ा मेरी बात सुन…जस्ट गो!!” निमित्त चिल्लाया। अल्फ़ा अपनी जगह से ना हिला।
“क्या कर रहा है हौले!! मार ना…चीर डाल इन्हें टांग पे टांग चढ़ा के,” स्कैली की आवाज़ गूंजी।
“आज नहीं स्कैली। ये यही चाहते हैं…और हिजड़ों के चाहने से “निमित्त” नहीं बदलता,”
“धाड़-ताड़-धड़ाक” चारों तरफ़ से रॉड, हॉकी, बैट एक-साथ निमित्त के जिस्म से टकराए। बारह के बारह गुंडे एक-साथ मिल कर निमित्त को मारने में अपनी पूरी ताक़त झोंक रहे थे, जैसे गीदड़ों और सियारों का झुंड किसी सिंह को गिराने की कोशिश कर रहा हो। उनके फ़ोन कैमरा निमित्त पर तने हुए।
“हाहाहा…शामन किंग…हाहाहा…द शामन किंग है ये…हाहाहा…क्या हुआ शामन किंग जी? कहाँ गई आपकी अलौकिक शक्तियाँ?” जुपे निमित्त के चहरे पर ताबड़-तोड़ घूँसे बरसात हुआ बोला।
“रुद्राय च नमस्तुभ्यं पशुना पतये नमः
उग्राय च नमस्तुभ्यं महादेवाय वै नमः
भीमाय च नमस्तुभ्यं मिशानाया नमो नमः
ईश्वराय नमस्तुभ्यं तत्पुरुषाय वै नमः”
निमित्त के मुँह से रक्त रंजित महाकाल स्तोत्र के स्वर निकले।
“गिराओ इसको…ये मुझे खड़ा नहीं दिखना चाहिए,” अपनी हीनता पर विक्षिप्त हुआ जुपे चिल्लाया।
उन बारह गुंडों के सम्मिलित प्रहार भी उस एक शख़्स को डिगा ना पाए। शर्ट फट कर सामने से खुल गई थी, नाक और मुँह से ख़ून बह रहा था। जिस्म पर जगह-जगह चोटें गहरी छाप छोड़ रही थीं…लेकिन उसका चेहरा! एक शिकन तक नहीं। कोई भाव नहीं। और उसकी आँखें…अंतरिक्ष के स्याह विवर(ब्लैक होल) में उतनी कालिमा और गहराई ना होगी जो प्रकाश को सोख कर लील जाता है जितनी उस समय निमित्त की पुतलियों में थी।
“सघोजात नमस्तुभ्यं शुक्ल वर्ण नमो नमः
अधः काल अग्नि रुद्राय रूद्र रूप आय वै नमः
स्थितुपति लयानाम च हेतु रूपआय वै नमः
परमेश्वर रूप स्तवं नील कंठ नमोस्तुते
पवनाय नमतुभ्यम हुताशन नमोस्तुते”
“गड़-गड़-गड़-गड़”
एकाएक धरती काँपी, जैसे भीषण भूकम्प धरा का सीना चाक करना चाहता हो। हाँ भूकम्प ही तो था वो। क्रोध का प्रलयनाद। रौद्र और अद्भुत। अकल्पनीय और प्रचंड।
“भड़ाम” एकाएक जैसे कोई उल्कापिंड फट पड़ा हो। गुंडों की फ़ौज छितर गई। चारों ओर रुदन और चीत्कार मच गया।
वो गाय और बैलों का एक हुजूम था जो बिदक कर उधर से गुज़र रहा था। इतना बड़ा, उद्दंड, उग्र, रौद्र और प्रचंड समूह जिसके आगे उनके हॉकी, बैट फेल थे। किसी का सिर खुरों से रौंदा गया तो किसी के पेट में बैल ने सींग घुसेड़ दिए।
सर्व रूप नमस्तुभ्यं विश्व रूप नमोस्तुते
ब्रहम रूप नमस्तुभ्यं विष्णु रूप नमोस्तुते
रूद्र रूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोस्तुते
स्थावराय नमस्तुभ्यं जंघमाय नमो नमः
नमः उभय रूपा भ्याम शाश्वताय नमो नमः
हुं हुंकार नमस्तुभ्यं निष्कलाय नमो नमः
निमित्त अपने स्थान से तिनका भर भी ना हिला। वो यूँ ही खड़ा रहा, महासागर सा गहरा और अनंत, अपने अंदर असंख्य ज्वारभाटा समेटे और पर्वत सा अडिग व अचल। उसके अग़ल-बग़ल से भागता हुआ झुंड हुंकार भरते गुज़र रहा था।
झुंड गुज़र जाने के बाद पीछे गुंडों का मलीदा छूटा। जिसके बीच किसी के कराहने की आवाज़ आ रही थी। जुपे अपने मल-मूत्र, रक्त और कीचड़ में लिसड़ा छटपटा रहा था, किसी बैल ने उसकी टांगों के बीच सींग घुसेड़ दिए थे। अंतड़ियाँ बाहर निकल रही थीं, अंडकोश फूट कर लटके हुए थे, दृश्य इतना विभत्स था कि कमजोर दिल का इंसान बर्दाश्त ना कर पाए।
निमित्त लड़खड़ाता हुआ, अपने घायल पैर को घसीटता हुआ जुपे के पास पहुँचा। जुपे का चेहरा अब उनकी विक्षिप्त हंसी से नहीं बल्कि घोर पीड़ा से विकृत था। निमित्त उस घड़ी उसे किसी भेड़िए जैसा नज़र आया, जो इत्मिनान से, मंद गति से अपने शिकार की तरफ़ बढ़त है। जुपे ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला, शायद दया की भीख माँगने के लिए लेकिन अल्फ़ाज़ की जगह ढेरों खून उगल दिया। निमित्त उसके पास आकार घुटनों पर बैठा।
“फ़िक्र मत कर जुपे…तू मरेगा नहीं…इनमें से कोई नहीं मरेगा। जीवन और मृत्यु देना मेरा अधिकार नहीं…मैं तो “निमित्त” मात्र हूँ। अब से लेकर अपने जीवन के अंतिम क्षण तक तुम लोग अपने पाप कर्मों का प्रायश्चित करोगे ताकि अगले जन्म में तुम्हारे प्रारब्ध कर्म कलुषित ना हों…महादेव तुम्हें सद्गति और सन्मार्ग प्रदान करें…नाम जप करो,”
निमित्त लड़खड़ाते हुए उठा, अब उसकी टांगें जवाब दे रही थीं। सिर बुरी तरह घूम रहा था। अल्फ़ा उसे सम्भालने की कोशिश कर रहा था पर यह अल्फ़ा के वश की बात नहीं थी।
निमित्त को लगा उसका शरीर उसके दिमाग़ के वश में नहीं है। वो पीछे गिरने को हुआ। पर पीछे से किसी ने उसे सहारा दे दिया। निमित्त ने बहुत मुश्किल से अपनी बंद होती आँखें खोल कर सहारा देने वाले को देखने की कोशिश की। हल्के भूरे रंग के उस बैल ने नीचे गिरते निमित्त को अपने सिर का सहारा दे कर सम्भाल लिया था। उस बैल के पैर पर अब भी वो पट्टी बंधी थी जो निमित्त ने पिछली रात बांधी थी।
“वेरी चालाक…ब्रो…” निमित्त धीमी आवाज़ में बोला।
बैल ने उसे अपनी पीठ पर कैसे चढ़ाया ये निमित्त को याद नहीं, कुछ देर बाद वो बैल अपनी पीठ पर अर्धमूर्छित निमित्त को बिठाए वापस कोठी की ओर बढ़ रहा था, अल्फ़ा उसके साथ-साथ चल रहा था और दूर ऊँची झाड़ियों के पीछे से दो चमकदार आँखें उस विचित्र क़ाफ़िले को जाते देख रही थीं। झाड़ियों के पीछे से एक ऊँची आकृति बाहर निकली। वो एक ग्रे-वुल्फ़ था।
“शामन किंग…आह्ह….हाहाहा…शामन किंग है वो…हाहाहा…आह्ह,” जुपे की दर्द से विकृत आवाज़ निकली।
* * *
“आचार्य जी की जय…जय महाकालsss” उन्मादित भीड़ आश्रम के बाहर जय-जयकार कर रही थी।
आचार्य संजीव गौतम के दर्शन के लिए कई घंटों से प्रतीक्षा करते भक्त अब थकान से चूर अवश्य थे लेकिन उनकी आस्था में कोई कमी ना आई थी। हर कुछ देर में अपने ‘जुनून’ का प्रदर्शन करने और अपने गुरु, अपने भगवान को प्रसन्न करने के लिए वो जयघोष करते।
“आचार्य जी की जय…जय महाकालsss”
“शांत कराओ इन हरामख़ोर जाहिलों की फ़ौज को,” आश्रम के गर्भ-गृह में बैठे आचार्य संजीव गौतम ने बार-बार आते भीड़ के शोर से चिढ़ कर झल्लाते हुए आदेश दिया।
धरती के समान गोल घेराव वाला एक शिष्य, जिसके चेहरे से ही चापलूसी, चाटुकारिता और घोर काइयाँपन टपकता था, हड़बड़ा कर उठा और अपने मोटे लेंस वाले चश्मे से बटन जैसी गोल और मक्कारी से भरी आँखें भिंचकाते हुए बोला,
“आप फ़िक्र ना करें गुरु जी, हम हैं ना। सब सम्भाल लेंगे,”
यह आचार्य संजीव गौतम का पी.आर. मैनेजर और स्पोक्सपर्सन था। अपने थुलथुले, चर्बी से झूलते शरीर को मुश्किल से हिलाता हुआ वो गर्भ-गृह से बाहर निकल गया। गर्भ गृह के एक अंधेरे कोने से एक आवाज़ आयी। एक दोहरी आवाज़ जो मर्द और औरत दोनों की प्रतीत हो रही थी,
“कालांत्री का पता लग गया है। गोवा में है। मंत्री गिरीश रायकर के यहाँ डेरा डाले है। जुपे जोंस नाम के एक लोकल गुंडे और उसके गैंग को भेजा था कालांत्री से डील करने। पता नहीं कैसे…साले ने पूरे गैंग को आई.सी.यू. पहुँचा दिया,”
“पागल भेड़िए का शिकार करने के लिए भाड़े के भांड नहीं भेजे जाते मंथन!”
“चटट-चटट-चटट” किन्नरों जैसी तालियाँ फोड़ने की आवाज़ अंधेरे में गूंजी और अंधकार से जैसे परछाई की कालिमा इंसानी रूप लेकर निकली हो ऐसे मंथरा प्रकट हुई,
“भेड़िया नहीं…कुत्ता…हिहिही…विकृत कुक्कुर….हाहाहा…आप फ़िक्र मत करिए, इस विकृत कुक्कुर का शिकार मंथरा खुद करेगी,”
“निमित्त”
“निमित्त…” सुभद्रा की आवाज़ दूर किसी टनल के पार से आती सुनाई दी।
“उठ जा हौले, क्या ब्रेड पर मक्खन के माफ़िक़ फैलेला है…” फिर स्कैली की आवाज़ आई।
निमित्त ने आँखें खोलीं।
वो गिरीश बाबू की कोठी पर था, उस रूम में बेड पर लेटा हुआ जहां उसके रहने का इंतज़ाम किया गया था, जहां ऑक्युपेन्सी सिर्फ़ उसके सामान की थी…अब तक।
किसी 70s-80s के फ़िल्मी डॉक्टर की तरह निमित्त के बेडसाइड पर बैठे डॉक्टर थापा का स्थेटोस्कोप निमित्त की छाती पर और उँगलियाँ कलाई की नब्ज थामे हुए थीं।
“कह दो मुझे दवा की नहीं दुआ की ज़रूरत है…दुआएँ ऐसे भी बहुत हैं मेरे साथ, हमेशा यही बचाती हैं,” निमित्त की धीमी और कमजोर आवाज़ निकली।
“होश में आते ही शुरू हो गए? बड़े ढीठ आदमी हो यार,” डॉक्टर थापा ने सकपकाते हुए कहा।
“कभी घमंड नहीं किया,”
“वुफ़्फ़-वुफ़्फ़” निमित्त के होश में आते ही अल्फ़ा ख़ुशी से दुम हिलाते हुए उसका मुँह चाटने लगा।
“कोई फ़्रैक्चर या सीरीयस इंटर्नल इंजरी नहीं लग रही। फीवर और दर्द के लिए मैंने दवा ड्रिप में दे दी है। यह पूरी ड्रिप चलने देना डॉरिस आंटी,” डॉक्टर थापा वहाँ खड़ी नर्स डॉरिस को इन्स्ट्रक्शन देते हुए बोले।
डॉरिस की तरफ़ से प्रतिक्रिया में मात्र हल्के से ठुड्डी हिली।
निमित्त ने हल्के से सिर उठा कर रूम में नज़र घुमाई। डॉक्टर थापा से कुछ पीछे ही सुभद्रा खड़ी थी जो ख़ासी चिंतित नज़र आ रही थी। निमित उसकी ओर देख कर मुस्कुराया।
सुभद्रा उसके पास आई।
“अब कैसे हैं?”
“बेहतरीन…उम्दा…लाजवाब…बेहिसाब…ऐन जैसा ऊपरवाले ने बनाया है,” निमित्त बेपरवाही से चुटकी लेते हुए बोला।
“क्या हुआ था आपके साथ?” सुभद्रा पर निमित्त की ठिठोली का कोई प्रभाव ना पड़ा। उसने गम्भीरता से सवाल किया।
“पुराने पीपल की पिलपिली चुड़ैल पीतल की पीली पायल पहन के पॉइज़नस पप्पी लेने पूरी पगलाहट के साथ पीछे पड़ गई थी,” निमित्त ने भी पूरी तरह संजीदा होते हुए जवाब दिया।
“व्हॉट?” सुभद्रा और डॉक्टर थापा चौंके।
“ये चोटें चुड़ैल की पप्पियों से लगी हैं?” डॉक्टर थापा ने सार्कैस्टिक होते हुए सवाल किया।
“ना..पप्पी तो लेने ही नहीं दी, इसीलिए तो पिलपिली चुड़ैल पगलाई। बोली बता पुत्तर मेरी पायल ज़्यादा पीली या पपीते?”
“चुड़ैल के पास पपीते थे?”
“दो-दो,”
“पीपल पर कब से पपीते उगने लगे?”
“पपीते लज़ीज़ थे, चुड़ैल को अज़ीज़ थे…उगे पपीते के पेड़ पर ही थे पर पीपल के क़रीब थे,” निमित्त यूँ शून्य में निहारते हुए बोला जैसे जीवन दर्शन पर कोई अत्यंत गूढ़ ज्ञान दे रहा हो।
“मैं अपनी बात वापस लेता हूँ…इंटर्नल इंजरी के क्लीयर सिम्प्टम्स हैं…फ़िज़िकल नहीं…मेंटल। इसको पंजिम ले जा कर एम.आर.आई. और सी.टी.स्कैन करवाना होगा,” डॉक्टर थापा अपनी जगह से उठते हुए बोले।
“चुड़ैल पिलपिली तो थी पर प्यारी नहीं…पपीते पीले तो थे पर हमारे नहीं,” निमित्त पूर्ववत अपना दर्शनशास्त्र दोहराते हुए बोला।
“अजीब बेवक़ूफ़ इंसान है, सिर्फ़ बकवास करता है और बहुत ज़्यादा करता है,” डॉक्टर थापा उस कमरे से निकलते हुए बुदबुदाए। नर्स डॉरिस भी सहमति में सिर हिलाते हुए उनके पीछे-पीछे रूम से बाहर निकल गई।
निमित्त ने देखा इरा रूम के दरवाज़े पर खड़ी उसकी तरफ़ देख रही थी। इरा को देख कर निमित्त ने हौले से अपना हाथ हिलाया। इरा मुस्कुराते हुए अंदर आ गई जैसे उसके बुलाने की ही प्रतीक्षा कर रही थी।
निमित्त के बुलाने पर इरा उसके बेड पर, उसके पास आ कर बैठ गई। सुभद्रा ने वो चेयर; जिसपर डॉक्टर थापा बैठे थे, अपनी तरफ़ खींची और निमित्त के निकट बैठते हुए गम्भीर भाव से बोली,
“मैं समझ गई थी कि आप असली बात डॉक्टर थापा के सामने नहीं कहना चाहते। अब बताइए, क्या हुआ था? किसने अटैक किया था आप पर?”
निमित्त का चेहरा फ़्लिप सेकंड में बिल्कुल सर्द और संजीदा हो गया।
“भाड़े के टट्टू। ट्रैप करने की कोशिश थी…या तो मुझे हाथापाई करते हुए वीडियो शूट कर के वाइरल करते, कॉंट्रवर्सी और बखेड़ा शुरू करने की साज़िश रचते ताकि मुझे बदनाम कर के यहाँ से भी जाने पर विवश कर दें। जब इसमें फेल हुए तो अपने कमजोर अस्तित्व और बीमार मानसिकता का प्रदर्शन करने पर उतर आए…लेकिन महादेव ने बता दिया कि वो मेरे साथ हैं,”
निमित्त की बात सुभद्रा के अधिक पल्ले ना पड़ी, वो अब भी थोड़ी फ़िक्रमंद नज़र आ रही थी। पर उसने आगे सवाल ना किया।
“मैं यहाँ तक कैसे पहुँचा?” सवाल निमित्त ने ही किया।
“आपको याद नहीं?”
निमित्त ने अनभिज्ञता से कंधे उचकाए।
“मेन गेट से कुछ दूरी पर आप बेहोश मिले थे। अल्फ़ा यहाँ तक आया था और भौंकते हुए मुझे अपने साथ चलने का इशारा करने लगा। जब मैं उसके साथ पहुँची तो आप सड़क पर बेहोश मिले। फिर कदम अपने कमांडोज़ की हेल्प से आपको यहाँ लेकर आए,”
“हुम्म्म,”
कुछ देर तक सन्नाटा छाया रहा। निमित्त ने इरा की तरफ़ देखा। वो उसे देख कर मुस्कुरा रही थी।
“मैं डर गई थी आपके लिए एन.के.?”
“मैं बिल्कुल ठीक हूँ किड्डो,” अपनी उँगलियों से इरा के माथे पर बाल बिखेरते हुए निमित्त बोला।
इरा ने अपनी बंद मुट्ठी आहिस्ता से निमित्त के सामने की। निमित्त ने अपनी दाहिनी मुट्ठी से इरा को हौले से “ब्रो फ़िस्ट” दी। इरा ने मुस्कुराते हुए अपनी मुट्ठी निमित्त के चेहरे के सामने खोली। उसकी हथेली पर एक “बेल्ज्यन डार्क चॉकलेट” थी।
“आपके लिए,”
“बस यही तो मुझे चाहिए। हर मर्ज़ की दवा,” निमित्त ने लपक कर चॉकलेट उसके हाथ से ले ली।
निमित्त किसी छोटे बच्चे की तरह चॉकलेट अनरैप करने लगा। उसके हाथ और उँगलियों में अब भी काफ़ी दर्द और अकड़न थी।
“लाइए मैं कर देती हूँ,” सुभद्रा ने चॉकलेट लेने को हाथ बढ़ाया।
“ऐई…मेरी है,” निमित्त अपना चॉकलेट वाला हाथ पीछे खींच कर बनावटी ग़ुस्सा दिखाते हुए बोला।
“अरे मैं सिर्फ़ अनरैप करने को ले रही,”
“नहीं दूँगा,” निमित्त किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह बोला और जैसे-तैसे चॉकलेट रैपर से निकाल कर तपाक से मुँह में डाल ली।
उसकी इस हरकत पर इरा खिलखिला कर हंस दी, खुद सुभद्रा भी बिना मुस्कुराए ना रह पाई।
“हैलो निमित्त, अब कैसे हैं आप?” दरवाज़े की तरफ़ से आवाज़ आई।
निमित्त के साथ-साथ इरा और सुभद्रा की नज़रें भी उस ओर घूमीं। मल्हार की वाइफ़ रॉशेल दरवाज़े पर खड़ी थी। सबको अपनी तरफ़ देखता देख वो अंदर आ गई।
“आँख खुलते ही तीन-चार खूबसूरत मुखड़ों के दीदार हो जाएँ, और वो मुस्कुरा के हाल पूछ लें, इतने में तो है जलती चिता से खड़ा हो जाऊँ,” निमित्त सिर नवाते हुए बोला।
“वैसे आँख खुलने के साथ तो सबसे पहले आपने डॉक्टर अंकल का फ़ेस देखा था…हिहिही…आपको वो ब्यूटिफ़ुल लगते हैं?” इरा मुँह दबा कर हंसते हुए बोली।
“ऐई..डॉक्टर अंकल नहीं…अंकल शंटू बोलो,” निमित्त ने भी शरारती अन्दाज़ में कहा।
इरा के साथ-साथ सुभद्रा और रॉशेल भी हंस दीं।
“आपके आने के बाद से अब तक हमारा फ़ॉर्मल इंट्रोडक्शन नहीं हुआ। मैं मौक़ा ही तलाशती रह गई आपसे मिलने का…पर ऐसे मौक़े पर मिलेंगे ऐसा नहीं सोचा था,” रॉशेल थोड़ा संकुचा कर मुस्कुराते हुए बोली। अब वो इरा के पास आ कर खड़ी हो गई थी।
निमित्त अधलेटी अवस्था में बेड से उठा और बेड के पैडेड बैक-रेस्ट से अपनी पीठ टिका ली। रॉशेल ने हैंडशेक के लिए हाथ आगे बढ़ाया। निमित्त ने आहिस्ता से उसकी उँगलियाँ थाम कर अभिवादन किया। मौसम में ऊमस अधिक नहीं थी फिर भी रॉशेल की हथेलियाँ नम थीं।
“पीपल मीट व्हेन दे नीड टू मीट,”
“पाउलो कोएल्हो?" रॉशेल चुटकी बजाते हुए बोली।
“बिंगो!” निमित्त ने अप्रीशीएटिव टोन में उसके गेस के सही होने की तस्दीक़ की।
“आय विश यू स्पीडी रिकवरी मिस्टर कालांत्री। जल्द ठीक होईए, यहाँ हम सबको आपकी काफ़ी ज़रूरत है,"
निमित्त ने महसूस किया कि रॉशेल की बॉडी लैंग्वेज में एक भय और असहजता है। वो चोर नज़रों से हर कुछ देर में दरवाज़े की तरफ़ देखती, शायद उसे डर था कि मल्हार उसे वहाँ ना देख ले।
“बंदा हमेशा हाज़िर है,” निमित्त सिर नवाते हुए बोला।
“आपके होश में आने से कुछ मिनट पहले ही गिरीश बाबू आपको देख कर गए हैं,” सुभद्रा ने निमित्त से कहा।
निमित्त ने हौले से सिर हिलाया और मन ही मन सुकून की साँस ली कि उसपर हुए अटैक की बात बाहर नहीं निकली…अब तक।
चॉकलेट निमित्त के मुँह में लगभग घुल चुकी थी और उसे बेहद सुकून की अनुभूति हो रही थी। अब उसे फिर से अपनी इन्वेस्टिगेशन शुरू करनी थी, पर उसके लिए बेड से और इस कमरे से निकलना ज़रूरी था।
“सब लोग रूम ख़ाली करो, इसको दवाई लगाने का है,” नर्स डॉरिस की चुहिया सी महीन और कांपती आवाज़ ने सबका ध्यान आकर्षित किया।
एक हाथ में सरैमिक बोल में गर्म पानी, हैंड टॉवल और दूसरे में किसी अर्क की बड़ी सी शीशी लिए नर्स डॉरिस रूम में वापस आ गई थी।
“चल अल्फ़ा, हम फ़्रिस्बी खेलते हैं,” इरा ने अल्फ़ा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा। अल्फ़ा दुम हिलाते हुए उसके साथ चल दिया।
सुभद्रा और रॉशेल भी वहाँ से निकल गईं। नर्स डॉरिस ने उनके पीछे रूम अंदर से बंद कर के चिटकनी लगा ली।
“ऐ…ऐ..हौले…ये बुढ़िया के इरादे ठीक नहीं लग रेले अपुन को, ये रूम काय कूँ बंद कर रही रे बाबा!” स्कैली की आवाज़ निमित्त के अंदर आई।
“चुप कर ना स्कैली, कितना बड़-बड़ करता है तू,” निमित्त अपने होंठ दबा कर खुद में बुदबुदाया।
“अपना कपड़ा खोलो, लोशन लगाने का है,” डॉरिस जैसे उसे ऑर्डर देते हुए बोली।
“ले लोटा! किसने सोचा था बुढ़ापे की बुझती ढिबरी में हसरतों की हल्की चिंगारी अब भी सुलग रही है…ऑल द बेस्ट हौले, आगे का नजारा मुझसे अपनी नंगी आँखों से ना देखा जाएगा,” स्कैली जैसे निमित्त के मज़े लेते हुए बोला।
“साले स्कैली! हरामख़ोर! दोस्त के नाम पर कलंक है तू,” निमित्त फिर होंठ दबा कर बिसुरा।
“तुम कितना बड़-बड़ करता है मैन! अक्खा टाइम पटर-पटर टेप रिकॉर्डर का माफ़िक़ मुँह चालू रहता तुम्हारा। अभी सीधे-सीधे कपड़ा खोल के पेट के बल उल्टा लेटता है कि नहीं,” नर्स डॉरिस निमित्त के पास आकर आँखें तरेरते हुए बोली।
निमित्त ने चुपचाप अपने शर्ट और डेनिम खोले और उन्हें वॉल हैंगर पर टांग कर बेड पर पेट के बल लेट गया।
“अपुन ने एक-दो डंडे ‘बम’ पर पड़ते भी फ़ील किए थे “हौले”, ये थाई-मसाज की दूर की फूफी “कसाई-मसाज” को बोल ना उधर भी लोशन लगाने को,”
निमित्त ने इस बार स्कैली को इग्नोर करने की भरसक कोशिश की।
“आज की शाम लगे पिक्चर का सीन कोई, हौला अपना हीरो और बुढ़िया हिरोइन कोईsss, स्टोरीsss…हॉरर-मर्डर से घूम-घाम के….आ गई इमोसन मेंsss… आजा डूब जाऊँ नर्स डॉरिस के लोशन मेंsss…स्लो मोशन मेंsss…” खुद को इग्नोर होता देख स्कैली निमित्त के दिमाग़ में गाना गाने लगा।
निमित्त स्कैली को कोसने के लिए मुँह खोलने ही वाला था कि अचानक ठिठक गया। लोशन की शीशी खुलते ही एक तीखी गंध उसके नथुनों से टकराई थी। उसका दिमाग़ फ़ौरन ही उस मिश्रित गंध को अलग-अलग सेग्रेगेट करने लग गया।
उसकी पीठ पर सबसे ज़्यादा चोटें थीं। नर्स डॉरिस की पतली, पेंसिल जैसी उँगलियाँ निमित्त की पीठ और चोटों पर फिर रही थीं। वो लोशन जो कुछ भी था बेहद असरदार था। निमित्त को यूँ महसूस हुआ जैसे उसे दर्द कभी था ही नहीं। लोशन की गंध उसके दिमाग़ पर चढ़ रही थी। क्या था उस लोशन में?
डेलिरीएंट्स! यह डेलिरीएंट्स थे! डेलिरीएंट वो प्राकृतिक औषधियाँ होती हैं जिनका प्रयोग शामन्स पुरातन विधि द्वारा दवाइयाँ बनाने के लिए करते थे। इसके अलावा इनका प्रयोग शामनिक राइट्स और विचक्राफ़्ट में भी किया जाता है।
निमित्त का दिमाग़ जैसे ऑटो-पाइलट मोड पर जा रहा था। उसपर स्कैली के गाने की आवाज़ “वॉर्प” हो रही थी।
“स्टोरीsss…हॉरर-मर्डर से घूम-घाम के….आ गई इमोसन मेंsss… आजा डूब जाऊँ नर्स डॉरिस के लोशन मेंsss…स्लो मोशन मेंsss…”
साथ ही निमित्त का दिमाग़ उस गंध को डिकन्स्ट्रक्ट कर रहा था।
“ब्रगमैन्सिया यानी एंजल्स ट्रम्पेट—शामन्स द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। इंड्युस्ड विज़न, आत्माओं से कम्यूनिकेट करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त,”
“स्टोरीsss…हॉरर-मर्डर से घूम-घाम के….ssss,”
“मैंड्रागॉरा ऑफ़िसीनैरियम…जिसे “मैंड्रेक” भी कहते हैं—स्ट्रॉंग डिलीरीयम, कॉज़ेज़ हैल्यूसिनेशन्स, सिडेशन…मध्यकालीन ऐनेस्थेटिक ड्रग,”
“आsss गईsss इमोसनsss मेंsss…”
“सैल्वीया डिवीनोरम यानी डिवाइनर्स सेज—कॉज़ेज़ डिसोशीएटिव हैल्यूसिनेशन्स, टाइम/स्पेस वॉर्पिंग…मैज़्टेक शामन्स द्वारा दर्द निवारक के तौर पर सर्वाधिक प्रयुक्त,”
“आ….जा…sss….. डू…..बsss….जा….ऊँsss….न..र्स….डॉरिस….केssss…लोशन मेंsss…”
उस लोशन में एक कॉम्पोनेंट ऐसा था जिसे निमित्त आयडेंटिफ़ाई नहीं कर पाया।
“स्लोsss…मोsss..शssss…नssss…. मेंsss…”
घुप्प अंधकार।
हाँफने की आवाज़! धीमी और घुटी हुई।
किसी बच्ची…नहीं, किसी टीनेज लड़की की। वो डर से बुरी तरह हाँफ रही थी।
निमित्त ने आँखें खोलने की कोशिश की। वो अपने जिस्म का एक रोआँ भी हिला नहीं पा रहा था। उसने उठने का भरसक प्रयत्न किया परंतु निष्फल।
निमित्त ने प्रयत्न करना बंद कर दिया। वो ध्यान लगा कर सुनने की कोशिश करने लगा।
लड़की की साँस डर और ऑक्सिजन की कमी के कारण उखड़ रही थी। उसकी उखड़ी साँसों की आवाज़ के साथ एक और आवाज़ आ रही थी। जैसे कुछ खोदा जा रहा है।
निमित्त को एहसास हुआ कि ये आवाज़ नाखूनों से नर्म भुरभुरी मिट्टी खोदे जाने की है।
अंधकार! चारों ओर सिर्फ़ घुप्प अंधकार और उसमें गूंजती ये आवाज़ें। इस आवाज़ में एक ख़ास बात थी। ये अंदर से बाहर खोदे जाने की ध्वनि थी। यानी वो लड़की किसी गड्ढे या सुरंग में थी…नहीं…कुछ और…एक ताजी खुदी कब्र!
इस पल में निमित्त को एहसास हुआ कि वो हिल क्यों नहीं पा रहा था। उसे साँस क्यों नहीं आ रही थी। वो उस घड़ी उस कब्र के अंदर था। नर्म, भुरभुरी मिट्टी में दबा हुआ। उसके फेफड़ों में ऑक्सिजन ख़त्म हो रही थी। फिर नाखून से मिट्टी खोदने की आवाज़ आई। उसके साथ कोई और भी था उस कब्र में। वो लड़की जो कब्र खोद रही थी।
अब निमित्त अपनी पलकें खोल सकता था, और थोड़ा बहुत शरीर भी हिला सकता था। उसने आस-पास देखने की कोशिश की। अंधकार में कुछ दिखने लगा। कब्र की मिट्टी हट रही थी। आख़िरकार उस लड़की ने बाहर निकलने का रास्ता बना लिया।
“मैं तुम्हारी मदद करता हूँ…” निमित्त उठते हुए बोला। उसका सिर बुरी तरह घूम रहा था…उसे सब कुछ धुंधला नज़र आ रहा था…एक हेज़ी ऐम्प्लिफ़ाइड प्रोजेक्शन की तरह…जैसा सपने में होता है। हमें सपने में सब कुछ वास्तविक दुनिया के मुक़ाबले अनुपात में बड़ा और धुंधला नज़र आता है क्योंकि सपनों में डेप्थ ऑफ़ फ़ील्ड काफ़ी सीमित होती है।
“तुम कौन हो? किसने डाला तुम्हें यहाँ?” निमित्त ने कब्र से बाहर निकलते हुए लड़की से सवाल किया।
लड़की अब तक बाहर निकल चुकी थी और गिरते-पड़ते भागने की कोशिश कर रही थी। उसने पीछे पलट कर देखा।
निमित्त उस लड़की को नहीं पहचानता था। उसने पहले कभी वो चेहरा नहीं देखा था। खून, बरसात के पानी और मिट्टी से सना लड़की का चेहरा भय से सफ़ेद पड़ा हुआ था। उसकी पथराई आँखें निमित्त की दिशा में देख रही थीं और डर से फट पड़ने पर उतारू थीं।
“मुझसे मत डरो, मैं तुम्हें बचाने आया हूँ,” निमित्त ने आगे बढ़ते हुए कहा।
लड़की पर कोई प्रभाव ना पड़ा। वो पहले से भी अधिक भयभीत नज़र आ रही थी। निमित्त को एहसास हुआ कि लड़की उसे देख ही नहीं रही बल्कि उसके पीछे किसी को देख रही है। निमित्त पीछे पलटा। झाड़ियों के पीछे से एक साया बाहर निकल रहा था। निमित्त का चेहरा सख़्त हुआ। मुट्ठियाँ भिंच गईं। अपने नीचे की धरती को रौंदते हुए निमित्त उसकी दिशा में बढ़ा। साया भी उसकी दिशा में बढ़ रहा था।
“मेरी तरफ़ मत आना…” लड़की डर से चीखी।
साये पर कोई असर नहीं हुआ। वो अपने पेस में लड़की की ओर बढ़ रहा था। निमित्त दोनों के बीच आ गया। उसका राइट अपर-हुक साये की ओर बिजली की गति से घूमा।
“सायँsss” निमित्त का हुक पंच साये के आर-पार यूँ निकल गया जैसे उसका शरीर ठोस हाड़-मांस का बना ना होकर कोई त्रिआयामी छाया हो।
“छाया! यह छाया है…एक “एको”…भूतकाल में जो घटित हो चुका उसकी प्रतिध्वनि और छाया मात्र,” निमित्त के मस्तिष्क में विचार कौंधा। “यानी इन्फ़ेस्टेड मेमरी। ठीक वैसी ही जैसी इरा के सब-कॉंशियस में प्लांट की गई थी,”
साया लड़की की तरफ़ बढ़ रहा था। निमित्त ने आगे बढ़ कर फिर एक बार उस साये का रास्ता रोकने की कोशिश की पर वो साया धुएँ के समान निमित्त के आर-पार निकल गया।
“नहीं…नहीं…मेरे पास मत आना,” लड़की उल्टे कदमों से पीछे की तरफ़ हट रही थी।
अचानक उसके पीछे झाड़ियों से एक हाथ निकला और बेरहमी से लड़की के बालों को पकड़ कर उसे झाड़ियों में ऐसे घसीट किया जैसे कोई हिंसक भेड़िया अपने शिकार को खींच लेता है।
“दो हैं…ये दो लोग हैं,” निमित्त सन्न रह गया। वो बेतहाशा झाड़ियों की ओर भागा।
दूसरा साया, जिस पर निमित्त ने वार करने की कोशिश की थी वो भी अब तक उन झाड़ियों के पीछे लोप हो चुका था जिनसे निकले हाथ ने लड़की को खींच लिया था।
निमित्त झाड़ियों के पार निकला। वहाँ जंगल के अलावा कुछ ना था। उसने नीचे देखा। मिट्टी पर कहीं घसीटे जाने के निशान होने चाहिए थे, पर कुछ ना था। ऐसा लग रहा था जैसे वो लड़की, वो हाथ, और वो साया, सब कुछ हवा में घुल गए हों।
“स्कैली? मेरी आवाज़ सुन रहा है?” निमित्त ने स्कैली को पुकारा। कोई जवाब ना आया।
“टन-टनंन-टन्न”
बारिश अब तेज़ हो रही थी। जंगल की धरती पर बिछी, टूट कर गिरी टहनियों और पत्तों पर पड़ती बूँदों के शोर के बीच एक और आवाज़ गूंज रही थी, जो धीमी थी परंतु स्पष्ट सुनाई दे रही थी। घंटियाँ बजने की आवाज़ थी यह। निमित्त ने चारों ओर नज़रें घुमाई।
हवा से लहराते और बारिश में धुँधलाए ऊँचे पेड़ों के समूह के बीच उसे किसी मंदिर की चोटी पर लहराते ध्वज का एहसास हुआ। निमित्त ने ध्यान से उधर देखने की कोशिश की। क्या वो मंदिर वाक़ई काले पत्थरों का बना था या फिर अंधेरे और बारिश के कारण वैसा नज़र आ रहा था? अगर उसकी चोटी पर ध्वजा ना लहरा रही होती तो पेड़ों के समूह में गुम वो भी दूर से एक पेड़ होने का ही आभास देता। निमित्त उसकी तरफ़ बढ़ने की कोशिश करने लगा।
सब कुछ धुंधला नज़र आ रहा था। उसके कदम जैसे उसकी मर्ज़ी अनुसार नहीं पड़ रहे हों। निमित्त को यूँ लग रहा था मानो उसने कच्ची शराब का पूरा पीपा डकार लिया हो।
“ढब-धब्ब-ढब”
बारिश और घंटियों की आवाज़ में एक आवाज़ और जुड़ गई। ये फावड़े या कुदाली से ज़मीन खोदे जाने की आवाज़ थी।
पेड़ों के समूह को पार करता निमित्त मंदिर से अब कुछ ही दूर था। खोदे जाने की आवाज़ तेज़ हो गई थी। निमित्त उस ओर बढ़ा। एक विशाल और बहुत पुराने बरगद के पीछे कुछ था। कुछ ऐसा जिसकी धातुई सतह पर गिरती बारिश की बूँदों का शोर बरगद की सघन जटाओं और पत्तों से दब रहा था। उस पुराने बरगद के नीचे अलग-अलग आकार के ढेरों शिवलिंग रखे थे। उसकी डालों पर ज़ंजीरों से बंधी ढेरों छोटी-बड़ी घंटियाँ लटक रही थीं। घंटियों की आवाज़ यहीं से आ रही थी। निमित्त एक लम्बा घेरा काट कर, वहाँ रखे शिवलिंगों को प्रणाम करते हुए पेड़ के पीछे की तरफ़ बढ़ा। वहाँ पर एक पुरानी ऑम्नी वैन खड़ी थी जिसे सफ़ेद पेंट कर के मिनी-ऐम्ब्युलेन्स का रूप दिया गया था। उसपर चारों तरफ़ पीली पट्टी खींची थी जिसके ऊपर किसी हॉस्पिटल का नाम लिखा हुआ था। अक्षर इतने धुंधले थे कि निमित्त चाह कर भी उन्हें पढ़ ना पाया।
बरगद के पेड़ और वैन को पार करने पर दूर-दूर तक फैली ऊँची जंगली घास थी। यह घास कमर तक ऊँची थी और इतनी सघन थी कि अपने आप में एक जंगल थी। मंदिर इस घास के जंगल के पार था और अब भी इतना अस्पष्ट था कि किसी पेड़ के तने जैसा ही नज़र आ रहा था।
मिट्टी खोदे जाने की आवाज़ इस ऊँची घास के जंगल से ही आ रही थी।
“स्कैली? कहाँ है तू? मुझे अच्छी फ़ीलिंग नहीं आ रही…” निमित्त के होंठ नहीं हिल रहे थे, पर वो बुदबुदा रहा था। स्कैली का कोई जवाब इस बार भी नहीं आया।
लड़खड़ाते कदमों से निमित्त उस ऊँची घास के जंगल में बढ़ा। तक़रीबन बीस कदम आगे बढ़ने पर घास के बीच मिट्टी का टीला लगा हुआ था जो धीरे-धीरे ऊँचा हो रहा था। कोई गड्ढा खोद रहा था…नहीं, गड्ढा नहीं, कब्र! निमित्त जितनी तेज़ हो सका उतनी तेज़ी से उस तरफ़ भागा। वो सही था। मिट्टी के ढेर के पार, ऊँची घास के जंगल के बीचोंबीच एक गहरी कब्र खुदी हुई थी। उस कब्र के अंदर एक शख़्स था, हॉस्पिटल के वॉर्डबॉय जैसी सफ़ेद वर्दी और टोपी में। उसकी पीठ निमित्त की ओर थी। वो कब्र के अंदर था, गोद में उसी लड़की की बॉडी उठाए हुए जिसे निमित्त ने कुछ देर पहले देखा था।
“ऐsss…कौन हो तुम?” निमित्त पूरा ज़ोर लगा कर चीखा।
अब तक वो समझ चुका था कि ये सभी घटनाएँ रियल टाइम में घटित नहीं हो रहीं बल्कि पूर्व घटित घटनाओं का रीप्ले मात्र हैं। फिर भी उस बच्ची का शव देख कर निमित्त अपने क्रोध और भावनाओं के नियंत्रित नहीं कर पाया।
“कौन है तू? क्या किया है तूने बच्ची के साथ?” निमित्त क्रोध में गरजा। उसे उस वॉर्डबॉय की सूरत देखनी थी। वो जानता था कि वॉर्डबॉय की पहचान इस पूरी गुत्थी को पल में सुलझा देगी।
“कौन है तू? मुझे जानना है कौन है तू?” निमित्त दहाड़ते हुए आगे बढ़ा।
निमित्त का इरादा कब्र में उतर कर वॉर्डबॉय की सूरत देखने का था। वो लड़खड़ाते कदमों से ढलान पर उतरा। उसके बूट ढलान की भुरभुरी मिट्टी में धँसने लगे। कब्र बहुत गहरी खोदी हुई थी, लगभग 10-12 फुट गहरी। निमित्त के उतरने से ढलान की मिट्टी नीचे कब्र में मिनी लैंड्स्लाइड की तरह गिरने लगी। अपनी ग्रिप बनाने के लिए निमित्त के हाथ मिट्टी की दीवार में कुछ टटोल रहे थे।
कब्र गहरी होने की वजह से उसकी खड़ी दीवार में आस-पास के पेड़ों की गहरी जड़ें निकली नज़र आ रही थीं। निमित्त ऐसी ही उभरी हुई जड़ पर ग्रिप बनाने की कोशिश करने लगा जिससे वो आसानी से नीचे उतर सके। उसकी उँगलियाँ मिट्टी में किसी चीज़ से टकराई।
निमित्त ने फ़ौरन अपनी ग्रिप बनाने की कोशिश की। उसकी उँगलियाँ उस जड़ जैसी चीज़ पर कसीं। निमित्त के पूरे शरीर में जैसे करेंट की लहर दौड़ गई। ग्रिप बनाने पर उसे एहसास हुआ कि जिस चीज़ को उसने थामा है वो किसी पेड़ की जड़ नहीं बल्कि किसी की बाँह है…उस कब्र की दीवार में दफन किसी गुमनाम लाश की बाँह। निमित्त के खींचने पर बाँह समेत निर्जीव शरीर मिट्टी की भुरभुरी दीवार से बाहर झांकने लगा। वो एक और बच्ची की लाश थी। ज़्यादा पुरानी नहीं।
उसकी आँखें खुली हुई थीं और नाक, मुँह और आँख में मिट्टी भरी हुई थी, जिसके बावजूद कब्र में नीचे गिरते निमित्त को यूँ लगा जैसे उस लाश की खुली, मिट्टी भरी निर्जीव आँखें उसे ही घूर रही हैं।
टाइम जैसे फिर से वॉर्प होने लगा।
निमित्त जैसे स्लो-मोशन में नीचे गिर रहा था। कब्र की दीवार से लड़की की लाश आधी बाहर लटकी हुई, किसी पुरानी घड़ी के पेंडुलम के जैसी झूल रही थी। उसके खुले मुँह में भरी मिट्टी नीचे गिरते निमित्त के ऊपर गिर रही थी।
निमित्त को ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उस लाश के मुँह से गिरती मिट्टी धीरे-धीरे बढ़ती चली जा रही है, जैसे उस लाश को खोखला कर के किसी स्टफ़्ड टॉय की तरह उसके अंदर मिट्टी भर दी गई हो। स्लो-मोशन में नीचे गिरता निमित्त कब कब्र की सतह से टकराया और कब ऊपर अध-लटकती लाश; जिसके झूलने की गति पेंडुलम की भाँति मोमेंटम ले चुकी थी, उसको मिट्टी बरसाते हुए दफन करती चली गई, इसका निमित्त को एहसास ना हुआ।
निमित्त का दिमाग़ अंधकार में डूब रहा था। उसका शरीर नीचे कब्र के तल पर था। निमित्त के चेहरे के पास, मुश्किल से आधे हाथ की दूरी पर काले चमड़े की कोल्हापुरी चप्पल पहने दो पैर खड़े हुए थे, जो कि वॉर्डबॉय के थे। निमित्त ने सारी इच्छाशक्ति बटोर कर अपना चेहरा ऊपर की ओर उठाया ताकि उस वॉर्डबॉय की शक्ल देख सके। ऊपर से गिरती ढेरों मिट्टी निमित्त को उस कब्र में दफन करती चली गई।
चारों ओर फिर से अंधकार छा गया।
“एन.के. ssss” इरा के चीखने की आवाज़ से निमित्त की आँखें खुली।
वो कोठी में उसी रूम में बेड पर सोया हुआ था जहां नर्स डॉरिस ने उसे दवाई लगाने के बहाने बेहोश किया था।
निमित्त चौंक कर उठ बैठा। उसके जागने के साथ ही उसके पैरों के पास सोया अल्फ़ा चौकन्ना हो गया।
“एन.के. ssss….हेल्प ssss” इरा की हर क्षण दूर होती आवाज़ फिर से सुनाई दी।
स्प्रिंग लगे गुड्डे की तरह उछल कर निमित्त बेड से उतरा। ग़नीमत यह थी कि उसके कपड़े उसके शरीर पर मौजूद थे। शायद उसके बेहोश होने के बाद नर्स डॉरिस ने पहनाए थे।
“चल अल्फ़ा…जल्दी!” रूम का दरवाज़ा खोल कर निमित्त बाहर भागते हुए बोला। अल्फ़ा उसके पीछे भागा।
बाहर घोर सन्नाटा पसरा हुआ था। पूरी कोठी गहन अंधकार में डूबी थी, ऐसा लगता था जैसे काफ़ी रात बीत चुकी हो।
निमित्त को कोई अंदाज़ा नहीं था कि वो कितने घंटे बेहोश था। उसने अपनी डिजिटल रिस्ट वॉच पर नज़र डाली। घड़ी बंद थी। उसने आसमान की तरफ़ देखा। निमित्त के अंदाज़न उस वक्त रात के दो-ढाई बज रहे थे। इस समय इरा क्यों चीखी? बाहर कॉरिडोर में गार्ड्ज़ भी नहीं थे।
“गार्ड्ज़ कहाँ गए?” निमित्त खुद में बड़बड़ाया।
वो इरा के रूम की तरफ़ भागा। इरा के रूम का दरवाज़ा खुला हुआ था जब कि बाक़ी सभी रूम्स के दरवाज़े बंद थे। इरा का रूम ख़ाली था, वो रूम में नहीं थी।
“इरा? इराsss…?” निमित्त के पुकारने पर कोई जवाब ना आया।
निमित्त रूम से बाहर निकला। बाक़ियों को जगाने का समय नहीं था। इरा की आवाज़ से उसने अंदाज़ा लगाया कि वो कोठी से अधिक दूर नहीं होगी। लॉबी में भागते हुए निमित्त कमरों के पीछे के हिस्से की तरफ़ पहुँचा। ये कोठी का पिछला भाग था जहां पिछली रात उसने मल्हार और उस शामन को देखा था। वहाँ भी कोई नहीं था। निमित्त ने पहली मंज़िल की बाल्कनी से नीचे झांक कर देखा। गार्डेन का पिछला हिस्सा ऊँचे पेड़ों और घनी झाड़ियों से अटा हुआ था जिन्होंने बैक बाउंड्री वॉल को लगभग पूर्णतः ही कवर किया हुआ था फिर भी उसके बीच एक छोटा ग्रिल गेट दिखाई ड़े रहा था जो उस घड़ी खुला झूल रहा था।
“यहाँ पर भी गार्ड होना चाहिए था। सारे सिक्योरिटी वाले आख़िर गए कहाँ?” निमित्त ने उलझन में एक पल से अधिक ना गँवाया।
बाल्कनी से उसने ग्राउंड फ़्लोर के पोर्टिको पर छलांग लगाई और वहाँ से किसी कुशल ऐक्रोबैट की तरह झूलते हुए नीचे लॉन में उतर गया। ग्रिल गेट के दूसरी तरफ़ एक संकरा रास्ता था, बैकडोर ऐली जैसा, जिसपर दोनों तरफ़ से बोगनविलिया की झाड़ियाँ झुकी हुई थीं। निमित्त उस रास्ते से बाहर निकला। वो संकरी बैक ऐली गिरीश बाबू की प्रॉपर्टी के दूसरे हिस्से तक जाती थी जहां उनका प्राइवेट गोल्फ कोर्स और हॉर्स रैंच एक सौ बीस एकड़ में फैले हुए थे।
कोठी के पीछे पड़ने वाले गोल्फ कोर्स और हॉर्स रैंच एक हिस्से में थे जब कि ऐली का दूसरा हिस्सा आगे जा कर वेस्टर्न घाट के तराई जंगली क्षेत्र की ओर निकलता था। निमित्त उस ओर भागा।
“इराsss…इराsss”
घुप्प अंधकार में पथरीले पहाड़ी रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए निमित्त का सहारा सिर्फ़ चंद्रमा की रौशनी थी। सघन लताओं और जंगली बेलों के जाल काई लगे पत्थरों और पेड़ों पर अपना साम्राज्य जमाए हुए थे, इनके बीच जंगली मशरूम के गुच्छे जैसे प्रकृति द्वारा “स्प्रे आर्ट” बनाते हुए जगह-जगह छींट दिए हों। पेड़ों से छन कर आती चाँदनी आगे सघन होते जंगल को प्रकाशमान करने के लिए अपर्याप्त थी। सावधानी से आगे बढ़ने की कोशिश के बावजूद निमित्त जगह-जगह बेलों के जाल के नीचे छुपी चट्टानों से टकरा कर गिरता, संभलने की कोशिश करता और फिर भागना शुरू करता। आगे जा कर रास्ता छितर रहा था, अब वो एक सीधे रास्ते पर नहीं था। यहाँ से अंदाज़ा लगाना मुश्किल होने वाला था कि किस ओर आगे बढ़ना है।
निमित्त स्थिर होकर खड़ा हो गया और ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करने लगा।
उसके दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा ऊपर आसमान की तरफ़ उठी हुई थीं और बाएँ हाथ की तर्जनी और मध्यमा नीचे धरती की ओर। बाँहें तनी हुईं और शरीर सीधा।
“एज़ अबव, सो बिलो। एज़ विद-इन, सो विद-आउट,”
उसके कानों में तीखी सीटी बजने लगी और फिर सब शांत हो गया।
निमित्त ने आँखें खोली। उसे पता था कि अब उसे किस तरफ़ बढ़ना है। निमित्त भागा…जान फेंक कर भागा। उसका सबसे बड़ा डर उस पर हावी हो रहा था। यह डर एक बार फिर परास्त होने का नहीं था, क्योंकि जीत के लिए तो वो कभी लड़ा ही नहीं। यह डर था एक और मासूम को बचाने में नाकाम होने का।
जाने कितनी ही देर तक भागता रहा वो। और फिर एक ख़ून जमा देने वाली चीख गूंजी।
“ईsssss…”
निमित्त के जिस्म की हर नस में वो चीख जैसे करेंट बन के गुजरी। चीख इरा की थी। निमित्त के घुटने जवाब देने लगे, हाथ-पैर ढीले पड़ गए। बहुत मुश्किल से अपनी पूरी ताक़त बटोर कर वो पेड़ों को समूह को पार करता हुआ उस समतल भू-भाग तक पहुँचा जहां कुछ दूर पर नदी बह रही थी। नदी के किनारे ऊँची उगी जंगली घास के अलावा छोटे-बड़े आकार की उभरी चट्टानें थीं जिनमें से एक के ऊपर एक आकृति लेटी नज़र आ रही थी। आकृति बिल्कुल स्थिर थी, बिल्कुल निर्जीव।
“नहीं…नहीं…नहीं…” निमित्त लड़खड़ाते हुए उस आकृति की ओर भागा।
चाँद की रौशनी नदी की स्थिर सतह पर झिलमिला रही थी और उन पर से होती हुई किनारे पर बिछी ऊबड़-खाबड़ चट्टानों की चादर पर अजीब ढंग से प्रकाश और छाया की कृत्रिम कलाकृति प्रस्तुत कर रही थी। जैसे-जैसे निमित्त आगे बढ़ रहा था चट्टान पर लेटी आकृति के ऊपर से छाया हटती जा रही थी और चाँदनी उसे यूँ अपने आग़ोश में ले रही थी जैसे वो चट्टान और आकृति किसी ब्रॉडवे प्ले के स्टेज पर सेंट्रल कैरेक्टर हों जिनके ऊपर कायनात चाँद की स्पॉटलाइट फ़ोकस कर रहा है।
चाँद की स्पॉटलाइट अब आकृति के निर्जीव अस्तित्व को अपनी शीतलता से सराबोर करते हुए एक अल्प-पारदर्शी चाँदी के आवरण में लपेटती प्रतीत हुई।
“इराsss…” निमित्त गला फाड़ कर चीखा।
इरा के निर्जीव शरीर तक का फ़ासला तय करने में निमित्त को यूँ एहसास हुआ जैसे उसके अस्तित्व के हर कण ने गहन वेदना और घोर मृत्यु तुल्य पीड़ा का वरण करते हुए आंतरिक अंतर्नाद किया है। उस चट्टान तक पहुँचने तक निरंतर उसका दिमाग़ बार-बार यही दोहरा रहा था कि ये सिर्फ़ उसकी फ़ियर इंड्युस्ड, हेविली सिडेटेड, ऐंग्ज़ाइटी ट्रिगर्ड ओवर इमैजिनेशन द्वारा क्रीएटेड हाइपर रीयलिस्टिक फ़ॉल्स प्रोजेक्शन है…लेकिन वो ग़लत था।
वो इरा ही थी।
दूर से देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे वो इत्मिनान से नदी किनारे चट्टान पर पीठ के बल लेटी ऊपर आसमान में चाँद को खुली आँखों से एकटक निहार रही है। पास आने पर एहसास होता था कि जिस चट्टान पर वो लेटी है वो खून की छींटों से सराबोर थी। इरा के जिस्म से रिसता रक्त चट्टान के आस-पास की ऊँची जंगली घास और नदी के किनारे की नम मिट्टी को सींच रहा था।
“इराsss…” निमित्त के काँपते हाथों ने इरा को स्पर्श किया, उसका जिस्म ठंडा पड़ चुका था। चेहरा बेजान और आँखें पथराई हुई। कलपते हुए निमित्त ने इरा के शव को गोद में उठा कर सीने से लगा लिया।
“ये नहीं हो सकता…इरा….ssss…” गहन वेदना अब आक्रोश का सैलाब बन कर निमित्त की आँखों से फूट रहा था। इरा के चेहरे को अपनी अंजुलि में भर के ज़ार-ज़ार होकर रोया निमित्त।
“आई एम सॉरी इरा…आई एम सो..सो…सॉरी,”
दर्द बर्दाश्त ना हुआ।
“मम्मी…” ऊपर आसमान की तरफ़ चेहरा कर के चीखा निमित्त, “क्यों? क्यों होने दिया आपने ऐसा? क्या मैं…क्या मैं इतना अयोग्य हूँ? क्या मेरी अयोग्यता का एहसास मुझे कराने की क़ीमत एक मासूम की जान है?”
“ईsss…ही..ही..ही..ही..ही..” वातावरण में एक पगलाहट भारी हंसी गूंजी।
“मुझ पर भरोसा करोsss….मुझ पर भरोसा करने वाले का आज तक बुरा नहीं हुआsss…” कोई निमित्त की नक़ल उतार रहा था।
निमित्त की नज़रें चारों तरफ़ उस शख़्स को ढूँढते हुए सामने, घास के मैदान के पार खड़े दो पठारों पर जा टिकी। एक पठार के पीछे से एक आकृति निकल रही थी।
“कब तक दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाएगा निमित्त कालांत्री? या फिर तेरा पागलपन..तेरा स्किट्ज़ोफ़्रीनीया इतना बढ़ गया है, तू इतना बड़ा पागल हो चुका है कि दुनिया के साथ-साथ तू ख़ुद को भी बेवक़ूफ़ बना रहा है?” वो साया निमित्त की तरफ़ नाचते हुए बढ़ रहा था…जैसे अकेले ही टैंगो कर रहा हो।
“तुझ पर भरोसा कर के आज तक किसी का भला नहीं हुआ। चाहे वो तेरा परिवार हो जिसे तू ये…ये मॉडर्न मिस्टिक…भाड़े का अघोरी-ओझा बनने के लिए छोड़ आया, चाहे तेरे संगी-साथी, या फिर वो जिन्हें तुझ पर भरोसा था…तूने सबको छला है कालांत्री…तेरे जैसे इंसान को जीने का कोई अधिकार नहीं। तेरा साया जिस किसी पर भी पड़ेगा उसका हश्र इस लड़की जैसा ही होगा,”
आंसुओं से भरी निमित्त की आँखें जलते अंगारों के समान धधक उठीं, “कौन हो तुम?”
“तेरी मौत हूँ मैं…मरेगा तू…आहाहाहा…मरेगा,”
“त्रियो किलर?” निमित्त के भिंचे जबड़ों से जैसे ज़हर से लिसड़ा हुआ निकला वो नाम।
“अले-ले-ले-ले-ले…तू नहीं जानता? क्या हुआ द ग्रेट निमित्त कालांत्री की सुपर पावर्स को? अपने उन सड़े हुए पत्तों से नहीं पूछेगा कि मैं कौन हूँ, जिनसे तू दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाता है साले फ़्रॉडिए…आहाहाहा…मुझ पर नहीं चला ना तेरा “काला जादू”…अहह..हाहाहाहा…आजा मेरी जान…कम डान्स विद मी…देखो…मैं नॉरा फ़तहि हूँ…ईss…हिहिहिही..” नॉरा फ़तहि के बेली डान्स की भौंडी नक़ल करते हुए शख़्स आगे आया। वो सिर से पैर तक काले लिबास से ढँका था और चेहरे पर उसने “स्कल मास्क” लगाया हुआ था। उसके हाथ में एक लम्बी और धारदार कटार थी जिससे खून टपक रहा था।
“क्यों मारा तूने इरा को?”
“क्योंकि तेरा सबसे बुरा ख़्वाब हूँ मैं…एज़ अबव, सो बिलो के बीच भी एक चीज़ होती है…गहन अनंत अंधकार! मैं वो हूँ, जो तेरे समूचे अस्तित्व को लील जाएगा कालांत्री। तू कालांत्री है तो मैं कालरात्रि हूँ…ई…हिहिही…हाहाहा…” खुद को कालरात्रि पुकारते उस शख़्स ने दोनो भुजाएँ ऊपर उठा कर अट्टहास किया, रात्रि का अंधकार जैसे और अधिक गहरा गया।
निमित्त ने अपने अंतर्मन में इतनी तीव्र हृदयविदारक वेदना पहले भी महसूस की थी। जब जीवन उसे मृत्यु की कगार पर ले आया था। निमित्त के अस्तित्व पर एक पल के लिए ही सही, कालरात्रि का कथन काली स्याही के समान पुत गया। इरा की मृत्यु के बाद वो वैसे भी हार चुका था…खुद अपनी नज़रों में। अपने वजूद पर एक और मृत्यु का बोझ लेकर जीने की हिम्मत नहीं थी निमित्त में।
“हेहेहेहे…क्या हो गया यक्षिणी साधक? ऊवां…उवाँ…मम्मी-मम्मी मुझे बचा लो…मुदे मेली मम्मी ते पाथ दाना है…हिहिही…हाहाहा,” निमित्त को मॉक करते हुए कालरात्रि नाच रहा था और कमर से आगे को झुक कर ट्वर्क कर रहा था।
निमित्त की आँखों से आंसुओं की अंतिम बूँदें जलते अंगारों के समान उसके गालों पर ढलक गयीं। उसने अपनी गोद से उतार कर इरा को आहिस्ता से वापस चट्टान पर रख दिया। आज निमित्त वो अक्षम्य अपराध करने को तैयार था जो उसने प्रतिज्ञा ली थी कि वो कभी नहीं करेगा…किसी की जान लेना।
“ई…हाहाहाहा…कम बेबी कम…लेट्स डान्स…हिहिही,” कालरात्रि यूँ उछल रहा था जैसे किसी जंगली मेंढक को जलते तवे पर बिठा दिया हो।
निमित्त ने अपना कड़ा ऊपर चढ़ाया और अपने नीचे धरती को रौंदता हुए आगे बढ़ा।
तभी कहीं दूर जंगल की ओर से एक आवाज़ उभरी।
“हाऊssss……ssss”
भेड़िए का रुदन!
किसी आम भेड़िए का नहीं, ये उस ग्रे-वुल्फ़ का रुदन था जो निमित्त को अक्सर रहस्यमयी रूप से दिखाई देता और फिर ओझल हो जाता था।
“हाऊssss……ssss”
“वुफ…वूssss…” उस रुदन में एक और रुदन शुमार हुआ।
इस आवाज़ को भी निमित्त अच्छी तरह पहचानता था…ये अल्फ़ा था।
“मैंने कहा था ना कालांत्री, तेरा सबसे बुरा ख़्वाब हूँ मैं। एज़ अबव…सो बिलो के बीच का अंधकार जो तेरे समूचे अस्तित्व को लील जाएगा,” कालरात्रि स्थिर खड़ा हुआ। अब वो नाच नहीं रहा था।
आगे बढ़ता निमित्त ठिठक कर रुक गया। कालरात्रि अपने चेहरे से मास्क हटा रहा था।
“नहीं…ये नहीं हो सकता,” मस्क के पीछे का चेहरा देख कर निमित्त की तंत्रा को आघात लगा।
कालरात्रि ने मास्क नीचे गिरा दिया। निमित्त के सामने काला लिबास पहने खुद निमित्त खड़ा था।
“नहीं…ये कैसे हो सकता है?” निमित्त चीखा।
“तू अब भी नहीं समझा…हाहाहाहा…तू ख़ुद अपना सबसे बड़ा दुश्मन है कालांत्री…हाहाहाहा, आजा.. आगे बढ़, मुक़ाबला कर! अगर थोड़ी भी मर्दानगी बची है तो मार मुझे वरना चूड़ियाँ और नथ पहन कर हिजड़ा बन जा…हाहाहा,” कालरात्रि निमित्त का उपहास करते हुए ठहाका लगा रहा था।
“तू जो भी इंद्रजाल रच रहा है मुझ पर काम नहीं करेगा। तुझे ख़त्म कर दूँगा मैं,” निमित्त चीखते हुए आगे बढ़ा।
“ईss…हाहाहा…यही तो मैं चाहता हूँ…अमरत्व की ओर बढ़ता मैं….ईहाहाहाहाsss…मार कालांत्री मार मुझे…पर मैं कौन? मैं तो तू ही हूँ…आजा…खुद को मार,”
“हाऊssss……ssss”
“वुफ…वूssss…”
आवाज़ इस बार निमित्त के पीछे से उभरी। निमित्त ठिठक कर पीछे पलटा। नदी के किनारे अल्फ़ा और ग्रे वुल्फ़ ऊपर चाँद को देख कर रुदन कर रहे थे, नदी की सतह पर कुछ हलचल हुई और पानी से एक लाल, विचित्र आकार का लॉब्स्टर बाहर निकला। निमित्त की सोच को जैसे फिर एक शॉक लगा। उसने नदी की सतह पर देखा। चाँद, अल्फ़ा और ग्रे-वुल्फ़, लॉब्स्टर और वो पूरा सिनैरीओ उल्टा नज़र आ रहा था। निमित्त के मुँह से स्वतः ही निकला,
“ये..ये टैरो है…”द मून” कार्ड…नहीं…द मून कार्ड दिखाता है मतिभ्रम, इंद्रजाल, नज़रों का धोखा, इल्यूज़न…पानी में पड़ता प्रतिबिम्ब कहता है कि ये “द मून” कार्ड सीधा यानी अपराइट नहीं बल्कि “रिवर्स्ड” है…यानी मतिभ्रम का अंत, इंद्रजाल टूट रहा है, धोखा और धोखा करने वाला सामने आएगा।” निमित्त कालरात्रि की तरफ़ पलटा, “ये टैरो मेरा अंतर्मन मुझे दिखा कर आगाह कर रहा है, मतलब मैं अब भी जागा नहीं…मैं अब भी सपने में हूँ जिसमें किसी ने इन्फ़ेस्टेशन की है,”
“ईssss…या….” कालरात्रि अपना कटार वाला हाथ उठा कर निमित्त को मारने दौड़ा।
“किरर्र….बज़zzz…” वातावरण में ऐसी आवाज़ गूंजी जैसे रेडियो फ़्रीक्वेन्सी ट्यून की जा रही हो।
“मेहरबान…कद्रदान…साहेबान…पानदान…पीकदान…मरून चड्डी वाले शक्तिमान…गुलबदन…गुल-ए-गुलशन, शाहरुख़, ह्रितिक, आमिर और सलमान…अपनी कुर्सियों की पेटी बांध लीजिए, पजामों के नाड़े टाइट कीजिए और फ़ोन की स्क्रीन थोड़ी ब्राइट कीजिए..दिस इज़ योर कैप्टन स्कैली, फ़्लाइट नम्बर “हौला 777” का चार्ज अब हम सम्भाल रहे हैं, आगे आपको जरा ज़ोर के झटके ज़्यादा ज़ोर से लगने की सम्भावना सेठ है,” स्कैली की आवाज़ पूरे वातावरण में गूंजी।
“बूम!!” एक ज़ोर का धमाका हुआ और निमित्त की ओर बढ़त कालरात्रि सूखे पत्ते की तरह एयर-प्रेशर से पीछे हवा में कई फुट ऊपर कलाबाज़ियाँ खाते हुए एक पेड़ से टकराया।
“स्कैली आ गया! कहाँ था तू स्कैली?” निमित्त स्कैली की आवाज़ सुन कर इतना खुश जीवन में शायद पहली बार हो रहा था।
“तू हौले का हौला ही रहेगा…सस्पेन्स रिवील हमेशा क्लाइमैक्स के लिए बचाने का, मिड-ऐक्शन में नो जास्ती बड़-बड़, ओन्ली बड़ा-बड़ा बूम-बूम,” आसमान में चाँद की जगह अब स्कैली अट्टहास करता नज़र आ रहा था। निमित्त के सपने में चाँद स्कैली में बदल गया था।
नीचे गिरा कालरात्रि कीड़े की तरह रेंगते हुए वहाँ से भागने की कोशिश कर रहा था। एक और हवा के झोंके ने उसे दोबारा उठा कर पास की चट्टान पर पटकनी दे दी।
“तो देवियों और सज्जनों अब टाइम है आयडेंटिटी रिवील का। ये पिलपिला क्या बोला था हौला? ये तेरी मौत है? मेरे को ना…ही..ही..ही..तेरी मौत का नंगा नाच देखने का है…हिहिही,” चाँद की जगह नज़र आता स्कैली अट्टहास करते हुए बोला।
कालरात्रि का शरीर हवा में उठने लगा और यूँ अप्राकृतिक कोणों पर तुड़ने मुड़ने लगा जैसे कोई “पेपर-बॉल” बना रहा हो।
“इयाssss….” अब कालरात्रि अट्टहास नहीं कर रहा था, उसकी दर्द में डूबी चीखें पूरे वातावरण में ऐसे गूंज रही थीं जैसे वास्तव में उसके जिस्म की एक-एक हड्डी को कई सौ टुकड़ों में तोड़ा जा रहा हो। उसके शरीर से काला लिबास हटने लगा, उसका चेहरा परिवर्तित होने लगा।
“लेडीज़ एंड लेडाज़, आई गिव यू पोपले राजा की तीसरी टांग,” स्कैली ड्रमैटिक टोन में बोला।
“मल्हार गोखले..” निमित्त की ज़ुबान से निकला।
“उर्फ़ मंथरा…येइच है तेरी पिलपिली चुड़ैल, हौले।” स्कैली उसका वाक्य पूरा करते हुए बोला।
पेपर बॉल की तरह मुड़ने के बाद जब कालरात्रि सीधा हो कर नीचे गिरा तब वो मंथरा में तब्दील हो चुका था और अपने चेहरे पर व आँखों में जमाने भर की घृणा लिए निमित्त को घूर रहा था और गालियाँ बक रहा था।
“क्या रे? माना मेरा हौला थोड़ा “स्लो” है, इसीलिए तो उसको हौला बुलाता है मैं। पर तूने तो हौले को हलवा समझ लिया कि तू मुँह खोल के गप्प कर लेगा…जैसे तेरे राजे के लड्डू हों। बिग मिस्टेक किया मैन…मतलब वुमन…मतलब दे-देम, अल्फ़ा की बीटा में गामा…जो भी तू है। माई हौला इज़ नो हलवा…ओन्ली जलवा…देखेगा?…देखेगी? ले देख!”
मंथरा ने बोलने को मुँह खोला लेकिन उसका मुँह ग़ायब हो गया। मुँह की जगह खाल थी, उसकी नाक के दोनों छेद भी ग़ायब हो गए। उसका शरीर ऐंठने लगा। किसी सिर कटे मुर्ग़े के समान बुरी तरह तड़फड़ाने लगा वो।
“तूने ग़लत आदमी के अंतर्मन में सेंध लगा ली लंगड़े लोमड़े, यह स्कैली का साम्राज्य है, यहाँ सिर्फ़ मेरा एकाधिकार चलता है।
“इरा ठीक है ना?” निमित्त ने उस चट्टान की तरफ़ देखते हुए सवाल किया जहां कुछ देर पहले इरा की लाश थी पर अब वहाँ कुछ भी ना था। ना लाश, ना खून।
“बिल्कुल ठीक है। इस हरामज़ादे ने सिर्फ़ तेरे अंतर्मन के भय को तेरे विरुद्ध हथियार बनाने की कोशिश की है। जिसके लिए एक मासूम बच्ची को ज़रिया बनाया इस घिनौने जंतु ने। ख़त्म कर दे इसे हौले। कटार उठा और बहुत ही आहिस्ता-आहिस्ता गला रेत डॉल इसका। यहाँ इसे मार के तू किसी की जान लेने का भागी भी नहीं बनेगा क्योंकि ये तो सिर्फ़ एक सपना है, लेकिन इसके दिमाग़ का एक हिस्सा मर जाएगा। लंगड़ा लोमड़ा चालाकी नहीं दिखा पाएगा,” स्कैली निमित्त से बोला।
“फिर इसमें और मुझ में क्या फ़र्क़ होगा स्कैली? जो आप दे नहीं सकते वो लेने का अधिकार आपका नहीं। सपना अगर यथार्थ जितना सजीव है तो उसमें किए गए अपराध की उत्कटता भी उतनी ही तीव्र हुई। मुझे ये नहीं करना, बस इसे निकालो यहाँ से हमेशा के लिए।” निमित्त भावहीन स्वर में बोला।
“ठीक है…कर ले तू अपने मन की, बाद में आएगा मेरे पास रोता हुआ तब पूछूँगा,” स्कैली चिढ़ कर बोला।
“स्कैली…”
“ठीक है-ठीक है…लेकिन इतनी आसानी से तो नहीं निकालूँगा। “काला जादू देखना था ना इस लंगड़े लोमड़े को? चलो इसको “काला जादू” दिखाते हैं,” स्कैली धूर्त भाव से हंसते हुए बोला।
“स्कैली…” निमित्त ने अपना सिर पकड़ लिया।
“तो लेडीज़ एंड लेडाज़, “स्कैलीज़ क्रैश कोर्सेज़ इन काला जादू” में आप सबका स्वागत है। हमारे यहाँ आपको या आपके परिवार को परेशान करने वाले पिस्सुओं का हंड्रेड पर्सेंट सफल इलाज करने के “नॉट सो घरेलू” नुस्ख़े बताए जाते हैं, वो भी बिल्कुल मुफ़्त…मुफ़्त…मुफ़्त,” स्कैली ने फिर ड्रामाई अन्दाज़ में बोलना शुरू किया।
“तो आज हम बनाएँगे एनिमी बैनिशिंग स्पेल ज़ार। इसके लिए सबसे पहले एक “ब्लैक जार” लें।”
निमित्त ने देखा कि नदी के पानी पर तैरता हुआ एक काले काँच का विशाल जार वहाँ आ गया।
“इसमें हम डालेंगे काली कॉफ़ी…शत्रु की ऊर्जा क्षीण करने के लिए, जंग लगी कीलें उसके इरादों को भेदने, डिके करने और उनका क्षरण करने के लिए, काली मिर्च उनकी घृणा व कोप को वापस उन तक पहुँचाने के लिए, लहसुन उनकी बुराई को बांधने के लिए, मरे हुए कीड़े उनकी नकारात्मक ऊर्जा और कुत्सित इरादों का अंत दर्शाने के लिए…” स्कैली के बोलने के साथ-साथ ये सारी चीज़ें हवा में उड़ते हुए काले जार में गिरने लगीं।
“अब अपने शत्रु को सू-सू स्नान करवाइए…आई मीन उसका नाम पेपर पर लिख कर उस पेपर को…हमारे पास पूरा समूचा शत्रु है तो हम उसका ही यूज़ करेंगे…डिस्क्लेमर…ये वाला पार्ट ऑप्शनल है…बट इट्स द फ़न पार्ट…हिहिही…बेटा अल्फ़ा…प्लीज़ डू द ऑनर्स,” स्कैली के कहने पर अल्फ़ा आगे बढ़ा और छटपटाती मंथरा को सिर से पैर तक “भिगो” दिया।
“अब अपने शत्रु…आइ मीन उसके नाम वाले पेपर को ब्लैक जार में सील पैक कीजिए और जार पश्चिम दिशा में फेंक दीजिए,” स्कैली के इशारे पर तड़पती मंथरा हवा में तैरते हुए जार में समा गई और ढक्कन बंद हो गया।
“जार को स्पेल कास्ट कर हौले,”
“मैं तुझे अभिशापित करता हूँ कि तू मेरे प्रति जो भी कुत्सित कर्म, कथन, कृत्य अथवा कल्पना रखेगा वो दस हज़ार गुणा बहुगुणित हो कर तुझ पर ही वापस आएगी,” निमित्त ने जार की तरफ़ हाथ सीधा करते हुए कहा।
सील्ड जार नदी के पानी में गिरा और पश्चिम दिशा में बह चला।
“ये तेरे सपने और तेरे अंतर्मन से हमेशा के लिए निकल जाएगा, लेकिन ये “स्पेल-जार” रियल टाइम में भी इसपर काम करेगा,” स्कैली ने निमित्त से कहा।
“अब सिलसिलेवार ढंग से बताओ कि आख़िर हुआ क्या था?” सहमति में सिर हिलाते हुए निमित्त ने सवाल किया।
“ड्रीम स्नैचिंग…ऐस्ट्रल हाइजैकिंग…ल्यूसिड अब्डक्शन,” स्कैली ने जवाब दिया।
“यानी मैं किसी और के सपने में था?”
“सही समझे। नर्स डॉरिस ने तुम्हें डेलिरीएंट्स दे कर कुछ समय के लिए कोमा लाइक स्टेट में डाल दिया। यहाँ से तुम्हारी कॉंशियसनेस को हाईजैक किया गया और या तो खुद नर्स डॉरिस या फिर किसी दूसरे इंसान के सपने में डाल दिया गया। इसीलिए तुम उस सपने को देख तो रहे थे पर उसका हिस्सा नहीं थे। तुमने वहाँ क्या देखा मैं नहीं जानता क्योंकि मैं तुम्हारे सब-कॉंशियस में हूँ लेकिन क्योंकि उस शख़्स के सपने में सिर्फ़ तुम्हारी चेतना थी इसलिए मेरा वहाँ ऐक्सेस नहीं था,”
“हुम्म…इसीलिए मेरे पुकारने पर भी तुम वहाँ नहीं आए,”
“येप्प! ये चान्स की बात है कि जिस समय तुम्हारी चेतना उस शख़्स के सपने में थी उसी समय ये लंगड़ा लोमड़ा तुम्हें ढूँढते हुए ऐस्ट्रल प्रोजेक्शन कर रहा था। तेरे उस राजे..संजीव गौतम के सिर्फ़ दो चेले ही इतनी बेहतरीन ऐस्ट्रल प्रोजेक्शन कर के किसी के अंतर्मन में घुस कर उसके विचार परिवर्तित कर सकते हैं,,,एक तू और दूसरी वो मीठी मंथरा।”
“क्योंकि मेरी चेतना किसी और के सपने में थी और इस वजह से तुम निष्क्रीय थे, तो मंथरा के लिए मेरी सब-कॉंशियस में घुसना इतना ही आसान था जितना किसी वायरस के लिए बिना फ़ायरवॉल के सिस्टम में घुस कर उसे करप्ट करना,”
“बिल्कुल। और वही उसने किया। तुम्हारी चेतना जब ड्रीम अब्डक्शन से निकल कर वापस आई तो उसे लगा तुम जाग गए, पर तुम वास्तव में नहीं बल्कि उस इंद्रजाल उस सपने, उस मतिभ्रम में जागे जो इतनी देर में मंथरा ने तुम्हारे लिए बुना था,”
“हुम्म…”
“लेकिन तुम्हारे अंतर्मन का कोई एक हिस्सा है जिसका फ़ायरवॉल अभेद्य है, जहां ना मैं जा सकता हूँ ना मंथरा। वो किसी ना किसी तरह तुम्हें हर बार बचा लेता है। इस बार भी उसने तुम्हें “द मून” रिवर्स्ड टैरो कार्ड दिखा कर एहसास कराया कि तुम वास्तव में जागे हुए नहीं हो,”
“अगर ना कराता तो?”
“मैंने तुमसे कहा था ना कि मंथरा को यहाँ मार दो, वो मरेगा नहीं पर उसके दिमाग़ का एक हिस्सा रियल टाइम में ख़त्म हो जाएगा। वो वही ट्रिक तुम्हारे साथ खेल रहा था। उसने तुम्हारे डर को सच कर के दिखाया, तुम्हें उकसाया, फिर तुम्हारा रूप लिया ताकि तुम खुद को मार दो, तुम खुद अपने आप को मारते तो तुम्हारे दिमाग़ का एक हिस्सा मरता…या शायद तुम ब्रेन डेड हो जाते,”
“मतलब उसका काम बिना कुछ किए हो जाता,”
“बिल्कुल…अब भी बाज नहीं आएगा अपनी खट्टी-मीठी हरकतों से लंगड़ा लोमड़ा, पर स्पेल उसका किया उसे ही पलट कर दे देगा,”
“हुम्म..”
“अब चल हौले…सुबह हो रही मामू,”
निमित्त ने नदी की ओर देखा। ग्रे-वुल्फ़ हर बार की तरह ग़ायब हो चुका था, अल्फ़ा और स्कैली के अलावा वो वहाँ अकेला था।
“हुम्म…तुम दोनों चलो, मैं कुछ देर में आता हूँ,” निमित्त गम्भीर भाव से बोला और नदी की ओर बढ़ गया।
“वुफ़्फ़-वुफ़्फ़” अल्फ़ा ने जैसे भौंक के सवाल किया।
“वो जा रेल है अपने अंतर्मन के उसी हिस्से के पास जिधर अपुन का भी ऐक्सेस नहीं है। चल अपुन दोनों चलते हैं…वैसे तू मस्त सू-सू किया रे आज,”
“वुफ़्फ़..वुफ़्फ़” अल्फ़ा ने खुश होकर दुम हिलाई।
“इतना सू-सू लाया कहाँ से? तू हौले के बेड पर चढ़ के मत सोया कर…किसी दिन उधर भी कर दिया तो..”
“वुफ़्फ़-गुर्र”
सागर की उठती लहरों का शोर।
दूर तक फैले सागर के क्षितिज पर अब भी रात्रि का आधिपत्य स्थापित करता चंद्रमा विद्यमान था जिसकी किरणें किनारे गिरे एक वृक्ष पर बैठे साये पर पड़ रही थीं। उसके खुले लम्बे बाल और बड़े फ़्लोरल प्रिंट वाली लाल साड़ी का पल्लू हवा में लहरा रहा था।
निमित्त उस साये की तरफ़ बढ़ा।
“आ गया आशू, थका हुआ लग रहा है आज,”
निमित्त ने कोई जवाब ना दिया। वो चुपचाप उस साये के पैरों के पास बैठ गया और अपना सिर उसके घुटनों पर रख दिया।
दोनों हाथ प्यार से निमित्त के उलझे बालों में फिरे, निमित्त की आँखों से दो बूँदें उन पैरों पर ढलक गयीं जिनसे वो लिपटा हुआ था।
“आज मैं हारने के बहुत क़रीब था माँ,”
“मेरे बेटे ने जीवन का सबसे बड़ा सबक़ सीख लिया है, अपनी भावनाओं, अपने ग़ुस्से पर क़ाबू करना सीख लिया है, वो कैसे हार सकता है भला?” माँ ने प्यार से निमित्त के माथे पर बिखरे बालों को उँगलियों से कंघी करते हुए कहा।
निमित्त ने अपना चेहरा उठा कर माँ की आँखों में देखा।
“मैं सही तो हूँ ना माँ?”
माँ ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया।
“मैंने पहले भी कहा था आशू, मैं शायद सिर्फ़ तेरी कल्पना का एक हिस्सा मात्र हूँ। तेरे अंतर्मन ने मुझे जैसा चाहा वैसा गढ़ लिया…फिर भला मैं तेरे इस सवाल का जवाब कैसे दूँ? तू बता तुझे क्या लगता है?”
“मुझे नहीं लगता कि आप सिर्फ़ मेरी कल्पना हो। ये आपका अस्तित्व है जो मुझ में बसता है…और मुझे लगता है कि जिस दिन भी मैं जीवन में कभी कुछ ग़लत करूँगा आप मुझसे हमेशा के लिए छिन जाएँगी। उस दिन मैं यहाँ आऊँगा तो यह स्थान ख़ाली होगा, यहाँ मेरी माँ नहीं होगी। तो जब तक यहाँ आने पर मुझे मेरी माँ मिल रही है, मतलब मैं सही कर रहा हूँ,”
“बस फिर…इतना सोच मत। अपना कर्म कर। जानता है वास्तव में एज़ अबव, सो बिलो के बीच क्या होता है? इसके बीच हम होते हैं आशू…जिसके अंदर अंधकार है उसे सिर्फ़ अंधकार दिखेगा, जिसमें प्रकाश है उसे इसके बीच प्रकाश मिलेगा,” माँ उसकी शर्ट के सामने के खुले बटन लगाते हुए बोलीं।
“अब चल उठ..तेरे जागने का समय हो गया है। जो शुरू किया है उसे ख़त्म कर,”
“कुछ देर रहने दो यहाँ अपने पास, फिर चला जाऊँगा,” निमित्त ज़िद करते हुए पैरों से लिपट गया और घुटनों कर सिर रख कर आँखें मूँद लीं।
माँ उसे प्यार से थपकाने लगीं।
“मम्मी..वो लोरी सुनाओ ना जो बचपन में हमेशा सुनाती थी,”
कुछ पल के लिए सागर की लहरें बिल्कुल शांत हो गयीं। वो पल थाम गया। सिर्फ़ माँ के गाने की आवाज़, और उनके पैरों से लिपट कर हल्के-हल्के सिसकते निमित की ध्वनि थी।
“यशोदा का नंदलाला, बृज का उजाला है, मेरे लाल से तो सारा जग झिलमिलाए..
रात ठंडी-ठंडी हवा, गा के सुलाए, भोर ये गुलाबी पलकें, खोल के जगाए…
ज़ु ज़ु ज़ू ज़ु ज़ू ज़ु ज़ु ज़ु ज़ू ज़ु”
निमित्त की आँख खुली तो बाहर से कौवों के कौंकने का शोर सुनाई दे रहा था।
“अभी तो असली वाला जागे हैं ना?” निमित्त ने आँख खुलने के साथ जैसे स्कैली से सवाल किया।
“नंगा सोया था, नंगा जागा है और क्या प्रूफ़ चाहिए? उठ जा हौले, क्विल्ट खींच तेरी “हाय दैया” होने की तैयारी है,” स्कैली की आवाज़ निमित्त के ज़हन में यूँ गूंजी कि उसकी आँखें ‘फ़टाक’ कर के खुल गयीं।
वो हड़बड़ा कर उठ बैठा, उसके जिस्म पर ओढ़ाया क्विल्ट ढलक कर कमर पर आ टिका। उसका शरीर पसीने और अब तक जिस्म पर लगाए गए लोशन से तर था। निमित्त के शरीर पर सिर्फ़ उसकी “ब्रीफ़” थी।
“वुफ-वुफ़्फ़” निमित्त के जागते ही अल्फ़ा बेड पर चढ़ गया और निमित्त का चेहरा चाटने लगा।
“ईज़ी गुड बॉय,” निमित्त अल्फ़ा के बालों में हाथ फिराता हुआ, उसे प्यार से परे हटाते बोला।
“मैं आपके जगने का इंतज़ार कर रही थी। डॉक्टर थापा को इन्फ़ॉर्म कर देती हूँ कि आप उठ गए हैं,” बेड के पास बैठी सुभद्रा अपनी नज़रें निमित्त से परे रखते हुए बोली।
सुभद्रा की वहाँ उपस्थिति का निमित्त को अब तक एहसास ना था। उसकी उपस्थिति और अपनी अवस्था से निमित्त बुरी तरह झेंपा।
“कहा था ना तेरी “हाय दैया” होने वाली है। अब फटाफट अपने ऊपर खींच ले हौले,” स्कैली की आवाज़ दोबारा आई।
“शट-अप स्कैली, कुछ भी मत बोला कर,”
“क्विल्ट हौले, क्विल्ट अपने ऊपर खींच ले,” स्कैली की आवाज़ पर निमित्त ने हड़बड़ा कर अपनी कमर के नीचे आया हुआ क्विल्ट ऊपर तक खींच लिया।
सुभद्रा भी बिना कुछ बोले बाहर जाने के लिए उठी।
“रुको सुभद्रा, मुझे कुछ बात करनी है,”
दरवाज़े की तरफ़ बढ़ती सुभद्रा निमित्त की आवाज़ पर ठिठक कर रुक गई। वो वापस निमित्त की तरफ़ पलटी।
“मुझे स्ट्रॉंग हँच है कि कल लोशन लगाने के बहाने नर्स डॉरिस ने मुझे डेलिरीएंट्स दिए थे,” निमित्त ने वॉल माउंट पर टाँगे अपने कपड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
“शायद इसलिए कि आपको दर्द में राहत मिले और आप कुछ देर सो पाएँ। डॉक्टर थापा को मैंने आपके इंसोमनिया के बारे में बताया था,” सुभद्रा ने निमित्त के कपड़े उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए जवाब दिया।
“नहीं, इन डेलिरीएंट्स की मात्रा बहुत अधिक थी। इतनी मात्रा में हाथी को “आउट” कर के सर्जरी की जा सकती है। मैं कितनी देर तक सोता रहा?” निमित्त ने इनकार में सिर हिलाया और शर्ट बदन पर चढ़ाते हुए बोला।
“पिछले चौबीस घंटे से,”
“अब डोज़ का अंदाज़ा तुम खुद लगा सकती हो,”
“पर नर्स डॉरिस ऐसा क्यों करेंगी? इससे उन्हें क्या फ़ायदा?”
“ऐस्ट्रल किडनैपिंग। ड्रीम हाईजैकिंग। ल्यूसिड इन्वेज़न के लिए,” निमित्त ने अपनी डेनिम बकल करते हुए सुभद्रा को अपने पहले सपने के बारे में डिटेल में बताया जब कि अपने मंथरा वाले सपने की बात वो पूरी तरह छिपा गया।
निमित्त की बात सुन कर सुभद्रा हैरान थी।
“तो नर्स डॉरिस ने आपको सिडेट किया ताकि अपने सपने में ले जा सके?”
“अपने या किसी और के। हो सकता है डॉरिस ने सिर्फ़ मुझे सिडेट किया और मैं जिसके सपने में था वो शख़्स कोई और ही हो,”
“आपने जो कुछ भी वहाँ…उस सपने में देखा क्या वो सच था? क्या वाक़ई वो भयानक घटना घटित हुई थी?” कहते हुए सुभद्रा की आवाज़ थर्राई और उसके शरीर ने ज़बरदस्त झुरझुरी ली।
“लगता तो यही है। मुझे सपना दिखाने वाला शख़्स जो कोई भी है वो “त्रियो-किलर” और उन ग़ायब हुई लड़कियों का सच जानता है…वो सच जो दुनिया के सच से जुदा है। शायद मुझे उस सपने के माध्यम से वो शख़्स वास्तविक सत्य तक पहुँचने का रास्ता दिखाने की कोशिश कर रहा था…या फिर ये भी हो सकता है कि वो सपना उसने ऐन मुझे बरगलाने, सही रास्ते से हटाने के लिए बुना हो,”
“क…क्या ऐसा भी हो सकता है?”
“मुश्किल है। क्योंकि सपने की हर एक चीज़ इतनी डिटेल में थी जो सिर्फ़ मेमरी से आ सकती है, इमैजिनेशन से इतनी डिटेल क्रीएट करने में ड्रीम स्टेबल नहीं होगा..कलैप्स कर जाएगा, या फिर ग्लिच आएँगे, कैरेक्टर्स का बिहेव्यरल टेम्पो अन्स्टेबल होगा,”
“तो अब आगे क्या?”
“सपना दिखाने वाला चाहता है कि उसने जो लीड मुझे दी है मैं उसपर आगे बढ़ूँ। मुझे इसमें कोई हर्ज नज़र नहीं आता। वो जंगल, काले पत्थरों का मंदिर, पुराना बरगद, उसके नीचे स्थापित ढेरों शिवलिंग, वो घंटियाँ। एक-एक चीज़ की कॉग्निटिव इम्प्रिंट अब मेरी मेमरी में फीड हो चुकी है। मैं इसके ज़रिए उस जगह तक पहुँच सकता हूँ। साथ ही अपने ओरिजिनल प्लान ऑफ़ ऐक्शन को भी पैरेलली फ़ॉलो कर सकता हूँ। इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे से मिलना अब और भी ज़रूरी हो गया है। शायद उस हॉस्पिटल ऐम्ब्युलेन्स और वॉर्डबॉय की बाबत उससे कुछ मालूम हो सके,”
“कम से कम ताम्बे के पीछे जाने की ज़हमत आपको नहीं उठानी होगी। वो खुद यहाँ धमक गया है।”
“इंस्पेक्टर “चीता” यहाँ आया है?”
“आज सुबह ही,”
“खुद से? या किसी ने बुलाया उसको?”
“शायद गिरीश बाबू ने। अभी उनके साथ ही है,”
“हुम्म…” निमित्त शांत हुआ, जैसे कुछ सोच रहा हो।
“आप पलक से भी मिलना चाहते थे ना?”
“वो भी पधारी हुई हैं?”
“इरा को पढ़ा रही है फ़िलहाल,”
“क्या उसे मेरे बारे में पता है?”
“अब तक तो ज़्यादा कुछ नहीं। मैंने यही बताया है कि आप मेरे सीनियर हैं और कुछ दिनों के लिए यहाँ ठहरे हैं। मैंने इरा को भी हिदायत दे दी थी कि आपके विषय में पलक से कुछ ना कहे,”
“हुम्म…अच्छा किया। हालाँकि उसे मेरे बारे में सच देर-सवेर मालूम पड़ ही जाएगा,”
“ऐसी बातें कहाँ छिपती हैं,”
“फिर भी, उससे पहले मैं पलक को अपने तरीक़े से परख चुका होऊँगा। सबसे पहले उससे ही मिलते हैं, फिर चीता से दो-चार होंगे,”
“ठीक है, मैं डॉक्टर थापा…”
“ना-ना, शंटू-बंटू या किसी को भी कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। तुम चलो, मैं ज़रा नहा-धो कर, इत्तर-पर्फ़्यूम मार कर आता हूँ। बाहर कोई पूछे तो कह देना अब तक सोया पड़ा हूँ,”
निमित्त की हिदायत पर सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया और निमित्त को रूम में छोड़ कर बाहर निकल गई।
सुभद्रा के जाते ही निमित्त के चेहरे पर गम्भीर भाव आए। अल्फ़ा अब भी उसके पैरों के पास बैठा था।
“आज कुछ तूफ़ानी करते हैं अल्फ़ा,” निमित्त उसकी गर्दन पर हाथ फिराते हुए बोला। अल्फ़ा के दोनों कान खड़े हो गए, वो जानता था कि निमित्त तभी ऐसा कहता है जब उसके दिमाग़ में शैतान से भी “चोक मी डैडी” बुलवा देने की हद तक कोई शैतानी ख़ुराफ़ात कुलबुला रही हो।
बाहर से कौवों के कौंकने का शोर अब भी सुनाई दे रहा था।
॰ ॰ ॰
सुबह के तक़रीबन दस बज रहे थे। उस दिन मौसम काफ़ी सुहाना था। आसमान में बादल छाए थे जिनके बीच से हल्की धूप झांक रही थी। बाहर लॉन में फ़ाउंटन के इर्द-गिर्द पर्ल व्हाइट राउंड टेबल और चेयर लगाए गए थे। एक टेबल पर डॉक्टर थापा और सिक्योरिटी इंचार्ज कदम बैठे थे जिनके सामने ओरिजिनल बोन चाइना वेयर टी-कप और सॉसर में चाय सर्व की हुई थी। दोनों किसी मुद्दे पर चर्चा करते हुए चाय की चुस्कियाँ और बीच-बीच में चाय के साथ ही सर्व किए हुए कोल्स्लॉ सैंड्विच की बाइट लेते। दूसरे टेबल पर इरा एक लगभग 21-22 साल की लड़की के साथ बैठी थी। लड़की की पीठ क्योंकि निमित्त की तरफ़ थी इसलिए उसका चेहरा नज़र नहीं आ रहा था। एक वेटर हाथ में जूस की ट्रे लिए हुए उनकी टेबल पर खड़ा था। उस वेटर के अलावा वहाँ दो और वेटर थे जो ट्रे में जूस, चाय-कॉफ़ी और सैंड्विच लिए घूम रहे थे। तीसरी टेबल पर बैठी सुभद्रा ब्लैक कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेते हुए ऐगथा क्रिस्टी की नॉवल “ईविल अंडर द सन” पढ़ने में तल्लीन थी। चौथी टेबल पर मल्हार और रॉशेल बैठे थे। रॉशेल सिर्फ़ ऑरेंज जूस पी रही थी, बल्कि पी क्या रही थी मात्र ग्लास होंठों से लगाने की औपचारिकता कर रही थी जबकि मल्हार के आगे सी-फ़ूड, चिकेन, और पॉर्क के आइटम्स का ढ़ेर लगा था और वो फ़िलहाल खाने में तल्लीन था। रॉशेल उड़ती हुई डिस्गस्ट भरी नज़र मल्हार पर डालती फिर परे देखने लगती।
गिरीश बाबू यहाँ मौजूद नहीं थे। निमित्त ने देखा कि गिरीश बाबू के लिए ख़ास टेबल ओपन लॉबी में सेट की गई थी जहां से वो लॉन में उपस्थित हर व्यक्ति को देख सकते थे। उनके साथ टेबल पर एक लगभग 35-38 साल का कड़ियल आदमी बैठा था जो शक्ल से ही पुलिसिया लग रहा था। निमित्त को समझते देर ना लगी कि यही इंस्पेक्टर चिरंजीवी ताम्बे उर्फ़ “चीता” है।
सुभद्रा के जाने के बाद निमित्त ने अपना आगे का “गेम-प्लान” तैयार किया जिसमें स्कैली ने उसकी काफ़ी सहायता की। इसके बाद निमित्त नहा-धो कर तैयार हुआ और बे-आवाज़, बग़ैर शोर-शराबे के नीचे आकार लॉबी के एक पिलर से टिक कर खड़ा हो गया था और वहाँ मौजूद एक-एक शख़्स की गतिविधि रीड कर रहा था। जब वो पर्याप्त रीडिंग कर चुका तो इत्मिनान से चहलक़दमी करते और गुनगुनाते हुए लॉन की तरफ़ यूँ बढ़ गया जैसे ऐसा करना उसकी प्रतिदिन की नॉर्मल दिनचर्या का हिस्सा हो। निमित्त के गुनगुनाने ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा।
“ये चाँद सा रौशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा, ये झील सी नीली आँखें…कोई राज़ है इनमें गहरा…”
निमित्त ख़ास तौर पर ये गाना कदम को देखते हुए गा रहा था जिसने शर्त हारने की एवज़ में अपनी मूँछें मुंडवा दी थीं।
निमित्त को अपनी ओर देख कर गाना गाते देख कदम का चेहरा ग़ुस्से से सुर्ख़ लाल हो गया।
“…तारीफ़ करूँ क्या उसकी…जिसने तुम्हें बनायाsss..”
निमित्त को गाता देख वहाँ मौजूद सभी लोगों का ध्यान और निगाहें उस पर गयीं, लेकिन निमित्त ने ध्यान दिया कि पलक एक बार भी उसकी तरफ़ नहीं मुड़ी। वो जिस अवस्था में बैठी थी वैसे ही बैठी रही।
“ये सुबह-सुबह गाना क्यों गा रहे हो?” कदम कड़क कर बोला।
“अजी हुज़ूर-ए-आला, इतना सुहाना दिन है, ऐसा दिलकश समाँ है, ऐसे में तो दिल के तार कोई ना कोई तराना छेड़ेंगे ही। वैसे भी डॉक्टर शंटू ने मेरा ऐसा इलाज किया है कि बिल्कुल रेस के काले घोड़े जैसा चुस्त, दुरुस्त और तंदुरुस्त फ़ील कर रहा हूँ इसीलिए “हिनहिना” रहा हूँ,” निमित्त ड्रामाई अन्दाज़ में डॉक्टर थापा और कदम के सामने सिर नवाते हुए बोला।
“पूरे से तो नहीं ठीक हुए, दिमाग़ी नुक़्स जाने का नाम नहीं ले रहा,” डॉक्टर थापा अपनी चाय की चुस्की लेते हुए होंठों में बुदबुदाए।
“नॉटी-नॉटी डॉक्टर शंटू…कित्ते क्यूट लगते हो आप ऐसे भटूरे जैसे गाल फूला के बुदबुदाते हुए,” निमित्त धीरे से डॉक्टर थापा के दोनों गाल यूँ खींचते हुए बोला जैसे डॉक्टर थापा कोई छोटे बच्चे हों।
डॉक्टर थापा के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे उन्होंने किसी पागलखाने से भागे ख़तरनाक मरीज़ को अपने सामने साक्षात खड़ा देख लिया हो।
“तौबा…ये तो पहले से भी ज़्यादा पगला गया है,” कदम आँखें बड़ी करते हुए बोला।
“वैसे क्यूट तो आप भी बहुत हो मिस्टर बंटू, और ये क्लीन शेव्ड हो के तो ऐसी बिजलियाँ गिरा रहे हो…आए-हाय-हाय-हाय,” निमित्त ने अपने दोनों हाथ कदम के गाल खींचने के लिए बढ़ाए।
“मैंने तेरे दोनों हाथ तोड़ के गले में लटका देने हैं अगर मुझे छुआ तो,” निमित्त के हाथ अपने गालों तक पहुँचने से पहले ही कदम चेतावनी भरे स्वर में गुर्राया।
निमित्त ने अपने हाथ पीछे खींच लिए और वापस गाना गाने लगा।
“मैं खोज में हूँ मंज़िल की और मंज़िल पास है मेरे। मुखड़े से हटा दो आँचल, हो जाएँ दूर अंधेरे..हो जाएँ दूर अंधेरे…”
“ही-ही-ही-ही,” निमित्त की हरकतों पर इरा मुँह दबा कर हंस रही थी।
“इरा, पे अटेन्शन हीयर,” पलक ने इरा को घुड़कते हुए कहा। वो अब भी निमित्त की तरफ़ नहीं पलटी थी।
निमित्त शम्मी कपूर के मैनरिज़म की नक़ल करते हुए और झूम-झूम कर गाते हुए इरा व पलक की टेबल की ओर बढ़ गया।
“माना कि ये जलवे तेरे, कर देंगे मुझे दीवाना। जी भर के ज़रा मैं देखूँ, अन्दाज़ तेरा मस्ताना…ताsss..रीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुम्हें बनाया,”
निमित्त की नज़रें पलक के चहरे पर पड़ीं। एक पल को निमित्त ठिठक गया।
पलक दुनिया की सबसे हसीन, बेइंतहा खूबसूरत, अप्सराओं को भी मात देने वाले सौंदर्य की स्वामिनी, लाखों में एक हुस्न की मल्लिका थी ऐसा बिल्कुल नहीं था। वो सिर्फ़ एक 21-22 साल की लड़की थी, जिसके नयन-नक़्श साधारण से कुछ बेहतर थे लेकिन उसकी चश्मे के पीछे छुपी आँखों में एक अलग मासूमियत थी, उस बच्ची सी मासूमियत जिसे समय और हालात ने वक्त से पहले बड़ा बनने पर विवश कर दिया हो। उसके चहरे की गम्भीरता किसी 21-22 साल की कॉलेज गोइंग यंगस्टर की बिल्कुल नहीं थी। वो गम्भीरता उस लड़की की थी जिसने समय से पहले ज़िंदगी में “जीना” नहीं, “सर्वाइव” करना सीख लिया हो। उसकी पूरी पर्सनैलिटी, उसके आउट्लुक, एक्स्प्रेशन, हर एक चीज़ में “सर्वाइवल मोड” तारी था। इसके बावजूद पलक में कुछ ऐसा आकर्षण था, या फिर ये उसके “सर्वायवलिस्ट” होने का असर था जिसने पहली नज़र में ही निमित्त को कुछ इस तरह प्रभावित किया जिसमें ज़्यादातर लड़कियाँ विफल होती हैं।
पलक ने सिर्फ़ एक उड़ती नज़र निमित्त पर डाली और उसे अपनी ओर घूरता पा कर पलक की नज़रें सामने रखी किताब में यूँ धंसी कि उठी ही नहीं।
“तूने अब दो मिनट भी और घूरा तो “पापा” रंजीत, गुलशन “गुल्लू” ग्रोवर, शक्ति “आऊ" कपूर और प्रेम चोपड़ा पर्सनली आ कर तुझे अपना सच्चा उत्तराधिकारी घोषित कर देंगे हौले,” स्कैली की आवाज़ निमित्त के कानों में गूंजने से निमित्त की तंत्रा भंग हुई।
निमित्त ने अपना सिर झटका, जैसे दिमाग़ में आए विचार परे झटकने की कोशिश कर रहा हो।
“हेय एन. के., कम सिट विद अस। अब कैसे हो आप?” इरा चहकते हुए बोली।
“कैसा लग रहा हूँ?” निमित्त ने फ़रमाइशी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, पर पलक ने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो ना दी।
“एकदम डैशिंग! अब बैठो भी,” इरा टेबल की ख़ाली चेयर की तरफ़ इशारा करते हुए बोली।
“इरा, पढ़ाई पर ध्यान लगाओ। आज ये चैप्टर फ़िनिश करना ही करना है,” पलक ने इरा को घूरते हुए कहा।
साफ़ पता लगता था कि इरा का निमित्त को वहाँ बैठने के लिए बोलना पलक को बिल्कुल नागवार लगा है बस वो खुल कर यह बात बोल नहीं पा रही थी।
“हाय…आई एम निमित्त कालांत्री…यू कैन कॉल मी एन.के.,” निमित्त ने चेयर पर बैठते हुए अपना हाथ हैंड शेक के लिए पलक की तरफ़ बढ़ाया।
“हैलो।” पलक ने ठंडे, भावहीन स्वर में जवाब दिया। ना उसकी नज़रें किताब से ऊपर उठीं और ना ही उसने निमित्त का बढ़ा हाथ थाम कर हैंड शेक करने का उपक्रम किया।
निमित्त ने बुरी तरह झेंपते हुए अपना हाथ पीछे समेट लिया।
“ब्वाहाहा…हाहाहाहा…अबे हौले…ये तेरे बस का रोग नहीं। चुपचाप लड़की को पैर छू कर “प्रणाम दीदी” बोल और पतली गली से खिसक ले वरना तेरी बेइज़्ज़ती देख के अपुन को बहुत मज़े आने वाले हैं…हिहिही,” स्कैली की आवाज़ आई जिसे निमित्त ने सरासर वैसे ही नज़रअन्दाज़ किया जैसे पलक उसे कर रही थी।
“वैसे…कोई खुद का इंट्रो दे तो उसे बदले में अपना इंट्रो ना देना इज़ बैड मैनर…यू नो,” पलक की तरफ़ एकटक देखते हुए निमित्त बोला।
इस पर भी पलक की ओर से कोई रेस्पॉन्स ना आया। इरा ने एक नज़र निमित्त और पलक को देखा और फिर जैसे सिचूएशन को सम्भालने की कोशिश करने लगी।
“मैं कराती हूँ ना इंट्रो…एन.के., मीट माय टीचर मिस पलक खन्ना…एंड पलक मिस, ये एन.के. हैं। सुभी माँ के फ़्रेंड हैं और कुछ दिन हमारे साथ रहने आए हैं। एन.के. बहुत कूल हैं, ऐनिमल्स से बात करते हैं…मैजिक भी करते हैं…और एन.के. के साथ ये जो “डोग्गो” है ये अल्फ़ा है। अल्फ़ा और मैं बेस्ट फ़्रेंड्ज़ बन गए हैं,” इरा एक साँस में बोली।
निमित्त के बग़ल में आ कर बैठा अल्फ़ा इरा के मुँह से अपना नाम सुन कर दुम हिलाने लगा।
“इफ़ यू डोंट माइंड, आप प्लीज़ किसी दूसरी टेबल पर जा कर बैठेंगे, मुझे इरा को पढ़ाना है,” पलक ने निमित्त की आँखों में देखते हुए बिल्कुल सपाट भाव से कहा।
निमित्त की भाव-भंगिमा और चहरे पर चिपकी मुस्कान में कोई परिवर्तन ना आया, ना ही उसने वहाँ से उठने का उपक्रम किया।
“और इरा, तुम प्लीज़ पढ़ाई पर फ़ोकस करो,” पलक इरा को हिदायत देते हुए बोली।
“चलिए, टीचर्स से तो मुझे बचपन से ही बहुत डर लगता रहा है। हमेशा क्लास से बाहर निकाल दिया जाता था, या फिर बेंच के ऊपर हैंड्ज़-अप कर के खड़ा कर दिया जाता…या मुर्ग़ा बनाया जाता..या कान पकड़ के…” निमित्त अपनी ही झोंक में बोले जा रहा था।
“मिस्टर निमित्त प्लीज़, आप जाएँगे?” पलक उसकी बात बीच में काटते हुए बोली।
“बस एक सवाल है, बचपन से हर टीचर से पूछ रहा हूँ…सबसे पहले अपनी चाइल्डहुड क्रश, मेरी क्लास फ़िफ़्थ की इंग्लिश टीचर जैज़्मिन मिस से पूछा था…उन्होंने जवाब तो नहीं दिया, बस जजमेंटल लुक दिया…जिसमें “जज” कम था और “मेंटल” ज़्यादा था…” निमित्त फिर अपनी धुन में बोला।
“आप प्लीज़ जो पूछना है जल्दी पूछिए,” पलक अपना सिर पकड़ते हुए बोली। उसकी बॉडी लैंग्वेज और मैनरिज़म बता रहे थे कि निमित्त को एक मिनट भी झेलना उसे भारी लग रहा था।
“इरा, अल्फ़ा! उस हेज के पीछे मैंने स्क्विरल जाते देखी थी,” निमित्त ने एक ओर झाड़ियों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
गिलहरी का नाम सुनते ही इरा और अल्फ़ा दोनों उठ कर वहाँ से भागे। टेबल पर सिर्फ़ पलक और निमित्त बचे।
निमित्त ने महसूस किया कि पलक उस घड़ी बुरी तरह असहज थी। जिसका एक कारण यह भी था कि बाक़ी टेबल्स पर बैठे लोगों का ध्यान उनकी तरफ़ ही लगा हुआ था। निमित्त को इसकी कोई परवाह नहीं थी।
पलक अपनी उँगलियाँ फिजिट कर रही थी। निमित्त ने अपने होल्स्टर पॉकेट से एक व्हाइट सेलेनाइट प्लेट निकाल कर टेबल पर रख दी। उसके हाथ में तीन छोटे टम्बल्ड स्टोन नज़र आ रहे थे जो देखने में लट्टू से दिख रहे थे। इनमें से एक क्लीयर क्वॉर्ट्स था, एक ब्लू कायनाइट और एक लैपिस लैज़्यूली। यह तीनों टम्बल्ड स्टोन निमित्त ने सेलेनाइट प्लेट पर यूँ छोड़ दिए कि वो एक-साथ, बिना एक-दूसरे से टकराए, एक रिध्मिक मोशन में प्लेट पर नाचने लगे। पलक चाह कर भी अपनी नज़रें इनसे नहीं हटा पाई।
दूर ओपन लॉबी में बैठे गिरीश बाबू और चिरंजीवी ताम्बे यह सारा नजारा देख रहे थे।
“आई होप आपको अंदाज़ा है कि आपने किस बला को अपने घर और अपनी फ़ैमिली में ऐक्सेस दिया है,” ताम्बे अपनी तीसरी चाय ख़त्म करते हुए बोला।
“इसके तौर-तरीक़े काफ़ी अजीब और बेहूदा हैं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वो तरीक़े बिल्कुल सटीक और कारगर हैं। इरा को इसने जिस तरह ठीक किया वो अपने आप में चमत्कार से कम नहीं,” गिरीश बाबू ने जूस का घूँट भरते हुए कहा।
गिरीश बाबू को जूस पीते देख चिरंजीवी ताम्बे ने एक वेटर को इशारा कर के पास बुलाया। वेटर पूरी मुस्तैदी से जूस की ट्रे लिए हुए ताम्बे के पास पहुँचा। ताम्बे ने झट से तीन जूस के ग्लास ट्रे से उठा कर अपने सामने रख लिए और सैंड्विच की पूरी प्लेट उठा ली।
“आप जिसे चमत्कार समझ रहे हैं वो छलावा है गिरीश बाबू,” ताम्बे पूरा सैंड्विच एक बार में अपने मुँह में ठूँसते हुए बोला।
“कहना क्या चाहते हो? साफ़-साफ़ कहो चीता,” ताम्बे के लैक ऑफ़ टेबल मैनर्ज़ को नज़रअन्दाज़ करने की भरसक कोशिश करते हुए गिरीश बाबू शुष्क भाव से बोले।
ताम्बे ने बोलने के लिए मुँह खोला लेकिन उसका मुँह सैंड्विच से भरा हुआ था। उसने जल्दी से एक जूस का ग्लास उठा कर आधा ख़ाली किया और जूस के साथ मुँह में भरे सैंड्विच को हलक से नीचे धकेलते हुए बोला,
“लगभग दो साल पहले की बात है। दिल्ली पुलिस कंट्रोल रूम को गुमनाम कॉल आए जिनमें साउथ देल्ही के एक काफ़ी पॉश इलाक़े में ड्रग्स एंड ह्यूमन ट्रैफ़िकिंग रैकेट के एक घर से रन करने की टिप दी गई। पुलिस ने जा कर जाँच और कार्यवाही की लेकिन टिप फ़र्ज़ी निकली,”
“फिर?”
“फिर लगातार अलग-अलग नम्बर्स और एरिया से कॉल्स आते रहे। हर बार कॉल करने वाला उस एक घर को ही टार्गेट करता। पुलिस टीम बार-बार वहाँ रेड करती, घर में सिर्फ़ एक अधेड़ उम्र के दम्पति रहते थे। उनके बारे में कुछ भी ऐसा नहीं था जो कहीं से भी संदेहास्पद लगे। लेकिन कंट्रोल रूम में कॉल्स आने नहीं रुके। पुलिस ने सादे कपड़ों में अपने आदमी हफ़्ते भर तक उस दम्पति के पीछे लगाए, नतीजा सिफ़र। दोनों बिल्कुल क्लीन थे। हज़बैंड सोसाइटी प्रेसिडेंट था, उसकी वाइफ़ सोसाइटी सेक्रेटरी, समाज में अच्छा नाम और रुतबा। लगभग हर महीने सत्संग, कथा और भंडारे करवाने वाले सात्विक लोग,” ताम्बे ने प्लेट में बचे बाक़ी सैंड्विच पर ढ़ेर सारा केचप डालते हुए कहा।
“अजीब बात है। फिर क्या हुआ?”
“कॉल्स का सिलसिला बंद नहीं हुआ, बल्कि और बढ़ गया। रात के दो-ढाई बजे कॉल आती कि उस घर में चोर घुस गए हैं, कभी कॉल करने वाला कहता कि वहाँ से मार-पीट की आवाज़ें आती हैं। हर बार पुलिस टीम जाती और वहाँ से ख़ाली हाथ वापस लौटती। आख़िरकार रोज़-रोज़ की इस फ़ज़ीहत से आजिज़ आ कर घर के मालिक ने अपनी ऊँची पहुँच का प्रदर्शन करते हुए सीधे पुलिस कमिश्नर पर दबाव बनाया, कि किसी भी सूरत में कोई पुलिस वाला उसके घर के आस-पास फटकना नहीं चाहिए। दूसरी तरफ़ पुलिस तो खुद ही इन कॉल्स से परेशान थी। पुलिस ने उस घर से रिलेटेड कॉल्स पर रेस्पांड करना बंद कर दिया,” कहते हुए ताम्बे ने केचप से लबरेज़ सैंड्विच उठा कर मुँह में ठूँसा।
“अरे मुद्दे की बात पर आओ भई। इस सब का कालांत्री से क्या लेना-देना?” गिरीश बाबू के लिए अब ताम्बे को खाते देखता बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
“सुड़ssss….सुडुक़sss” होंठों से ज़ोर की आवाज़ निकलते हुए ताम्बे ने जूस का बड़ा सा घूँट भरा।
गिरीश बाबू को अधीरता पूर्वक अपनी तरफ़ ताकता पा कर ताम्बे ने अपना सिर ऊपर नीचे हिलाया जैसे तस्दीक़ कर रहा हो कि बस अब मुद्दे पर आने ही वाला है। फिर यूँ लगा जैसे ताम्बे मुँह में भरे जूस और सैंड्विच के कुल्ले कर रहा है जिसे वो हलक से नीचे उतार गया और एक बड़ी सी डकार निकली।
“बर्रsss…,”
“देवा!” गिरीश बाबू किसी दार्शनिक के माफ़िक़ आँखें मूँदते हुए बुदबुदाए, जिसने जीवन के सबसे कष्टदायक दृश्यों का प्रत्यक्ष प्रसारण देख कर भी अपना आपा ना खोया हो।
“इसके बाद किसी ने दम्पति को सलाह दी कि घर पर कोई हवन, यज्ञ, करवा लें जिससे जिस भी दुश्मन की बुरी नज़र है उनपर वो टल जाए। यहाँ एंट्री हुई हिमालय से “अश्व सिद्धि” प्राप्त कर के लौटे बाबा “काला घोड़ा” की। ये साले दिल्ली वाले अमीरों के अलग चोंचले हैं, पहले जीवन भर हरामख़ोरी कर के दो नम्बर का माल बटोरते हैं फिर किसी आबा-बाबा-टाबा की लंगोट पकड़ के लटक जाते हैं कि वो इनकी और इनके दो नंबरिया माल की रक्षा करे। हाँ तो, बाबा काला घोड़ा ने सात दिन का एक अत्यंत गुप्त अनुष्ठान बताया जिसे करने से सारे दुश्मन पराजित हो जाएँगे। सात दिन तक बस उन्हें ना घर से निकलना था, ना बाहरी दुनिया में किसी से भी किसी तरह का सम्पर्क करना था। दम्पति ने बिफ़ोर हैंड अपने सभी जानने वालों को सूचित कर दिया कि अगले सात दिन तक उनसे सम्पर्क ना किया जाए। फिर बाबा काला घोड़ा के साथ ये दोनों मियाँ-बीवी सात दिन के लिए अपने घर में बंद हो गए,” ताम्बे जैसे अपनी बात में वजन डालने के लिए सस्पेन्स बढ़ाते हुए बोला।
“मुझे अब भी इस कहानी का कोई औचित्य, या निमित्त कालांत्री से सम्बंध नहीं समझ आया,” गिरीश बाबू ने शुष्क भाव से उसकी सस्पेन्स बनाने की कोशिश नाकाम करते हुए कहा।
“अब समझ आ जाएगा। अभी तो कहानी का असली पार्ट शुरू हुआ है। अगले सात दिनों तक उस घर से अजीब आवाज़ें आती रहीं। किसी को मारने-पीटने, बुरी तरह टॉर्चर करने की, रोने-बिलखने और गिड़गिड़ाने की। कई बार आस-पड़ोस वालों ने पुलिस को कॉल किया लेकिन पुलिस ने होक्स मान कर रेस्पांड ना किया। जब सात दिन बाद उस घर का दरवाज़ा खुला तो लोगों के होश उड़ गए,”
“ऐसा क्या हुआ था वहाँ?” इस बार गिरीश बाबू ने कौतूहलपूर्वक प्रश्न किया।
“दोनों मियाँ-बीवी अधमरी अवस्था में बाहर निकले…दिमाग़ से विक्षिप्त, मानसिक संतुलन पूरी तरह खो चुके। अपने कपड़े फाड़ रहे थे, सिर के बाल लगभग नोच डाले थे, शरीर की चमड़ी नाखूनों से खरोंच-खरोंच कर उधेड़ रहे थे, मुँह से रेबीज़ वाले पागल कुत्ते के माफ़िक़ झाग गिर रेला था,”
“और ये सब इनके साथ उस बाबा काला घोड़ा ने किया?”
“ना! दोनों ने एक-दूसरे के साथ किया। बाबा काला घोड़ा ने इनको एक बात बोली थी जिसे ये दोनों बके जा रहे थे…”मैं तो बस “निमित्त” मात्र हूँ, ये तुम्हारे कर्मों के फल हैं जो तुम्हें मिल रहे,”
“कैसे कर्म?”
“ये साले धनपशु बिहार, बंगाल और झारखंड से अंडरएज लड़कियों और छोटी बच्चियों को हाउस हेल्प बना कर लाते…बना कर क्या लाते इनके माँ-बाप से ख़रीद कर लाते। फिर शुरू होता इनकी दरिंदगी का खेल। उन बच्चियों का रात-दिन यौन शोषण किया जाता, जो दोनों मियाँ-बीवी मिल के करते। इतना ही नहीं, इन बच्चियों को अमानवीय यातनाएँ देते और यह पूरा सिलसिला वीडियो शूट करते। इतनी घोर यातना सहते हुए बच्ची जब मर जाती तो किसी जानवर की तरह उसकी लाश ठिकाने लगा दी जाती और उसकी जगह दूसरी बच्ची ख़रीद लाई जाती। सालों से ये धंधा चल रहा था, किसी को कानों कान खबर भी ना हुई। फिर इनकी ख़रीद कर लायी आख़री हाउस हेल्प किसी तरह इनके चंगुल से भाग निकली। दोनों ने लोकल थाने में पुलिस कम्प्लेंट भी दर्ज कराई थी कि लड़की इनके घर से लाखों का माल चोरी कर के भाग गई है। ताकि लड़की अगर पुलिस के पास जाए तो उल्टा उसे ही मुजरिम करार दे दिया जाए। लेकिन इस लड़की को विधाता ने शायद इन राक्षसों का काल बना कर भेजा था…तभी तो वो क़ानून के हाथ नहीं लगी, बल्कि राक्षसों के “बिग डैडी” के हाथ लग गई…निमित्त कालांत्री के!”
दो पल दोनों के बीच घुप्प सन्नाटा व्याप्त रहा।
“फिर,”
“कौन कहता है जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी भगवान सुनता है? कभी-कभी जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी शैतान सुन लेता है। उस मासूम लड़की की वेदना निमित्त कालांत्री नाम के शैतान ने सुन ली। पहले पुलिस को होक्स कॉल्स कर-कर के उस घर पर से शक के सारे कारण मिटा दिए फिर ऐसे हालात पैदा किए कि दम्पति ने खुद ही इसे “काला घोड़ा” के रूप में घर में सात दिन के अनुष्ठान के लिए ऐक्सेस दे दिया। कमीने ने सात दिन में दोनों को सात जन्मों की यातनाएँ दे डालीं वो भी बिना एक उँगली भी खुद उठाए। दोनों के दिमाग़ के साथ इस कदर खेल कि दोनों एक-दूसरे को ही यातना देते रहे और आख़िरकार पागल हो गए। पुलिस के हाथ इन सात दिनों की वीडियो लगी जिसमें ये दोनों एक-दूसरे को ही यातना देते नज़र आ रहे थे। वो वीडियो किसी तीसरे इंसान ने शूट की थी जो कि कोई और नहीं खुद इनका बाबा काला घोड़ा उर्फ़ निमित्त कालांत्री था,”
“ये कैसे पता कि वो शख़्स निमित्त कालांत्री ही था?”
“दोनों मियाँ-बीवी ने बाबा काला घोड़ा का जो डिस्क्रिप्शन दिया वो ऐन निमित्त कालांत्री का था। दोनों चीख-चीख कर कह रहे थे कि इनके चंगुल से भागी लड़की ने ही “काला घोड़ा” को उनसे बदला लेने भेजा है, लेकिन निमित्त कालांत्री पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती थी क्योंकि पहली बात, दोनों मियाँ-बीवी नीम पागल हो चुके थे इसलिए उनकी स्टेट्मेंट केस में कहीं स्टैंड नहीं करती। और दूसरी बात, उनके घर से वीडियो टेप्स का पूरा ज़ख़ीरा बरामद हुआ जिनमें वो अनगिनत बच्चियों का यौन शोषण करते और उन्हें अमानवीय यातनाएँ देते नज़र आ रहे थे। दोनों को फ़ौरन हिरासत में लेकर उनका साइकिक इवैल्यूएशन करवाया गया जिसमें साफ़ हो गया कि दोनों पागल हो चुके हैं,” ताम्बे अपनी बात कंक्लूड करते हुए बोला।
गिरीश बाबू को अचानक एहसास हुआ कि उनके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आई हैं।
“पर ये तो अच्छी बात है ना, निमित्त कालांत्री हमारे साथ है। लोगों के भले के लिए काम कर रहा है, सच्चाई के लिए, मजलूमों और बेगुनाहों को इंसाफ़ दिलाने के लिए काम कर रहा है। तुम और हम दोनों जानते हैं चीता कि वो लड़की अगर पुलिस या वापस उस दम्पति के हाथ लगती तो उसका क्या अंजाम होता। तो क्या ये बेहतर नहीं है कि समाज में एक ही सही लेकिन निमित्त कालांत्री जैसा इंसान भी हो?” गिरीश बाबू ने डिस्मिसिव टोन में कहा।
ताम्बे ने टेबल पर रखे टूथपिक होल्डर से एक टूथपिक निकाली और दांतों के बीच फँसे चिकेन के रेशे खोदते हुए बोला,
“जब इसपर ग़ैरइरादतन हत्या का केस हुआ था तो उस केस का इंचार्ज मेरा दोस्त था। केस क्योंकि काफ़ी हाई प्रोफ़ाइल था इसलिए उसके बारे में काफ़ी कुछ पता है मुझे। केस इंचार्ज ने घंटों तक इंटेरोगेट किया था इस आदमी को और उस इंस्पेक्टर का ख़म ठोंक कर दावा है कि निमित्त कालांत्री से बड़ा चू**** दुनिया में दूसरा कोई नहीं हो सकता। इंसान मारना दूर की बात, ये आदमी झक मारने की भी क़ाबिलियत नहीं रखता…और यहाँ मैं ये बात साफ़ करना चाहूँगा कि ये पुलिस वाला दिल्ली के टॉप कॉप्स में से एक है जो एक नज़र देख कर ही अपराधी को ताड़ सकता है। पुलिस की तरफ़ से जिस सायकायट्रिसट ने निमित्त कालांत्री का साइकिक इवैल्यूएशन किया था उसके हिसाब से निमित्त हाई लेवल सोशिओपैथ है जिसका दिमाग़ी संतुलन हिला हुआ है, वो स्किट्ज़ोफ़्रीनीया का शिकार है और कभी भी एक ख़तरनाक सीरियल किलर के रूप में समाज के लिए गम्भीर ख़तरा बन सकता है। इसका तीसरा साइकिक इवैल्यूएशन इंडिया के टॉप सायकायट्रिसट और उनकी टीम के निरीक्षण में करवाया गया जिनके मुताबिक़ निमित्त कालांत्री के दिमाग़ में कोई नुक़्स नहीं। इसके ख़िलाफ़ कोई केस ना बना और यह शख़्स इत्मिनान से टहलते हुए क़ानून के पंजों से निकल गया,”
“पर तीनों में से कौन सी थ्योरी वास्तव में सच है?”
“तीनों ही,”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“क्योंकि निमित्त कालांत्री चाहता है कि ऐसा हो। आप समझे नहीं, ही इज़ द मास्टर ऑफ़ मैनिप्युलेशन। इसके बारे में हर शख़्स वही और उतना ही जानता है जितना ये चाहता है कि वो जाने, और हर शख़्स इसके बारे में सोचता भी वही है जो निमित्त कालांत्री चाहता है कि वो सोचे। निमित्त कालांत्री के दुश्मन उससे कितनी और किस हद तक नफ़रत करेंगे ये भी वो खुद कंट्रोल करता है। ये कुछ वैसा ही है जैसे दो लोग शतरंज खेल रहे हैं लेकिन वास्तव में खेल सिर्फ़ एक ही शख़्स रहा है उसने बस दूसरे को इस भ्रम में रखा है कि वो अपनी “फ़्री-विल” से खेल रहा है। आप ये सोच कर खुश होते हैं, सुकून पाते हैं कि निमित्त कालांत्री जैसा छलिया आपके लिए और आपके साथ खड़ा है लेकिन मेरे लिए ये इंसान सबसे बड़ा थ्रेट है क्योंकि जिस दिन निमित्त कालांत्री मानवता के साथ नहीं, मानवता के विरुद्ध हुआ, उस दिन खुद शैतान भी पनाह माँग जाएगा,”
ताम्बे की बात का गिरीश बाबू के पास कोई जवाब नहीं था। दोनों की नज़रें निमित्त की ओर उठ गयीं।
निमित्त के चहरे पर फ़िलहाल किसी छोटे बच्चे सी मासूमियत नाच रही थी, जो टीचर से सवाल करने जा रहा हो।
“शुरू करें?”
पलक की नज़रें सेलेनाइट प्लेट पर नाचते टम्बल्ड टॉप्स से हट ही नहीं रही थीं। उसने सहमति में सिर हिलाया।
“तो शुरू करते हैं पलक…एक सवाल, जिसमें कई सवाल छुपे हैं और हर सवाल की दो चॉइसेज़ हैं, आपको दोनों में से कोई एक चुननी है। ये इंटरैक्टिव स्टोरीटेलिंग जैसा है, और इस स्टोरी का नाम है…
“द ग्लास गार्डेन”
ऐक्ट 01: द अराइवल
“आप एक चलती हुई ट्रेन में हैं। जिस कूप में आप ट्रैवल कर रही हैं उसमें आपके अलावा दूसरा और कोई नहीं,”
निमित्त की आवाज़ जैसे पलक के अंतर्मन में गूंजी। पलक को जैसे ज़ोर का झटका लगा। वो वाक़ई एक ट्रेन कूप में थी। उसके अलावा कूप में और कोई ना था।
“बाहर का दृश्य विचित्र है, ना ये शहर है ना गाँव, ना जंगल…” निमित्त की आवाज़ अब पलक के अंतर्मन में सुनाई दे रही थी और वो उस आवाज़ के निर्देशानुसार ही आने वाले दृश्यों को जी रही थी।
“…यह एक गार्डेन है…दूर-दूर तक फैला हुआ गार्डेन जो पूरी तरह काँच का बना है। क्रिस्टल के बने चमकदार पेड़, फूलों की क्यारियाँ यूँ लग रही हैं जैसे सर्दियों की सुबह की ओस जमा कर उसे फूलों के साँचे में ढाल दिया गया हो। छोटे तालाब हैं जैसे पारदर्शी शीशे बिछा दिए गए हों,”
पलक ने अपना चेहरा कूप ग्लास से टिका लिया और बाहर देखने लगी। बाहर का दृश्य हू-ब-हू वैसा ही था जैसा निमित्त ने बताया था। ट्रेन की रफ़्तार कम होने लगी।
“तुम्हारे बग़ल में सीट पर एक एन्वलप रखा है, उसे खोलो,”
पलक की नज़रें बग़ल की सीट पर गयीं, वहाँ वाक़ई एक एन्वलप रखा था जिसपर अंजान हैंडराइटिंग में पलक का नाम लिखा हुआ था। पलक की काँपती उँगलियाँ एन्वलप की तरफ़ बढ़ी। उसने लिफ़ाफ़ा खोला, अंदर एक सफ़ेद मुड़ा हुआ काग़ज़ था जिसपर लिखा था,
“वेल्कम टू द गार्डेन। यू विल नॉट लीव अंटिल द ट्रूथ इज़ रिवील्ड,”
काग़ज़ पलक के हाथ से छूट कर नीचे गिर गया। ठीक उसी समय काले लिबास में एक साया पलक के कूप के बाहर से गुजरा। उसके हाथ में एक चिड़िया का पिंजरा था जो एक लाल कपड़े से ढँका हुआ था। एक झलक में पलक को यूँ लगा जैसे वो साया निमित्त है, पर वो श्योर नहीं थी। उससे पहले ही वो साया वहाँ से जा चुका था। ट्रेन रूक चुकी थी। शायद वो साया नीचे उतर गया था।
“अब तुम्हारे सामने पहली चॉइस आती है पलक। ट्रेन रूक चुकी है और तुम पूरी ट्रेन में इकलौती मुसाफ़िर हो। क्या तुम यूँ ही बैठी रहोगी या फिर उस अजनबी के पीछे जाओगी,” निमित्त की आवाज़ दोबारा गूंजी।
“म…मैं नहीं जाऊँगी उसके पीछे। मैं यहीं रुकूँगी,” पलक ने फ़ैसला सुनाया।
“उस केस में एन्वलप में तुम्हारे लिए कुछ और भी है, उसे निकालो,”
निमित्त के इन्स्ट्रक्शन पर पलक ने एन्वलप में दोबारा हाथ डाला। इस बार उसमें एक नक्काशीदार पुरानी “स्केलटन-की” और एक छोटे आकार की, काले चमड़े की जिल्द मढ़ी हुई एक डायरी थी जिसके पन्ने भी काले थे।
“खोलो इसे,”
निमित्त का इन्स्ट्रक्शन फ़ॉलो करते हुए पलक ने काँपती उँगलियों से डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए। डायरी के दो काले पन्नों के बीच एक सफ़ेद जैज़्मिन फ़्लावर दबा कर रखा हुआ था। उसके ऊपर काले पन्ने पर लाल स्याही से एक इबारत लिखी थी,
“वी बेरीड हर अंडर द विलो,”
घबराहट में पलक के हाथ से डायरी छूट कर नीचे गिर गई। पन्नों के बीच दबाया फूल बाहर आ गिरा।
“स्केलटन-की अपने पास रख लो, आगे काम आएगी,”
पलक ने निमित्त के निर्देश का अनुसरण करते हुए स्केलटन-की अपनी पॉकेट में रख ली।
“मुझे यहाँ से जाना है,” पलक ने काँपती आवाज़ में कहा।
“बिल्कुल! उठो और कूप से बाहर निकलो,” निमित्त की आवाज़ पलक के अंतर्मन में गूंजी।
पलक फ़ौरन अपनी जगह से उठी और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई। अचानक उसने ठिठक कर पीछे देखा। कूप फ़्लोर पर ब्लैक डायरी और सूखा हुआ जैज़्मिन फ़्लावर गिरे हुए थे। पलक ने वो फूल भी उठा कर एहतियात से अपने पॉकेट में रख लिया फिर वापस पलट कर कूप का दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खोलते ही पलक सन्न रह गई।
“ये क्या जादू है,” पलक को अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं हो रहा था।
सामने का नजारा बिल्कुल चेंज हो चुका था। कूप के बाहर ट्रेन नहीं थी बल्कि उस ग्लास गार्डेन का विशाल ग्लास गेट नज़र आ रहा था जिसे पलक कूप विंडो से देख रही थी। पलक ने एक कदम आगे बढ़ाया फिर ठिठक कर वापस पीछे मुड़ने की कोशिश की, लेकिन अब तक उसके पीछे कूप भी ग़ायब हो चुका था। अब आगे बढ़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प ना था।
ऐक्ट 02: द गार्डेन गेट
पलक उस ग्लास के बने मिडिवल एरा के डिज़ाइन वाले विशालकाय गार्डेन गेट को देख रही थी। गेट फ़िलहाल बंद था और उसके सामने एक बहुत ही ऊँचे क़द की महिला; जिसकी हाइट कम से कम 7.5’ फ़ीट होगी, एक हाथ में काले रंग का छाता लिए खड़ी थी। उसके दूसरे हाथ में एक नक़्शा था जो उस ग्लास गार्डेन का था लेकिन उस नक़्शे पर से कई रास्ते मिटे हुए थे और नक़्शा आधा-अधूरा नज़र आ रहा था।
“इस ग्लास गार्डेन की बरसात में भी पानी की बूँदें नहीं, बल्कि काँच के टुकड़े आसमान से बरसते हैं,”
पलक की नज़रें ऊपर आसमान की तरफ़ उठीं। आसमान काले बादलों से घिरा हुआ था। कुछ देर पहले रुकी बारिश दोबारा शुरू होने वाली थी।
“तेज़ रफ़्तार से आसमान से गिरने वाली ये काँच की बूँदें तुम्हें बुरी तरह घायल कर सकती हैं। अगर इनसे बचना है तो तुम्हें छाता लेना होगा। दूसरी तरफ़ ये मैप तुम्हें ग्लास गार्डेन में अपना रास्ता ढूँढने में सहायक होगा। परंतु तुम्हें चुनाव किसी एक का ही करना होगा। तुम दोनों नहीं ले सकती,”
आसमान से बूँदें बरसने लगीं। ग्लास गार्डेन का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुल रहा था। पलक ने लपक कर उस लम्बी सफ़ेद औरत के हाथ से छाता ले कर खोला। आसमान से बरसती काँच की बूँदें छाते के बुलेटप्रूफ़ नज़र आते मटीरीयल से टकरा कर इधर-उधर छिटकने लगीं। जिस लम्बी औरत ने पलक को छाता दिया था वो खुद भी काँच की प्रतिमा में बदल गयी और उसके हाथ में थमा नक़्शा भी।
छाते में खुद को छुपाते हुए, बरसती काँच की बूँदों के बीच पलक ने ग्लास गार्डेन में कदम रखे। अंदर काँच की बनी अनगिनत आदमक़द प्रतिमाएँ थीं। ये सभी प्रतिमाएँ बिल्कुल सजीव प्रतीत हो रही थीं, जैसे जीते-जागते इंसानों को काँच की मूर्तियों में बदल दिया गया हो।
“इनमें से हर एक प्रतिमा कभी एक जीता-जागता इंसान था,” इस बार निमित्त की आवाज़ पलक के जिस्म में अंदर तक सिहरन पैदा कर गई।
ऐक्ट 03: द ग्लास स्टैचूज़
ग्लास गार्डेन अपने-आप में एक भूल-भूलैया था। काँच के पेड़, काँच के बने फूलों की क्यारियाँ और रास्ते, पारदर्शी काँच के तालाब और इस गार्डेन में काँच के इंसान जो बिल्कुल सजीव लगते हुए भी निर्जीव थे। आसमान से बरसती काँच की बूँदें इन्हें नुक़सान नहीं पहुँचा रही थीं, इनकी ऊपरी सतह, मुलायम, चिकनी और ठोस थी, लेकिन देखने में यह इतने नाज़ुक लग रहे थे कि हल्की सी ठोकर लगते ही गिर कर चकनाचूर हो जाएँ।
पलक इस ग्लास गार्डेन में भटक रही थी। उसके ज़हन में डायरी के काले पन्ने पर लिखी इबारत कौंधी।
“वी बेरीड हर अंडर द विलो,”
पलक की नज़रें गार्डेन में चारों ओर घूमीं। बारिश तेज़ से मूसलाधार की तरफ़ बढ़ रही थी। आसमान घने बादलों से इस कदर घिर चुका था कि चारों तरफ़ स्याह अंधकार व्याप्त था जिसके बीच उस विचित्र ग्लास गार्डेन और वहाँ स्थापित प्रतिमाओं पर आसमान से कौंधती बिजली प्रतिबिम्बित हो कर एक वृहद् इंद्रजाल उत्पन्न कर रही थी।
“तुम्हारे पास समय कम है पलक,”
“क्या मतलब?”
आसमान से कौंधती बिजली नीचे तालाब पर गिरी।
“छनाकsss….” काँच टूटने की तीखी और ज़ोरदार ध्वनि वातावरण में गूंजी। काँच का ताल चकनाचूर हो चुका था। ठिठक कर खड़ी पलक स्तब्ध उसे देख रही थी।
आसमान में दोबारा बिजली कौंधी। इस बार उसका लक्ष्य ताल या फूलों की क्यारी नहीं, बल्कि काँच प्रतिमाओं का एक समूह था।
“छनाकsss….” फिर हुई तीखी आवाज़ के साथ प्रतिमाओं का समूह टुकड़ों में बिखर गया। काँच के टूटे चेहरों में पलक को अपने चहरे के अनगिनत प्रतिबिम्ब नज़र आ रहे थे।
“वी बेरीड हर अंडर द विलो,” उसके दिमाग़ में फिर से इबारत कौंधी। पलक ने टूटे हुए तालाब की तरफ़ देखा।
तालाब के किनारे काँच के “वीपिंग विलो” पेड़ों का समूह था। वीपिंग विलो अधिकतर नदी और तालाबों के किनारे पाए जाते हैं और इनके पत्ते व शाखाएँ प्राकृतिक रूप से ही यूँ झुकी हुई होती हैं जिन्हें दूर से देखने पर ऐसा आभास होता है जैसे यह सिर झुका कर रुदन कर रहे हों। यह वीपिंग विलो भी ऐन ऐसे ही थे, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि इनके पत्ते, टहनियाँ, शाखाएँ, सब कुछ काँच के बने थे।
पलक वीपिंग विलो के समूह की तरफ़ भागी। वहाँ एक साया खड़ा नज़र आ रहा था। ये वही साया था जिसे पलक ने ट्रेन में देखा था।
“त…तुम..” पलक उसे देख कर ठिठकी।
काले लिबास में वीपिंग विलो के नीचे निमित्त कालांत्री खड़ा था। उसके हाथ में लाल कपड़े से ढँका हुआ पिंजरा था।
“तुम पहली चॉइस में कूप में रुकने के बजाए मेरे पीछे आती तो भी यहीं आती, बीच में तुम दूसरी कोई भी चॉइस मेक करती तो भी तुम यहीं आती पलक। तुम्हारा यहाँ आना नियति है जिसे बदला नहीं जा सकता, सिर्फ़ यहाँ तक पहुँचने का रास्ता तुम अपनी इच्छा से चुन सकती हो…जो कि तुमने चुना,” निमित्त मुस्कुराते हुए बोला।
“क…कौन हो तुम? क्या हो तुम?”
“मैं? मैं तुम्हारे आत्मबोध का “निमित्त” मात्र हूँ,” कहते हुए निमित्त एक ओर सरक कर खड़ा हो गया।
उसके पीछे काँच की एक प्रतिमा थी। एक लड़की की प्रतिमा। उस प्रतिमा का चेहरा देख कर पलक के होंठों से तीखी सिसकारी निकल गयी।
वो प्रतिमा किसी और की नहीं, खुद पलक की थी, लेकिन उसके वर्तमान स्वरूप की नहीं, बल्कि तब की जब वो बारह-तेरह साल की थी। पलक के काँपते कदम अपनी प्रतिमा की ओर बढ़े।
काँच की पलक के चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत थी। उसकी आँखें सिर्फ़ इसलिए नहीं चमक रही थीं क्योंकि वो काँच की बनी थीं, उन आँखों ने अब तक जीवन के वो घिनौने और भयावह सच नहीं देखे थे जो किसी बच्ची से उम्र से पहले उसका बचपन छीन लेते हैं। उस काँच के चेहरे पर एक सहज मुस्कान थी जिसे पलक जाने कब का भुला चुकी थी। उस भूली मुस्कान को देख कर अनायास ही उसकी आँखों से दो बूँदें बह गयीं।
उसी पल आसमान में फिर से ज़ोरदार बिजली कौंधी जो सीधे उस वीपिंग विलो पर आ गिरी जिसके नीचे पलक और निमित्त थे।
“छनाकsss….” तीव्र तीखी ध्वनि के साथ वीपिंग विलो की शाखाएँ और पत्ते टूट कर नीचे गिरने लगे।
“अब आख़री फ़ैसला लेने का वक्त आ गया है पलक। तुम्हारे बचपन को पारदर्शी काँच के अस्तित्व में क़ैद की हुई ये मूर्ति किसी भी पल आसमान से बरसती आपदा के सामने चकनाचूर हो जाएगी। तुम्हारे पास सिर्फ़ एक मौक़ा है…एक आख़री मौक़ा…या तो अपने खोए अस्तित्व के इस बिछड़े अक्स को बचा लो, या फिर अपने अपने आज के अस्तित्व को बचा लो,” निमित्त मुस्कुराते हुए बोला।
“क..कैसे? कैसे बचाऊँ मैं इसे?” पलक ने अपने ऊपर लिया हुआ छाता अपनी काँच की प्रतिमा के ऊपर कर दिया ताकि ऊपर से बरसते टूटे काँच के टुकड़े उसे नुक़सान ना पहुँचाएँ, लेकिन वीपिंग विलो की टहनियाँ टूट रही थीं। जल्द ही पूरा पेड़ टूट कर उनके ऊपर गिरने वाला था।
“तुम्हारे पास एक चाभी है, जो तुम्हें ट्रेन के एन्वलप में मिली थी। वो चाभी इस पिंजरे की है,” कहते हुए निमित्त ने पिंजरे पर ढँका लाल कपड़ा उठा दिया। पिंजरे के अंदर एक काँच का बना दिल था जो धड़क रहा था।
“इस दिल को इसकी सही जगह पर रखते ही तुम्हारा वो हिस्सा जो अब सिर्फ़ एक अक्स, एक प्रतिबिम्ब, एक पारदर्शी काँच की प्रतिमा बन कर रह गया है, फिर से जीवंत हो जाएगा,” निमित्त पलक की आँखों में देखते हुए बोला।
पलक ने बिना एक पल गँवाए अपनी पॉकेट से “स्केलटन-की” निकाली और पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया। वो अंदर हाथ डाल कर काँच का दिल निकालने ही वाली थी कि निमित्त ने उसे रोक दिया।
“ना-ना-ना-ना-ना…ऐसे नहीं। ब्रह्मांड की अपनी संहिताएँ और सिद्धांत हैं जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। यूनिवर्स का लॉ कहता है, “टू ऑब्टेन समथिंग, समथिंग ऑफ़ ईक्वल वैल्यू मस्ट बी लॉस्ट,”…यानी जो कुछ भी पाना चाहते हो, उसकी एवज़ में समान मात्रा में कुछ देकर मूल्य चुकाना होगा,” निमित्त के चहरे पर धूर्त भाव आए।
“क्या देकर मूल्य चुकाना होगा?” पलक से सशंकित भाव से सवाल किया।
“दिल का मोल दिल से चुकाओ। अपना दिल निकाल कर इस पिंजरे में रख दो, और ये काँच का दिल वापस अपनी प्रतिमा में लगा दो,” निमित्त ने अपनी पॉकेट से एक नक्काशीदार कटार निकाल कर पलक की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा।
“लेकिन ये कैसे पॉसिबल है?” पलक कन्फ़्यूज़्ड नज़र आ रही थी।
“तुम भूल रही हो कि तुम फ़िलहाल एक कहानी…एक इंटरैक्टिव स्टोरी में हो। यहाँ कुछ भी पॉसिबल है। ये आख़री चॉइस है जो तुम्हें मेक करनी है। अगर हिम्मत है तो कटार उठाओ और अपना दिल चीर निकालो, तुम मारोगी नहीं लेकिन दर्द उतना ही होगा जितना वास्तविक यथार्थ में अपने सीने में कटार उतारने में होता। अगर हिम्मत नहीं…तो मुड़ कर यहाँ से चली जाओ लेकिन पलट कर मत देखना, अपने खोए बचपन को चकनाचूर होते नहीं देख सकोगी,”
पलक की आँखें भर आयीं। गला भर्रा गया,
“प्लीज़..ऐसा क्यों कर रहे हो?” वो लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोली।
“क्योंकि ये मेरी कहानी है, यहाँ मैं थोड़ा सा नहीं पूरा भगवान हूँ। “अहं ब्रह्मास्मि” हूँ। यहाँ मैं कुछ भी कर सकता हूँ,” निमित्त मुस्कुराते हुए बोला।
पलक ने एक झटके से कटार उठा कर अपने सीने की तरफ़ तान ली। पूरे वेग से सीना चीरने के लिए नीचे आती कटार कुछ इंच की दूरी पर ठिठक कर रुक गई।
“मुझसे नहीं होगा…नहीं है मुझ में इतनी हिम्मत,” पलक की आवाज़ काँप रही थी। उसमें झलकती हताशा साफ़ कह रही थी कि वो अपनी हार स्वीकार चुकी है।
बिना निमित्त के रीऐक्शन का वेट किए, वो वहाँ से वापस जाने के लिए पलटी। उसके विलो से दूर जाते तेज़ कदम अगली बिजली गिरने की आवाज़ से ठिठक गए। वीपिंग विलो का काफ़ी हिस्सा टूट कर गिर चुका था अब सिर्फ़ वही हिस्सा बाक़ी था जो उसकी काँच की प्रतिमा को कवर किए हुए था। ना चाहते हुए भी वो पीछे मुड़ी। अपने खोए बचपन को यूँ नेस्तनाबूद होने के लिए छोड़ जाने का कलेजा नहीं था उसमें।
“तुमने कहा कहानी मेरी चॉइस पर चलेगी…राइट?”
“जो चॉइस तुम्हारे सामने हैं उनपर,”
“ठीक है, मैं इस काँच के दिल की क़ीमत पिंजरे में रखने को तैयार हूँ,”
“बढ़िया…फिर देर किस बात की?”
“मुझसे ना होगा…तुम कर दो। तुमने कहा ये कहानी ही तो है, तुम यहाँ के भगवान हो…कुछ भी कर सकते हो। तो कटार उठाओ और मेरा दिल निकाल कर अपने पिंजरे में रख लो और आज़ाद कर दो मेरे बचपन को,” पलक एक साँस में बोल गई।
“हूँ! ऐसा हो तो सकता है…लेकिन…” निमित्त सोचने का नाटक करते हुए बोला।
“लेकिन क्या?”
“तुम्हें मुझे ये अधिकार सौंपना होगा। बिना तुम्हारे मुझे अधिकार दिए, मैं तुम्हारा दिल नहीं निकाल सकता,” निमित्त की आँखों में शरारती चमक और होंठों पर तिरछी मुस्कान थी।
“ठ…ठीक है, मैं तुम्हें ये अधिकार सौंपती हूँ,” पलक दृढ़ भाव से बोली।
“बढ़िया,” निमित्त के चहरे पर आए भाव बता रहे थे कि आख़िरकार उसे वो मिल गया जो उसे चाहिए था।
पलक को अंदाज़ा भी नहीं हुआ था कि उसने अनजाने में निमित्त को अपने अंतर्मन में प्रवेश करने की अनुमति दे दी थी। निमित्त एक झटके से आगे बढ़ा और उसका हाथ जैसे पलक के सीने में उतर कर सीधा उसके धड़कते दिल तक पहुँच गया।
“नहीं, ये मूल्य बराबरी का नहीं है,” निमित्त जैसे अपनी हथेली में पलक के दिल को तोलते हुए बुदबुदाया।
“क…क्यों?”
“पिंजरे में जो दिल है वो बहुत हल्का है। उसमें कोई बोझ नहीं। पर तुम्हारा दिल भारी है…बहुत भारी। इस दिल का भार उस काँच के दिल से बहुत अधिक है,” निमित्त अपना हाथ वापस खींचते हुए बोला।
“नहीं…ऐसा मत करो,”
“मैंने कहा ना, समान मोल चुकाना होगा,” निमित्त पलक के बिल्कुल पास आकार उसकी नज़रों में देखते हुए बोला। पलक की पलकें आंसुओं से डबडबाई हुई थीं।
“प्लीज़…मत करो ऐसा,” पलक सिसकते हुए बोली।
“पिंजरे में कुछ रखना होगा। उतने ही वजन का…या कह लो उतना ही हल्का जितना कि उस पिंजरे में रखा दिल है,” निमित्त ने बहुत आहिस्ता से अपना हाथ पलक की पॉकेट में डाला और वहाँ से सूखा हुआ जैज़्मिन का फूल निकाल लिया।
निमित्त ने पिंजरे में वो मुरझाया हुआ फूल रख कर वहाँ से काँच का दिल निकाल लिया और पलक के हाथों में सौंप दिया। पलक की आँखों से बहते आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। उसने आगे बढ़ कर काँच का दिल अपनी ग्लास स्टैचू से टच कराया। काँच का दिल स्टैचू में समा गया और स्टैचू तेरह साल की जीती-जागती पलक में तब्दील हो गई।
“कम ऑन, खुद को ज़ोर से गले लगाओ और बताओ अपने “टीन सेल्फ़” को कि तुम्हें उसपर कितना गर्व है…टू बी सो स्ट्रॉंग, टू बियर सच पेन,” निमित्त की आवाज़ और चहरे के भाव अब बेहद सौम्य थे।
पलक ने आगे बढ़ कर खुद को गले लगा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
“अब जब तुम जागोगी, तुम्हारा चाइल्डहुड ट्रॉमा हील हो चुका होगा…मेरी आवाज़ को फ़ॉलो करो…थ्री…टू…वन…”
“स्नैप” चुटकी बजने की तीखी आवाज़ के साथ पलक की तंत्रा भंग हुई। उसे यूँ लगा जैसे वो बैठे-बैठे एक गहरी झपकी ले रही थी जिसमें उसने एक विचित्र सपना देखा। निमित्त उसके सामने कुर्सी पर बैठा मुस्कुरा रहा था। सेलेनाइट प्लेट पर नाचते टम्बल्ड टॉप्स अब रुक चुके थे।
पलक के चहरे के भाव निमित्त को देख कर बदले।
“तुम क्या हो?…जादूगर?”
“मैं तो बस “निमित्त” मात्र हूँ,” निमित्त मासूमियत से कंधे उचकाता हुआ बोला।
पलक चुपचाप अपनी जगह से उठी और निमित्त के या वहाँ उपस्थित बाक़ी किसी शख़्स के कुछ समझ पाने से पहले बढ़ कर निमित्त को गले लगा लिया।
“थैंक यू सो मच,”
निमित्त ने अपनी पॉकेट से एक सूखा जैज़्मिन का फूल निकाला और पलक की हथेली पर रख दिया।
“कांव-कांव-कांव”
लॉन और पूरे गार्डेन एरिया में जगह-जगह ढेरों कौवे आ कर बैठ रहे थे।
पलक के मिज़ाज में अचानक आई तब्दीली से वहाँ मौजूद हर शख़्स अवाक् था। खुद गिरीश बाबू भी
“ये क्या जादू हुआ? कुछ पल पहले ये लड़की निमित्त को देख कर बुरी तरह चिढ़ रही थी, अब खुद आगे बढ़ कर उसे गले लगा रही है,”
“मैं आपको यही समझाने की कोशिश कर रहा था गिरीश बाबू। ही इज़ द मास्टर ऑफ़ मैनिप्युलेशन। अपने बारे में लोगों की फ़ीलिंग्स तक कंट्रोल कर सकता है ये इंसान। ही इज़ ए थ्रेट फ़ॉर द सोसाइटी,….बररर्रsss” जूस का आख़री ग्लास ख़ाली कर के डकार मारते हुए चीता ने कहा।
निमित्त ने अपना चेहरा ऊपर आसमान की तरफ़ उठाया। आसमान में कौवों का हुजूम मंडरा रहा था। वो जानता था कि ये उसके लिए संकेत है। बाग़ीचे की एक डॉल पर, पत्तों की ओट में बैठे उल्लू की हल्की “हूट” सुनाई दी। पलक अब भी अपने इमोशन्स प्रॉसेस करने की कोशिश कर रही थी और फ़िलहाल वहाँ से उठ कर जा चुकी थी। सुभद्रा ने आँखों के इशारे से निमित्त से माजरा पूछा। निमित्त ने आँखों के इशारे से ही उसे इत्मिनान दिलाया कि फ़ुरसत से सब कुछ विस्तार में बताएगा और अपनी जगह से उठ कर ताम्बे की ओर गुनगुनाते हुए बढ़ गया।
“तूने अभी देखा नहीं, देखा है तो जाना नहीं, जाना है तो माना नहीं, मुझे पहचाना नहीं, दुनिया दीवानी मेरी मेरे पीछे-पीछे भागे, क़िस्में है दम यहाँ ठहरे जो मेरे आगे, मेरे आगे आना नहीं, देखो टकराना नहीं, किसी से भी हारे नहीं हम…जो सोचें, जो चाहें, वो कर के दिखा दें…हम वो हैं जो दो और दो पाँच बना दें,”
TO BE CONTINUED
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